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पुस्तक मेलों से होकर गुजरता बेहतर जिंदगी का रास्ता

पुस्तक मेलों से होकर गुजरता बेहतर जिंदगी का रास्ता

Monday December 04, 2017 , 6 min Read

कहा जाता है कि किताबें हमारा सबसे विश्वसनीय दोस्त होती हैं। जाड़े की धमक के साथ ही किताबों की दुनिया भी आजकल देश में जगह-जगह गुलजार हो रही है। इस समय बिहार की राजधानी पटना में और हिमाचल के कुल्लू में पुस्तक मेलों की धूम मची हुई है। दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले का समय भी धीरे-धीरे निकट आ रहा... 

सांकेतिक तस्वीर (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

सांकेतिक तस्वीर (फोटो साभार- सोशल मीडिया)


पटना के पुस्तक मेले में प्रकाशकों की ओर से पुस्तकों की खरीद पर 10 से लेकर 30 प्रतिशत की छूट दी जा रही है। मेले में साहित्य, प्रतियोगी परीक्षाओं, बाल साहित्य, धार्मिक पुस्तकें अच्छी संख्या में मौजूद हैं।

 हिमाचल प्रदेश में कुल्लू जिला मुख्यालय पर पुस्तक मेले में खास तौर से स्कूलों के बच्चे उमड़ रहे हैं। मेले में दस प्रकाशन संस्थानों ने अपनी किताबें रखी हैं। अच्छी पुस्तकों की दुनिया निराली होती है।

कहा जाता है कि किताबें हमारा सबसे विश्वसनीय दोस्त होती हैं। जाड़े की धमक के साथ ही किताबों की दुनिया भी आजकल देश में जगह-जगह गुलजार हो रही है। इस समय बिहार की राजधानी पटना में और हिमाचल के कुल्लू में पुस्तक मेलों की धूम मची हुई है। दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले का समय भी धीरे-धीरे निकट आ रहा। कहा जाता है कि जिंदगी का सबसे खूबसूरत रास्ता बेहतर किताबों से होकर जाता है। पुस्तकें हमारी मित्र हैं। वे अपना अमृतकोष सदा हम पर न्योछावर करने को तैयार रहती हैं।

अच्छी पुस्तकें हमें रास्ता दिखाने के साथ-साथ हमारा मनोरंजन भी करती हैं। बदले में वे हमसे कुछ नहीं लेतीं, न ही परेशान या बोर करती हैं। इससे अच्छा और कौन-सा साथी हो सकता है कि जो केवल कुछ देने का हकदार हो, लेने का नहीं। इस समय बिहार की राजधानी पटना में और हिमाचल के कुल्लू में पुस्तक मेलों की धूम मची हुई है। दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले का समय भी धीरे-धीरे निकट आ रहा। पटना के पुस्तक मेले में प्रकाशकों की ओर से पुस्तकों की खरीद पर 10 से लेकर 30 प्रतिशत की छूट दी जा रही है। मेले में साहित्य, प्रतियोगी परीक्षाओं, बाल साहित्य, धार्मिक पुस्तकें अच्छी संख्या में मौजूद हैं।

साहित्य में नए लेखकों के बीच आज भी प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, गुलजार, तस्लीमा नसरीन, श्रीलाल शुक्ल जैसे पुराने लेखक डिमांड में हैं। वाणी प्रकाशन, राजकमल प्रकाशन, प्रभात प्रकाशन, प्रकाशन संस्थान, प्रकाशन विभाग, साहित्य अकादमी नई दिल्ली आदि के स्टॉल पर साहित्य से जुड़ी किताबें मिल रही हैं। बच्चों को पूर्व राष्ट्रपति कलाम, विवेकानंद आदि लेखकों की किताबें पसंद रही हैं। बच्चों के लिए किलकारी प्रकाशन की ओर से भी स्टॉल लगाए गए हैं। धर्मकर्म में रूचि रखने वालों के लिए यहां ओशो साहित्य, योग्दा सत्यसंग ध्यान केंद्र, श्री कबीर ज्ञान प्रकाशन केंद्र, बिहार राज्य आर्य प्रतिनिधि सभा, इस्लामिक साहित्य से जुड़े स्टॉल पर ढेरों किताबें मौजूद हैं। मेले में विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता फैलाने के लिए भी स्टॉल लगे हैं। मेले में नुक्कड़ नाटक, आधी आबादी पर परिचर्चाएं, कवि-साहित्यकारों की बड़ी संख्या उपस्थिति ने माहौल को शब्दमय कर दिया है।

उधर हिमाचल प्रदेश में कुल्लू जिला मुख्यालय पर पुस्तक मेले में खास तौर से स्कूलों के बच्चे उमड़ रहे हैं। मेले में दस प्रकाशन संस्थानों ने अपनी किताबें रखी हैं। अच्छी पुस्तकों की दुनिया निराली होती है। जो एक बार पुस्तकों की दुनिया में डूब जाए, फिर कहां उससे बाहर निकलना चाहे। अच्छी पुस्तकों से जीवन को रचनात्मक दिशा मिलती है। पुस्तकों की दुनिया पर प्रेमपाल शर्मा कुछ सवालों के साथ बात करते हैं। उनका कहना है कि किताबों के लिए कई संस्‍थान, सरकारें आयोजन भी करती हैं लेकिन यह एक रीति से ऊपर क्‍यों नहीं उठ पाता?

किताबों की महत्‍ता जितनी भारत जैसे अविकसित, अर्धशिक्षित देश के लिए है, उतनी तो अमेरिका, यूरोप की भी नहीं। कहने की जरूरत नहीं शिक्षा, ज्ञान को जन जन तक पुस्‍तकें तो ही पहुंचायेगी। यह तो सभ्‍यता का वाहन है। इसलिए पुस्‍तकों की दुनिया का सब से बड़ा आविष्‍कार कहा जाता है। क्‍या रामायण, कुरान, बाईबिल आज जिंदा रह पाते, यदि इन्‍हें पुस्‍तकों के रूप में संरक्षित नहीं किया होता? सवाल ये भी उठता है कि आज कौन सी किताबें? किस भाषा में? किस विषय की। यहां सबसे महत्‍वपूर्ण पक्ष अपनी भाषा का है। शिक्षा का बुनियादी शब्‍द। पढ़ने का जो आनंद अपनी भाषा में होता है वह परायी में नहीं।

इसलिए विदेशी भाषा यदि जरूरत हो तो हम सीखें, सिखायें लेकिन मातृभाषा की कीमत पर नहीं। दुर्भाग्‍य से हिन्‍दुस्‍तान जैसे पूर्व गुलाम देशों में आज यही हो रहा है और इसलिए पूरी नयी पीढ़ी किताबों से दूर भाग रही है। हर स्‍कूल, कॉलिज में बच्‍चों, छात्रों पर अंग्रेजी माध्‍यम लाद दिया गया है। लादने की यह प्रक्रिया पिछले 20 वर्षों में शिक्षा के निजीकरण और ग्‍लोलाइजेशन की आड़ में और तेज हुई है और उसी अनुपात में पुस्‍तक पढ़ने की संस्‍कृति में कमी आई है।

कवि अज्ञेय की पंक्यिां हैं- मन बहुत सोचता है कि उदास न हो, पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए, शहर के, दूर के तनाव दबाव कोई सह भी ले, पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए? प्रसंगवश प्रमोद सिंह कुछ इस तरह किताब की आत्मकथा लिखते हुए हमे समझाते हैं कि ये दुनिया में कैसे आईं, इनका जीवन में कितना महत्व है- 'कहना मुश्किल है कि मेरी कहानी कहां शुरू हुई, मैं अस्तित्व में कैसे आई? दुनिया में मेरे आने की कोई खुशी मनी हो, तो मुझे उसकी खबर नहीं है। खुशी तो शायद मेरे लिखने वाले को भी नहीं हुई। मुझे हाथों में लेकर तेजी से पलटते हुए पहली चीज जो उसके मुंह से निकली, वह 'च्च च्च' के अनंतर अविश्वास, दर्द व गुस्से की ध्वनियां थीं। क्यों मैं इस संसार में आई, किसे मेरी जरूरत थी?

कितने अरमान थे, विश्वविद्यालयों में यूं ही इठलाती, टहलती पहुंच जाऊंगी, पुस्तकालयों में लड़कियां मुझे देखकर जल मरेंगी, तुर्की से कोई युवा आलोचक, आंखों में चमक और होठों पर विस्मित हंसी लिए चला आएगा और रहस्य भरी तनी नजरों के हर्ष में फुसफुसाकर ऐलान करेगा, 'यही तो वह किताब है, जिसे मैं खोजता फिर रहा था! कितने अरमान थे कि इस्तांबुल जाऊंगी, वहां से ठुमकती पेरिस पहुंचकर गलीमार्द की कुरसी पर पसरकर संस्कृति-नागर को सन्न कर दूंगी, फिर वहां से भागकर लंदन को बांहों में ऐसे भर लूंगी कि न्यूयॉर्क के सारे बुद्धि-रसिक-वणिक जलकर खाक होते, ढाक के पात होते रहेंगे! सब धरा रह गया। मैं इसी धरा पर धरी रह गई। ऐसा क्योंकर हो गया? मैं थक गई हूं। पक गई हूं। ताज्जुब होता है कि इतनी तकलीफों के बावजूद कैसे अभी तक छपी हुई हूं, पन्नों पर छितराए अक्षरों में बची हुई हूं, जबकि मेरे लिए सस्ती मारकिन की कुरती व एक सस्ता पेटीकोट खरीदने वाला यहां कोई नहीं, मुझे हाथों में लेकर खुशी का तराना गाए, ऐसा तो कतई नहीं। फिर भी हूं! कैसी हूं?'

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