वर्ल्ड बैंक की नौकरी छोड़ पिछड़े इलाकों में शिक्षा की नई बुनियाद डाल रहे विनायक
ओडिशा, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े राज्यों में लाख दावों के बावजूद शिक्षा की बुनियाद हिली हुई है। ऐसे में कुछ स्वतंत्र संस्थाएं इस दिशा में शिक्षा का स्तर उन्नत करने में जुट गई हैं। कभी बेंगलुरु में वर्ल्ड बैंक के ग्लोबल एजुकेशन प्रैक्टिस कंसल्टेंट रहे इंजीनियर विनायक आचार्य के नेतृत्व में ऐसी ही एक स्वयंसेवी संस्था 'थिंकजोन' की कोशिशें रंग ला रही हैं। ओडिशा में 'थिंकजोन' अपना मिशन कामयाब करने के बाद अब बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ की ओर कदम बढ़ाने जा रहा है।
कभी बेंगलुरु में वर्ल्ड बैंक के ग्लोबल एजुकेशन प्रैक्टिस कंसलटेंस रहे इंजीनियर विनायक आचार्य का मानना है कि किसी भी काम को बेहतर ढंग से करने के लिए शिक्षित होना बेहद जरूरी है। शिक्षा ही वह माध्यम है, जिसकी ताकत से अपने कौशल को और निखारा जा सकता है।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में जिन 95 प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक स्कूलों में दाखिला दिलाया जाता है, उनमें से लगभग आधे ही दसवीं कक्षा तक पहुंच पाते हैं। एक सचाई और भी है। कई बार देखा गया है कि पांचवीं का छात्र दूसरी कक्षा के अंकगणित के सवाल हल करने में असमर्थ होता है। ऐसे बच्चों में से 52 प्रतिशत छात्र बारह वर्ष की आयु होने तक स्कूल ही छोड़ देते हैं। इसकी वजह स्कूलों का खराब माहौल और ऐसे बच्चों की शिक्षा पर अपेक्षित ध्यान न देना है। खासकर छात्राओं के मामले में ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालात और बदतर हैं। एक तो ज्यादातर लड़कियों को अभिभावक ही पढ़ाई से वंचित किए रहते हैं, दूसरे वह स्कूल पहुंच भी जाएं तो उनके साथ कई दूसरी तरह की मुश्किलें।
उड़ीसा में ऐसे हालात से निपटने का एक भगीरथ प्रयास कर रहे हैं थिंकजोन के संस्थापक इंजीनियर विनायक आचार्य। उनका मकसद है, आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों और बच्चियों के लिए शिक्षा का उचित वातावरण तैयार करना। 'थिंकजोन' ने मोबाइल और टैब्लेट बेस्ट अप्लीकेशन को ऑफलाइन सुविधाओं के साथ विकसित किया है, जो देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यक्रम को क्रियान्वित करने में कर रहा है। इस तरह हमारे देश में पहली बार शिक्षा की आधुनिक तकनीक विकसित की जा रही है। इससे प्रारंभिक शिक्षा की गुणवत्ता और सीखने की गति की मॉनीटरिंग भी आसानी से हो जाती है। थिंकजोन से जुड़ी कटक जिले के दानपुर ग्राम पंचायत की स्वर्णताल रोज़ाना अपने गांव में बच्चों को उचित शिक्षा दिलाते हुए बड़ी हो रही हैं। स्वर्णताल ने दानपुर में एक थिंकजोन स्थापित करने के बाद अब तक चालीस बच्चों को इस तरह शिक्षित किया है। 'थिंकजोन' की कहानी इतनी भर ही नहीं है।
कभी बेंगलुरु में वर्ल्ड बैंक के ग्लोबल एजुकेशन प्रैक्टिस कंसलटेंस रहे इंजीनियर विनायक आचार्य का मानना है कि किसी भी काम को बेहतर ढंग से करने के लिए शिक्षित होना बेहद जरूरी है। शिक्षा ही वह माध्यम है, जिसकी ताकत से अपने कौशल को और निखारा जा सकता है। विनायक आचार्य ने जब देखा कि ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में शिक्षा का स्तर काफी नीचे है तो उन्होंने तय किया कि वह बच्चों को शिक्षित करने का एक नया मॉडल तैयार करेंगे। इसके बाद उन्होंने ‘थिंकजोन’ बनाया, जिसमें गांव के बच्चों की पढ़ाई पर अलग तरीके से ध्यान दिया जाता है। इसमें गांव की पढ़ी-लिखी महिलाओं को शामिल किया जाता है ताकि वे बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ उनकी परेशानियों को भी समझ सकें। विनायक जब बेंगलुरु में ग्लोबल एजुकेशन प्रैक्टिस कंसलटेंस रहे, उनको विदेश जाने का भी मौका मिला लेकिन उनका रुझान सामाजिक कामों की ओर था।
उन्होंने भुवनेश्वर के एक्सआईएमबी कॉलेज से रूरल मैनेजमेंट में एमबीए करने के बाद कुछ समय के लिए कौशल विकास के क्षेत्र में काम किया। इस दौरान जब वह मलकानगिरी जैसे आदिवासी गांवों में गए तो उन्होंने देखा कि स्किल ट्रेनिंग के लिए आने वाले ज्यादातर युवा ऐसे थे, जो पढ़ाई में कमजोर थे। यही वजह थी कि ट्रेनिंग के दौरान वे खुद भी इस बात को मानते थे कि अगर उनको बचपन से ही अच्छी और गुणात्मक शिक्षा मिली होती तो वह भी कुछ कर दिखाने के योग्य बन जाते। स्किल ट्रेनिंग के बाद वे युवा सोचते कि उनको अच्छी नौकरी मिल जाएगी लेकिन ये आसान नहीं था। इसकी वजह भी पढ़ाई थी क्योंकि ये पढ़ाई में कमजोर थे। यहीं से विनायक को लगा कि अगर यहां के युवाओं को रोजगार से जोड़ना है तो सबसे पहले बचपन से ही उनको अच्छी शिक्षा देनी जरूरी है, जिससे उनका आधार मजबूत हो।
अब विनायक आचार्य के ‘थिंकजोन’ का मॉडल इस समय ओडिशा के कटक, जगतपुर और गंजाम जिले के कई गांवों में सक्रिय है। थोड़ी बहुत पढ़ी-लिखी महिलाएं भी इस माड्यूल के स्टैंडर्ड को आसानी से समझ जाती हैं। फिर वे इसी मॉड्यूल से स्थानीय बच्चों को रोचक तरीके से पढ़ाती हैं। ‘थिंकजोन’ के लिए महिलाओं के चयन की भी एक खास प्रक्रिया है। सबसे पहले ऐसे गांव का चयन किया जाता है, जहां पर ‘थिंकजोन’ का मॉडल शुरू करना होता है। उसके बाद उसी गांव की पढ़ी-लिखी महिलाओं का तय मानक के मुताबिक चयन किया जाता है। खासकर उन्हीं महिलाओं को चयन में प्राथमिकता दी जाती है, जिनको पहले से बच्चों को पढ़ाने का थोड़ा-बहुत भी अनुभव होता है।
प्रोजेक्ट से जोड़ने से पहले उन महिलाओं को ‘थिंकजोन’ डेढ़ महीने प्रशिक्षण देता है। इस समय करीब पैंतालीस महिलाएं तीन से दस साल तक के डेढ़ हजार बच्चों को पढ़ा रही हैं। इनमें से कई एक बच्चे स्कूल भी जाते हैं। ज्यादातर ‘थिंकजोन’ में ही पढ़ाई कर रहे हैं। ये महिलाएं अपने घर, सामुदायिक केंद्रों या किसी दूसरी जगह पर इन बच्चों को इकट्ठा कर पढ़ाती हैं। हर बैच में 25 से 30 बच्चे होते हैं। बच्चों की संख्या के हिसाब से ये महिला टीचर दिन में दो से तीन बैचों में बच्चों को पढ़ाती हैं। ‘थिंकजोन’ का प्रोग्राम लेवल बेस है। शुरूआत में सबसे पहले बच्चे का टेस्ट लिया जाता है और उसकी जानकारी के हिसाब से उसे पढ़ाया जाता है। इसमें बच्चे की उम्र नहीं देखी जाती है।
‘थिंकजोन’ में पढ़ाई कर रहे इनमें से कुछ बच्चे आंगनबाड़ी भी जाते हैं। इन बच्चों को पेंसिल पकड़ने से लेकर साफ सफाई और नैतिक बातें भी सीखाई जाती हैं, क्योंकि इस उम्र में बच्चों का 90 प्रतिशत लर्निंग विकास होता है। इसके लिए बच्चों को विडियो भी दिखाए जाते हैं। उन्हें गेम खेलने का भी अवसर होता है। ‘थिंकजोन’ का ये मॉडल वर्ष 2015 से काम कर रहा है। इन बच्चों की अध्ययन क्षमता में तेजी विकास पाया गया है। साथ ही इन महिलाओं की आय में भी चालीस प्रतिशत का इजाफा हुआ है। ‘थिंकजोन’ का ये मॉडल उन इलाकों के लिए है, जो आर्थिक और शैक्षणिक रुप से पिछड़े हुए हैं। अब विनायक और उनकी टीम की योजना इस मॉडल को बिहार, छत्तीगढ़ और झारखंड जैसे उन राज्यों में ले जाने की है, जहां पर बच्चों की पढ़ाई का स्तर चिंताजनक है।
थिंकजोन के इन राज्यों की ओर रुख करने की कई वाजिब वजहें हैं। नॉबेल पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन द्वारा पटना में जारी की गई एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में प्रारंभिक स्कूली शिक्षा की दिशा तो ठीक हुई है, लेकिन दशा अभी भी गंभीर है। वहां शिक्षकों और स्कूल-भवन संबंधी बुनियादी जरूरतों का अभाव सबसे बड़ी रुकावट है। राज्य के स्कूलों में शिक्षकों के पढ़ाने और छात्रों के सीखने का स्तर भी अफसोसनाक है। यह सर्वेक्षण अमर्त्य सेन द्वारा स्थापित गैर सरकारी संस्था प्रतीचि (इंडिया) ट्रस्ट और पटना की 'आद्री ' ने संयुक्त रूप से राज्य के पांच जिलों में कुल तीस गांवों में किया था। रिपोर्ट के अनुसार जो शिक्षक हैं भी, उनमें से अधिकांश स्कूल से अक्सर अनुपस्थित पाए जाते हैं। उनका निरीक्षण करने वाले सरकारी तंत्र भी फिसड्डी साबित हो रहा है। अमर्त्य सेन कहते हैं कि एक तरफ तो बिहार का गौरवशाली शैक्षणिक अतीत रहा है और दूसरी तरफ आज इस राज्य का शैक्षणिक पिछड़ापन सचमुच बहुत कचोटने वाला विरोधाभास है।
एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड के 3057 मध्य विद्यालयों में से 2660 में प्रधानाध्यापक नहीं हैं। कुछ जिलों में एक भी स्कूल में प्रधानाध्यापक नहीं हैं। करीब दर्जन भर जिलों में प्रधानाध्यापकों की संख्या 10 से भी कम है। स्कूलों में हेडमास्टर के नहीं होने से काफी परेशानी हो रही है। शिक्षकों की वेतन निकासी के लिए संबंधित विद्यालय में प्रधानाध्यापक की स्वीकृति आवश्यक है। प्रधानाध्यापक ही निकासी सह व्ययन पदाधिकारी होते हैं। फिलहाल एक प्रधानाध्यापक के जिम्मे एक से अधिक प्रखंड के शिक्षकों की वेतन निकासी की जिम्मेदारी है। शिक्षक नेता राममूर्ति ठाकुर का कहना है कि जिस तरह बिना अभिभावक के परिवार की स्थिति खराब हो जाती है, उसी तरह बिना प्रधानाध्यापक के झारखंड के विद्यालयों की स्थिति दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है।
इससे विद्यालय का अनुशासन और शिक्षण कार्य प्रभावित हो रहा है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अनुरूप भी विद्यालयों में प्रधानाध्यापक का होना अनिवार्य है। शिक्षा मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक से प्रधानाध्यापकों की नियुक्ति की मांग की गयी, पर कोई व्यवस्था नहीं की जा रही है। छत्तीसगढ़ में शिक्षकों की कमी के कारण शिक्षा का स्तर इतना गिरा हुआ है कि गांवों के 8वीं कक्षा के 73.5 फीसदी छात्र-छात्राएं ही दूसरी कक्षा तक पहुंच पा रही हैं। यही अनुपात पांचवी के छात्रों का है। ऐसा तब हो रहा है, जबकि छत्तीसगढ़ राज्य शिक्षा पर अपना सबसे ज्यादा बजट खर्च करता है।
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