महिलाओं का अपने बारे में भी खुलकर लिखना अच्छा संकेत: ममता कालिया
ख्यात हिंदी लेखिका ममता कालिया का आज (02 नवंबर) जन्मदिन है। वह बताती हैं कि मैंने जब लिखना शुरू किया था, प्रायः उस उम्र में आजकल की लेखिकाएँ नहीं लिखती हैं। आजकल प्रौढ़ अवस्था में वे लिखना शुरू करती हैं, जब कलम-कलाई में चौकन्नापन आ जाता है लेकिन अब लेखिकाएं सिर्फ महिलाओं की स्थिति पर ही नहीं, पुरुषों के संघर्ष को भी अपने लेखन का विषय बना रही हैं, जो अच्छी बात है।
वह कहती हैं कि आज जितने भी महत्वपूर्ण प्रयास हो रहे हैं या जितनी भी समस्याएं हमारे सामने हैं, वे एक दिवस के रूप में सिमट गई हैं- जैसे गांधी जयंती, हिन्दी दिवस, हिन्दी पखवाड़ा आदि।
हिंदी साहित्य की जानी मानी साहित्यकार ममता कालिया का जन्म दो नवंबर, 1940 को मथुरा (उ.प्र.) में हुआ था। वह हिंदी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओं में लिखती हैं। वह कहती हैं कि एक तरह से कहानी लेखन में पुरुष लेखक माइनॉरिटी में आ गए हैं। लेखिकाएं सिर्फ महिलाओं की स्थिति पर ही नहीं, बल्कि पुरुषों के संघर्ष को भी अपने लेखन का विषय बना रही हैं, जो अच्छी बात है। दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए अंग्रेजी की डिग्री लेने के बाद वह मुंबई के एसएनडीटी विश्वविद्यालय में परास्नातक विभाग में व्याख्याता बन गईं। वर्ष 1973 में वह इलाहाबाद के एक डिग्री कॉलेज में प्राचार्य बनीं और वहीं से वर्ष 2001 में अवकाश ग्रहण किया। उनकी बेघर, नरक-दर-नरक, दुक्खम-सुक्खम, सपनों की होम डिलिवरी, कल्चर वल्चर, जांच अभी जारी है, निर्मोही, बोलने वाली औरत, भविष्य का स्त्री विमर्श समेत कई कृतियां चर्चित रही हैं।
अब तक उनके करीब 10 उपन्यास और 12 कहानी संग्रह आ चुके हैं। उनका समूचा लेखन मामूली लोगों के पक्ष में जबरदस्त गवाही है। वह कहानी से शुरुआत कर अपनी लेखनी को प्रेमचंद एवं अमरकांत की राह पर ले गईं, जहां उनकी भाषा एवं भाव नयी संवेदना के साथ कहानी को गति देते हैं। भूमंडलीकरण पर दौड़ सरीखी कहानी से लेकर बदल रहे दौर में मामूली लोगों पर एकदम अभी की कहानी हरजाई उन्हें हरदम पुनर्नवा-पुनर्नवा लेखिका के रूप में पाठकों को परिचित कराती है।
ममता कालिया कहती हैं कि महिला लेखिकाओं का विषय अब मात्र महिलाएं नहीं रह गई हैं। अपने दैनिक जीवन में वह पुरुषों के संघर्षों को भी रेखांकित कर रही हैं। पिछले कुछ समय से हिंदी में महिला लेखिकाएं जिजीविषा के साथ काफी कुछ लिख रही हैं। हिंदी में पिछले कुछ समय से महिलाओं द्वारा अपने बारे में भी खुलकर लिखा जाना एक अच्छा संकेत है। देखा जाए तो समाज में एक सकारात्मक किस्म का वातावरण बन रहा है। आज से लगभग एक-डेढ़ दशक पहले तक कहा जाता था कि स्त्रियां भी लिखती हैं। स्त्रियों ने इस बीच लिखकर यह साबित कर दिया कि स्त्रियां ही लिख रही हैं। कहानी लेखन में पुरुष लेखकों को अब उंगुलियों पर गिना जा सकता है। इस स्थिति के पीछे स्त्रियों की जिजीविषा का अड़ियलपन है। कहानी कहने के कई तरीके होते हैं। कोई मुकम्मल तरीका नहीं होता। इधर, लेखिकाएं बहुत तरीके से लिख रही हैं। उनमें लेखन का एक छोटा-सा जलजला उठा हुआ है।
रोज ही कोई न कोई रचना आ जाती है, जो ध्यान खींचती है। वह महात्मा गांधी का प्रभाव था कि कई महिलाओं ने देश के स्वतंत्रता आंदोलन के समय रेशमी साड़ियों की जगह खादी की धोती पहनना शुरू कर दिया था। महात्मा गांधी का महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ा, इस बारे में बहुत कम लिखा गया है। यह नये किस्म का फेमिनिज्म है जिससे समाज में सकारात्मक विचार आते हैं। वह मथुरा की रहने वाली हैं। उनके पति स्वयं एक अच्छे कथाकार रहे हैं। वह कहा करते थे - 'ममता की पृष्ठभूमि कल्चर से है और मेरी एग्रीकल्चर से।' वह मूलतः पंजाब से थे। रवींद्र कालिया ने ही उन्हें हिंदी में लिखने के लिए प्रेरित किया। रवीन्द्र कालिया कई शहरों की खाक छानकर इलाहाबाद पहुंचे और वहीं के होकर रह गए। दरअसल इलाहाबाद के माहौल में हिंदी, उर्दू, अवधी और अंग्रेजी का मिला जुला नूर है। इस शहर की फिजा में अदब का हर रंग शामिल है, गीत, कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचना।
वह कहती हैं कि आज जितने भी महत्वपूर्ण प्रयास हो रहे हैं या जितनी भी समस्याएं हमारे सामने हैं, वे एक दिवस के रूप में सिमट गई हैं- जैसे गांधी जयंती, हिन्दी दिवस, हिन्दी पखवाड़ा आदि। इसे मनाने वाले लोग सोच लेते हैं कि हमने प्रश्नों का हल ढूंढ लिया। हिन्दी के साथ भी कुछ ऐसा ही है। आज ऐसा नहीं है कि हम हिन्दी को छोड़कर कोई और भाषा सीख रहे हैं, बल्कि हम हिन्दी को अन्य भाषाओं के मुकाबले रखने में शर्म महसूस कर रहे हैं। नौकरी की दृष्टि से हिन्दी को लेकर अमूमन 1960 तक सरकारी प्रयास ठीक थे, लेकिन हिन्दी से संबंधित सरकारी पदों पर बैठे लोगों ने मठाधीशों की भूमिका निभानी शुरू कर दी। उन्होंने ही हिन्दी का सबसे ज्याद बेड़ागर्क किया है। मैंने जब लिखना शुरू किया था, प्रायः उस उम्र में आजकल लेखिकाएँ नहीं लिखतीं। आजकल प्रौढ़ अवस्था में वे लिखना शुरू करती हैं, जब कलम-कलाई में चौकन्नापन आ जाता है। मेरे लिए लेखन साइकिल चलाने जैसा एडवेंचर रहा है, डगमग-डगमग चली और कई बार घुटने, हथेलियाँ छिलाकर सीधा बढ़ना सीखा। समस्त गलतियाँ अपने आप कीं, कोई गॉडफादर नहीं बनाया। बिल्ली की तरह किसी का रास्ता नहीं काटा और किसी को गिराकर अपने को नहीं उठाया। हमारे समय में लिखना, मात्र जीवन में रस का अनुसंधान था; न उसमें प्रपंच था न रणनीति। निज के और समय के सवालों से जूझने की तीव्र उत्कंठा और जीवन के प्रति नित नूतन विस्मय ही मेरी कहानियों का स्रोत रहा है।
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