सुप्रीम कोर्ट और मोदी के इशारे समझिए, खामोश हो जाइए!
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने भावों और विचारों को व्यक्त करने का एक राजनीतिक अधिकार है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता है, बल्कि किसी भी तरह की सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि एक विचारोत्तेजक फिल्म का यह अर्थ कत्तई नहीं होता कि उसे शुद्धतावादी होना चाहिए। एक फिल्म की अभिव्यक्ति ऐसी होनी चाहिए कि वह दर्शक के चेतन और अवचेतन मन को प्रभावित करे।
'पद्मावती' के विरोध में कुछ दिनों पहले उमा भारती और सुब्रह्मण्यम स्वामी का बयान सामने आया था। अब केंद्रीय सड़क और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने चेतावनी भरे लहजे में कहा है कि फिल्ममेकर्स सीमा में रहें।
अभिव्यक्ति की आजादी और असहिष्णुता जब भी हमारे सामाजिक परिवेश में आमने-सामने आई हैं, न्यायपालिका को सीधे हस्तक्षेप करना पड़ा है और ऐसे अवसरों पर लोगों का अपने देश की न्याय व्यवस्था में भरोसा बढ़ा है। संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावती’ का विरोध हो या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर बनी डॉक्युमेंट्री 'एन इनसिग्निफिकेंट मैन' का, सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में देशभर की अदालतों को निर्देश दिया है कि कलाकारों की आजादी के मामले में हस्तक्षेप करने में अत्यधिक निष्क्रियता बरतें।
इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने डॉक्युमेंट्री 'एन इनसिग्निफिकेंट मैन' के आज (17 नवंबर) को रिलीज होने पर प्रतिबंध लगाने की मांग खारिज कर दी है। इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट हाल ही में 'पद्मावती' की रिलीज पर स्टे लगाने की याचिका को खारिज कर चुका है। अभिव्यक्ति की आजादी से ही जुड़ी एक और उल्लेखनीय बात है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की। राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा है कि सरकार प्रेस की स्वाधीनता और अभिव्यक्ति की आजादी को कायम करने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है। स्वतंत्र प्रेस एक सक्रिय लोकतंत्र की बुनियाद है, जो बेजुबानों की आवाज बनती है। मोबाइल फोन से मीडिया और सोशल मीडिया के सूचना क्षेत्र का विस्तार हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि एक विचारोत्तेजक फिल्म का यह अर्थ कत्तई नहीं होता कि उसे शुद्धतावादी होना चाहिए। एक फिल्म की अभिव्यक्ति ऐसी होनी चाहिए कि वह दर्शक के चेतन और अवचेतन मन को प्रभावित करे। अदालतों को सृजनात्मक कार्य करने वाले व्यक्ति को नाटक, किताब लिखने, दर्शन या अपने विचारों को फिल्म या रंगमंच से अभिव्यक्त करने से रोकने के फैसलों पर अत्यधिक निष्क्रियता बरतनी चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार पवित्र है और आमतौर पर इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।
इस तरह के मामले में आदेश देने में अदालत का रवैया अत्यधिक निष्क्रिय होना चाहिए, क्योंकि बोलने व अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। सृजन से जुड़े लोगों को नाटक, एकांकी दर्शन पर पुस्तक अथवा किसी प्रकार के विचारों को लिखने व अभिव्यक्ति करने की आजादी होनी चाहिए जिसे फिल्म या रंगमंच पर प्रस्तुत किया जा सके। फिल्म या नाटक या उपन्यास या पुस्तक लेखन कला है और कलाकार को अपने तरीके से खुद को अभिव्यक्त करने की आजादी होती है, जिस पर कानून रोक नहीं लगाता है।
अब आइए, जरा हालात के दूसरे पहलू पर नजर डाल लेते हैं। 'पद्मावती' के विरोध में कुछ दिनों पहले उमा भारती और सुब्रह्मण्यम स्वामी का बयान सामने आया था। अब केंद्रीय सड़क और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने चेतावनी भरे लहजे में कहा है कि फिल्ममेकर्स सीमा में रहें। अभिव्यक्ति की आजादी मूलभूत अधिकार जरूर है लेकिन एक सीमा में रहे तो बेहतर है। 'पद्मावती' विरोध में ही मेरठ (उत्तर प्रदेश) से फतवा दिया गया है कि भंसाली का सिर कलम करने पर पांच करोड़ का इनाम दिया जाएगा। करणी सेना के अध्यक्ष लोकेंद्रनाथ ने फिल्म की हिरोइन दीपिका पादुकोण को उनकी नाक काट लेने की धमकी दी है।
राजस्थान के अजमेर स्थित सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह के दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान ने भी मुसलमानों से ‘पद्मावती’ फिल्म का विरोध करने की अपील की है। उन्होंने फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली की तुलना विवादित लेखक सलमान रुश्दी, तस्लीमा नसरीन और तारिक फतह से की है। पुणे (महाराष्ट्र) में दक्षिणपंथी संगठन एक मराठी फिल्म ‘दशक्रिया’ पर बैन लगाने की मांग कर रहे हैं। उनका आरोप है कि फिल्म में ब्राह्मणों को लालची दिखाया गया है। जबकि यह मराठी फिल्म अब तक कई अवॉर्ड जीत चुकी है।
सवाल उठता है कि आए दिन इस तरह की बातें करने वाले, हिंसक विरोध करने वाले देश के संविधान और न्यायपालिका से ऊपर की हैसियत रखते हैं? यदि वह न्याय व्यवस्था और कानून को खुलेआम चुनौती दे रहे हैं तो क्या उन्हें दंडित नहीं किया जाना चाहिए? भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और उदार समाज की गारंटी देता है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। किसी सूचना या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी अन्य रूप में बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाती है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गयी है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने भावों और विचारों को व्यक्त करने का एक राजनीतिक अधिकार है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता है, बल्कि किसी भी तरह की सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है। हालांकि, यह अधिकार सार्वभौमिक नहीं है और इस पर समय-समय पर युक्तियुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। राष्ट्र-राज्य के पास यह अधिकार सुरक्षित होता है कि वह संविधान और कानूनों के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस हद तक जाकर बाधित करने का अधिकार रखता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में, जैसे- वाह्य या आंतरिक आपातकाल या राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता सीमित हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र की सार्वभौमिक मानवाधिकारों के घोषणा पत्र में मानवाधिकारों को परिभाषित किया गया है। इसके अनुच्छेद 19 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा, जिसके तहत वह किसी भी तरह के विचारों और सूचनाओं के आदान-प्रदान को स्वतंत्र है।
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