सुरैया हसन, उम्र 84 साल, पर काम करने का जुनून अब भी कायम
औरंगाबाद के 4 टेक्सटाइल फॉर्म्स के पुनरोद्धार में लगी सुरैया
"श्रीमती सुरैया हसन??"
"हां जी, बोल रही हूं.....बोलिए..."भारतीय बुनाई की जानी-मानी वृद्ध महिला ने मुझे बातचीत में बधाई दी। औरंगाबाद के 4 टेक्सटाइल फॉर्म्स के पुनरोद्धार में लगी सुरैया की बयां करने के लिए एक आकर्षक कहानी है।
उनकी यात्रा इंटरमीडिएट करने के तुरंत बाद शुरू हुई। सुरैया ने एक सरकारी संस्थान कॉटेज इंडस्ट्रीज़ एम्पोरियम ज्वॉइन किया, जहां उसने टेक्सटाइल और हैंडीक्राफ्ट के उत्पादन और विक्रय की कला सीखी। सुरैया कहती हैं, “4 सालों तक सीखने का ये एक अच्छा अनुभव था।” बुनाई उद्योग में अपने छोटे और शुरुआती कदम को याद करते हुए सुरैया कहती हैं, “यहां काम करते हुए एक विदेशी प्रोफेसर, जो शायद लंदन से थीं, उनके एम्पोरियम में आईं और उन्हें घुमाने के लिए सुरैया को जिम्मेदारी दी गई। सुरैया करती हैं, “उन्होंने हर चीज़ को देखा, छुआ और महसूस किया। हर फैब्रिक और हैंडीक्राफ्ट उत्पाद का महत्व बताते हुए वो मुझसे इतनी प्रभावित हुई कि उन्हें लगा मैं यहां अपना वक्त बर्बाद कर रही हूं।” आखिरकार, यही वो महिला थीं जिसने सुरैया को दिल्ली में भारतीय हथकरघा हस्तशिल्प निगम के उनके संरक्षक पुपुल जयकर से पहचान कराई। ये ऐसा कदम था जिसके बारे में सुरैया ने जिंदगी में कभी सोचा भी नहीं था और ये उनको वास्तव में उस जगह ले गया, जहां वो शायद होना चाहती थी। सुरैया कहती हैं, मैंने कभी ऐसा सोचा नहीं था, लेकिन ये एक अच्छा मौका था इसलिए मैंने आगे जाने का फैसला किया। उनके चाचा आबिद हसन सफरानी दिल्ली में रहते थे, जिससे उन्हें मदद मिली। “शुरू में वो विदेश मंत्रालय में काम करते थे और एक ऐसा भी वक्त था जब वो नेताजी सुभाषचंद्र बोस के निजी सचिव हुआ करते थे”, सुरैया याद करती हैं।
बोस के परिवार से उनका जुड़ाव
सुरैया की जल्द ही बोस के परिवार से उनकी महिलाओं के जरिए जान-पहचान हो चुकी थी। पहले यूं ही हुई मुलाकातें धीरे-धीरे निजी मुलाकातों में बदल गईं और वो बोस के परिवार से काफ़ी क़रीब से जुड़ गईं। बाद में, उनकी शादी सुभाष चंद्र बोस के भतीजे अरबिंदो बोस से हुई। बोस के भतीजे से शादी होने का उन्होंने इस बात के अलावा थोड़ा ही महत्व समझा होगा कि अरबिंदो भी एक व्यस्त राजनेता थे। सुरैया अपने पति के बारे में कहती हैं कि वो कई बड़ी कंपनियों के साथ ट्रेड यूनियन सचिव थे। हालांकि, सुरैया को कभी सुभाष चंद्र बोस से मिलने का मौका नहीं मिला।
दिल्ली से हैदराबाद वापसी
सेवानिवृत्ति के बाद आबिद हसन हैदराबाद चले गए और वहां कुछ ज़मीन खरीदी। उन्होंने सुरैया को वापस निज़ामों के शहर आने और एक स्वतंत्र हैंडलूम प्रोडक्शन इकाई स्थापित करने के लिए कहा। सुरैया कहती हैं, “मैंने थोड़ा भी समय बर्बाद नहीं किया और इस इकाई को स्थापित करने अपने गृह नगर चली गई। ये एक थका देने वाला काम था, लेकिन मैं कहूंगी कि प्रयास के लायक था।” यहां पर उन्होंने औरंगाबाद के 4 स्थानीय सिग्नेचर पर्सियन फैब्रिक फॉर्म्स –पैथानी, जमावर, हिमरू और मशरू के पुनरोद्धार के लिए काम शुरू किया। इस तरह सुरैयाज वीविंग स्टूडियो के नाम से सुरैया की बुनाई इकाई हैदराबाद में शुरू हो गई। “औरंगाबाद की अपनी यात्रा के दौरान, मैंने कई कारीगरों को इस कला को जिंदा रखने के लिए बिना थके काम करते देखा था, लेकिन ये लोग छोटे पैमाने पर अपने घरों से काम करते थे। इसलिए, मैंने इस क्षेत्र को इस उम्मीद के साथ व्यवस्थित करने का फैसला किया कि इस विलुप्त होती कला में इससे जुड़े लोग शामिल होंगे।” जब उन्होंने अपने काम पर ध्यान दिया, तो उनके पति वक्त मिलने पर उनके पास हैदराबाद आते थे। वो अब भी बोस परिवार से संपर्क में हैं, हालांकि उनके पति के गुजर जाने के बाद अब आना-जाना कम हो गया है।
सामाजिक उद्यम
सुरैया ने अपनी कला को आगे बढ़ाने के लिए एक समूह का चयन किया। उसने इसके लिए उन विधवाओं को चुना जो अकेली थीं और उन्हें अपने बच्चों का भरण-पोषण करना था। सुरैया कहती हैं, मैं उनके साथ घंटों बैठती थी और उन्हें बारीकियों को समझने में मदद करती थी। एक कारीगर को सिखाने में औसत रूप से 3 से 4 महीने लग जाते थे और बाद में, मुझे ट्रेनिंग में मदद के लिए एक विशेषज्ञ मिल गया। अकेले ये सब करना मेरे लिए अत्यंत कठिन साबित हो रहा था।
जब उन्होंने विधवाओं को ये कला सीखने का मौका दिया, उसी वक्त उन्होंने उनके बच्चों के लिए भी उसी परिसर में एक स्कूल स्थापित कर दिया। सफरानी मेमोरियल हाईस्कूल नाम के इस स्कूल में नर्सरी से लेकर 10वीं कक्षा तक के छात्र पढ़ते थे, जहां उनके कारीगरों के बच्चे फ्री में पढ़ाई करते थे। 84 साल की सुरैया कहती हैं, उन्हें अभी बहुत सारा काम करना है। जब वो कारीगरों का काम नहीं देख रही होती हैं, वो अपने स्कूल में जाकर छात्रों को पढ़ाती हैं। उन्हें इस बात का गर्व है कि सभी छात्रों ने अच्छा प्रदर्शन किया है और कुछ तो विदेश तक जा चुके हैं। शिक्षा के लिए ये प्यार संगोयवश नहीं है, सुरैया कहती हैं उन्हें अपने पिता से वंशागत मिला है। आखिकार, वो आबिद्स रोड पर जाने-माने हैदराबाद बुक डिपो के मालिक थे, जो संभवत: पहला ऐसा बुकस्टोर था जो विदेशी प्रकाशन भी रखता था।