संबलपुरी साड़ियों की बुनकरी से देश-दुनिया में नाम कमा रहे हैं पश्चिमी ओडिशा के गांव
ओडिशा राज्य के पश्चिमी इलाके वाले कुछ जिलों में संबलपुरी साड़ियां आय का मुख्य साधन हैं और इस क्षेत्र की एक पहचान भी। एक संबलपुरी साड़ी को बनाने में अगर पांच लोगों का एक पूरा परिवार जुटता है तो कम से कम तीस से चालीस दिन लग जाते हैं।
संबलपुरी साड़ियां महीनों की मेहनत से बनती हैं। इनका बाजार में दाम तीन हजार से लाख तक होता है। साड़ियों की मांग दूर के राज्यों बम्बई, दिल्ली, मद्रास तक से आती है, लेकिन ज्यादातर खपत ओडिशा में होती है। इतनी सुंदर कारीगरी के बावजूद अभी भी देश के कई हिस्से इन साड़ियों के बारे में नहीं जानते।
संबलपुरी साड़ियां, महीन बुनाई, कमाल की कारीगरी और महीनों की मेहनत का फल। ओडिशा राज्य के पश्चिमी इलाके वाले कुछ जिलों में संबलपुरी साड़ियां आय का मुख्य साधन हैं और इस क्षेत्र की एक पहचान भी। एक संबलपुरी साड़ी को बनाने में अगर पांच लोगों का एक पूरा परिवार जुटता है तो कम से कम तीस से चालीस दिन लग जाते हैं। उत्तर भारत में जिस हिसाब से बनारसी साड़ियों की मांग है उसी तरह से पूर्वी भारत में संबलपुरी साड़ियों का अपना ही दबदबा है। थोड़ा आपका फैसिनेशन बढ़ाने के लिए बता दूं कि ऐश्वर्या राय ने अपनी शादी की एक रस्म में संबलपुरी साड़ी पहनी थी।
संबलपुरी साड़ियों की ये अद्भुत और जहीन कला मुझे ले गई ओडिशा के सोनपुर जिले में। यहां के कई सारे गांव अपनी इस विरासत को बड़ी ही कर्मठता से आगे बढ़ा रहे हैं। मुझे केंदुपल्ली गांव जाना था, जहां पर राजकीय सम्मान से नवाजे गए गणेश मेहर अपने परिवार के साथ रहते हैं।
गांव के हर एक घर में साड़ी बनाने की मशीन लगी हुई थी। औरतें-मर्द दोनों ही समान रूप से साड़ियों को अंतिम रूप देने के काम में लगे हुए थे। गणेश मेहर के घर पर उनकी पत्नी और वो साड़ियों की पैकिंग में लगे हुए थे। गणेश मेहर को उनकी बनाई एक साड़ी के लिए 2015 में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अवार्ड देकर सम्मानित किया था। इस सम्मानित साड़ी के अलावा गणेश ने एक और खूबसूरत साड़ी बनाई है, जो राष्ट्रीय सम्मान के लिए नॉमिनेट हो चुकी है।
संबलपुरी साड़ियां, जोकि महीनों की मेहनत से बनती हैं, उनका बाजार में दाम तीन हजार से लाख तक होता है। इन मजबूत, दिलकश डिजाइन वाली और स्वदेशी साड़ियों का बाजार फिर भी कम हैं। कुछ कारीगर जो शहरी मार्केट के प्रति सजग हैं, जिनकी डीलर्स में अच्छी पैठ है, वो तो अपनी बनाई कृतियों का ठीक-ठाक दाम पा जाते हैं। लेकिन छोटे स्तर पर बुनाई करने वाले कलाकारों पर महंगाई और कम बिक्री की दोहरी मार पड़ती है।
गणेश मेहर के घर के सामने ही दयानिधि मेहर का घर था। उनके पिता को भी मुख्यमंत्री सम्मानित कर चुके हैं। दयानिधि ने बताया कि एक संबलपुरी साड़ी बनाने के लिए सबसे पहले सिल्क या सूती धागों को रंगना पड़ता है। सूखने के बाद वो दोबारा रंगे जाते हैं। ये टाई एंड डाई की प्रक्रिया एक बार फिर से दोहराई जाती है। फिर धागों के गट्ठर को एक एक करके सुलझाया जाता है। फिर अलग-अलग रंग के धागों को रील में लपेटा जाता है। डिजाइन का पैटर्न तैयार किया जाता है फिर एक एक सूत को हाथ से पिरोया जाता है, डिजाइन के मुताबिक। मतलब एक पतला सा कई रंगों वाला बॉर्डर बनाने में एक साथ उन सारे रंगों के धागों को मैनेज करना पड़ता है।
दयानिधि ने बताया कि कभी-कभी साड़ियों की मांग दूर के राज्यों से भी आती है, जैसे बम्बई, दिल्ली, मद्रास, लेकिन ज्यादातर खपत ओडिशा में ही होती है। इतनी सुंदर कारीगरी के बावजूद अभी देश के बाकी हिस्से के लोग इन साड़ियों के बारे में नहीं जानते। हम और हमारी तरह और भी कारीगर हर साड़ी को अपने बच्चे की तरह सजाते हैं, बुनते हैं। हमारी तो पहुंच है मार्केट में, हमारे घर से बनी साड़ियां ठीक दाम पा जाती हैं। साथ ही हमारी कोशिश रहती है कि बाकी के गांव वालों का सामान भी अच्छी जगह पहुंचे. हम लोग मिलकर राज्य के अलग अलग हथकरघा बाजार में ये साड़ियां पहुंचाते रहते हैं।
संबलपुरी साड़ियों के कारीगरों के बीच सबसे अच्छी बात ये है कि ये कला एक ही पीढ़ी तक ही सीमित नहीं है, इन परिवारों के युवा और बच्चे भी इस कला में खासी रुचि ले रहे हैं और वे भी चाहते हैं कि उन्हें संबलपुरी साड़ियों के कलाकार नाम से पुकारा जाए।
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