शब्द-शब्द में गुदगुदी, होठों पर मुस्कान
हिंदी के शीर्ष हास्य-व्यंग्य कवि पंडित गोपाल प्रसाद व्यास की पुण्यतिथि पर विशेष...
हिंदी के शीर्ष हास्य-व्यंग्य कवि पंडित गोपाल प्रसाद व्यास की आज (28 मई) पुण्यतिथि है। भाषा, साहित्य और समाज के प्रति व्यासजी की दृष्टि परम्परावादी होते हुए भी आधुनिक रही। उन्होंने परम्परा को संरक्षित करने के साथ ही अपने रचनाकर्म को आधुनिकता के लय-छंद से कभी पृथक नहीं होने दिया। उनको कोई उन्हें हास्य- सम्राट कहता तो कोई हास्य- रसावतार - 'मैं हिन्दी का अदना कवि हूं, कलम घिसी है, गीत रचे हैं, व्यंग्य और उपहास किए हैं, बहुत छपे हैं, बहुत बचे हैं, मैंने भी सपने देखे थे, स्वतंत्रता से स्वर्ग मिलेगा।'
वह देशभर में होली के अवसर पर 'मूर्ख महासम्मेलनों' के संचालक होते थे। व्यासजी की कविता-यात्रा ने बड़ी दूरियां तय कीं। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक और कलकत्ता से लेकर काहिरा तक।
हिंदी साहित्य में हास्य-व्यंग्य विधा को आज मंचीय तमाशबाजों ने जिस तरह स्तर हीन कर दिया है, हमारे उन पुरखों का रचना संसार स्यात स्मृतियों में कौध जाता है, जिनके मर्यादित शब्दों की धार जितनी गुदगुदाती है, अंतरमन में गहरे कहीं हमारी साहित्यिक लक्ष्मण रेखाओं से आगाह भी करा जाती है। उनके शब्द जबरन तालियां बजवाकर वाहवाही लूटने के मोहताज नहीं होते हैं। ऐसे शीर्ष कवि रहे हैं पंडित गोपाल प्रसाद व्यास, जिनकी आज (28 मई) पुण्यतिथि है। भाषा, साहित्य और समाज के प्रति व्यासजी की दृष्टि परम्परावादी होते हुए भी आधुनिक थी। उन्होंने परम्परा को संरक्षित करने के साथ-साथ अपने रचनाकर्म को आधुनिकता से जोड़ा था। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी व्यासजी का कृतित्व भी बहुआयामी था। साहित्य, संस्कृति और कला के प्रति उनकी दृष्टि बहुत सजग और सुस्पष्ट थी। उन्होंने अपनी पद्य और गद्य की कृतियों की जो भूमिकाएं लिखीं हैं, उनसे उनके व्यापक दृष्टिकोण का पता चलता है।
व्यास जी का जन्म 13 फरवरी 1915 को सूरदास की निर्वाणस्थली पारसौली, गोवर्धन (मथुरा) में हुआ था। वह ब्रजभाषा और पिंगल के मर्मज्ञ माने जाते थे। उनको भारत सरकार ने पद्मश्री, दिल्ली सरकार ने शलाका सम्मान और उत्तर प्रदेश सरकार ने यश भारती सम्मान से विभूषित किया था। दिल्ली में हिंदी भवन के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। लाल किले पर हर वर्ष होने वाले राष्ट्रीय कवि सम्मेलन की शुरुआत में उनकी अहम भूमिका होती थी। व्यासजी की प्रारंभिक शिक्षा पहले पारसौली के निकट भवनपुरा में, उसके बाद अथ से इति तक मथुरा में केवल कक्षा सात तक हुई। स्वतंत्रता-संग्राम के कारण उसकी भी परीक्षा नहीं दे सके और स्कूली शिक्षा समाप्त हो गई। उन्होंने नवनीत चतुर्वेदी से पिंगल का अध्ययन किया। सेठ कन्हैयालाल पोद्दार से अंलकार, रस-सिद्धांत में निपुण बने। विद्वान राजनेता डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल से नायिका भेद का ज्ञान और पुरातत्व, मूर्तिकला, चित्रकला आदि मर्मज्ञता हासिल की।
डॉ सत्येन्द्र से विशारद और साहित्यरत्न का अध्ययन किया। उनका प्रथम कार्य क्षेत्र आगरा रहा लेकिन मृत्युपर्यंत दिल्ली के होकर रहे। वह विशेषतः ब्रजभाषा के कवि, समीक्षक, व्याकरण, साहित्य-शास्त्र, रस-रीति, अलंकार, नायिका-भेद और पिंगल के मर्मज्ञ रहे। उनको हिन्दी में व्यंग्य-विनोद की नई धारा का जनक माना जाता है। वह हास्यरस में पत्नीवाद के प्रवर्तक रहे हैं। सामाजिक, साहित्यिक, राजनैतिक व्यंग्य-विनोद के प्रतिष्ठाप्राप्त कवि एवं लेखक और 'हास्यरसावतार' के नाम से भी उन्हे प्रसिद्धि मिली। पत्रकारिता के क्षेत्र में वह 'साहित्य संदेश' आगरा, 'दैनिक हिन्दुस्तान' दिल्ली, 'राजस्थान पत्रिका' जयपुर, 'सन्मार्ग', कलकत्ता में संपादन तथा दैनिक 'विकासशील भारत' आगरा के प्रधान संपादक रहे।
सन् 1937 से जीवनी की आखिरी यात्रा तक स्तंभ लेखन में निमग्न रहे। वह ब्रज साहित्य मंडल, मथुरा के संस्थापक और मंत्री से लेकर अध्यक्ष तक रहे। दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संस्थापक और 35 वर्षों तक महामंत्री और अंत तक संरक्षक रहे। वह देशभर में होली के अवसर पर 'मूर्ख महासम्मेलनों' के संचालक होते थे। व्यासजी की कविता-यात्रा ने बड़ी दूरियां तय कीं। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक और कलकत्ता से लेकर काहिरा तक। शायद ही कोई उल्लेखनीय स्थान ऐसा बचा हो, जहां उनकी कविता ने श्रोताओं को गुदगुदाया न हो, उनके होठों पर मुस्कान न थिरकाई हो और हिन्दी-कविता में भी कुछ जान है, इसका भान रसिकों को न कराया हो-
यदि ईश्वर में विश्वास न हो,
उससे कुछ फल की आस न हो,
तो अरे नास्तिको ! घर बैठे,
साकार ब्रह्म को पहचानो !
पत्नी को परमेश्वर मानो !
वे अन्नपूर्णा जग-जननी,
माया हैं, उनको अपनाओ।
वे शिवा, भवानी, चंडी हैं,
तुम भक्ति करो, कुछ भय खाओ।
सीखो पत्नी-पूजन पद्धति,
पत्नी-अर्चन, पत्नीचर्या
पत्नी-व्रत पालन करो और
पत्नीवत् शास्त्र पढ़े जाओ।
अब कृष्णचंद्र के दिन बीते,
राधा के दिन बढ़ती के हैं।
यह सदी बीसवीं है, भाई !
नारी के ग्रह चढ़ती के हैं।
तुम उनका छाता, कोट, बैग,
ले पीछे-पीछे चला करो,
संध्या को उनकी शय्या पर
नियमित मच्छरदानी तानो !!
पत्नी को परमेश्वर मानो !
गोपाल प्रसाद व्यास को कोई उन्हें हास्य- सम्राट कहता है, कोई हास्य- रसावतार। कोई उन्हें हिन्दी जगत की एक अद्भुत विभूति मानता है ,तो कोई जबरदस्त आयोजक और संगठनकर्त्ता। कोई उन्हें हिन्दी का मर्मज्ञ साहित्यकार कहता है, तो कोई ब्रज भारती की महत्वपूर्ण उपलब्धि तथा ब्रजभाषा और पिंगल का अंतिम विद्वान। कोई उन्हें महान हिन्दीसेवी कहता है, तो कोई हिन्दी का समर्पित पत्रकार। कुछ लोग उन्हें असाधारण व्यक्तित्व के धनी के रूप में पहचानते हैं तो कुछ उनके असाधारण संघर्ष और परिश्रम की बात करते हैं। कुछ लोग उन्हें उन्मुक्त और अनासक्त मस्ती का पर्याय समझते हैं, तो कुछ उनकी ठिठोली और कहकहों की चर्चा करते हैं। कुछ कहते हैं 'हिन्दी भवन' का निर्माण करवा कर व्यासजी हमेशा-हमेशा के लिए अमर हो गए, तो शेष का मानना है कि 45 वर्षों तक लगातार 'नारदजी खबर लाए हैं' लिखकर उन्होंने संभवतः विश्व में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है।
कुछ लोगों के मन में वे अपनी परिवार-रस की कविताओं 'पत्नी को परमेश्वर मानो','साला-साली' और 'ससुराल चलो' जैसी कविताओं के साथ हमेशा जीवित रहेंगे और 'कुछ कदम-कदम बढ़ाए जा' की कविताओं विशेषकर ' वह खून कहो किस मतलब का आ सके देश के काम नही' के कारण उन्हें कभी भूल नहीं पायेंगे। वह कहते थे कि 'न मैं हास्यरसावतार हूं और न हास्यसम्राट। आज के वैज्ञानिक युग में अवतारवादिता और लोकतंत्रीय व्यवस्था में साम्राज्य स्थापित करने की या उस पर डटे रहने की गुंजाइश ही कहां बची है? जब मेरे लिए लोग इन विशेषणों का प्रयोग करते हैं तो मैं जानता हूं कि या तो वे मुझे मक्खन लगा रहे हैं अथवा मूर्ख बना रहे हैं। मैंने हिन्दी में हास्यरस का प्रारंभ किया है, यह कहना और समझना भी सही नहीं है। सच तो यह है कि मुझसे पहले बाबू भारतेन्दु हरिश्चंद्र (अंधेर नगरी चौपट राजा), प्रतापनारायण मिश्र, बाबू बालमुकुंद गुप्त (शिव-शंभु का चिट्ठा), जीपी श्रीवास्तव (दुमदार आदमी), अकबर इलाहाबादी आदि हास्य-पादप का बीजारोपण कर चुके थे।
मेरे बारे में सही सिर्फ इतना है कि मैंने हास्यरस लिखा है और जिया भी है। साहित्य लिखना एक अलग बात है। उसे बहुतों ने लिखा है और लिखते रहेंगे लेकिन साहित्यिक जीवन जीना शायद लेखन-कर्म से भी कठिन कार्य है। मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं जो लिखने के लिए व्यंग्य-विनोद लिखते हैं, लेकिन उनके व्यक्तित्व में, परिवार में या सामाजिक परिवेश में उसका नामोनिशान नहीं मिलता क्योंकि मैं पिछले पचास वर्षों से ऊपर इस 'हास्य-सागर' में अवगाहन करता रहा हूं, इसलिए हास्य मेरे जीवन का अंग बन गया है। मेरी रुचि, स्वभाव और संस्कार बहुत दिनों से ऐसे हो गए हैं कि मैं जो लिखता हूं या कहता हूं और करता आया हूं, उसमें अनायास व्यंग्य-विनोद का पुट आ ही जाता है।
इसके कारण मेरे कृतित्व और व्यक्तित्व के संपर्क में आने वाले लोग जहां गदगद होते हैं, मुस्कराते हैं और ठहाके लगाते हैं, वहां गंभीरता का मुखौटा पहने हुए कुछ लोग दुःखी भी कम नहीं होते क्योंकि हास्य-व्यंग्य साहित्य की ऐसी मनमोहिनी विधा है कि इसको लिखने वाला जल्दी ही सिद्ध और प्रसिद्ध हो जाता है। इससे समानधर्मी लोगों और कुंठित व्यक्तित्वों में ईर्ष्या भी पैदा होती है। मैं भी जीवन में शायद इसी कारण ईर्ष्या का शिकार हुआ हूं। परंतु यह मेरे वश की बात नहीं। हां, इतना अवश्य कह सकता हूं कि मेरा मन जानबूझकर किसी के प्रति विकारी नहीं रहा। मैं उनके प्रति क्षमाप्रार्थी हूं, जिनके कदली-पत्र जैसे कोमल तथा भावुक मन को मेरे सहज-स्वभावी व्यंग्य-बाणों ने छेद दिया हो।' अभिन्न रिश्तों पर उनके चोखे तंज लोगों को हंसाते-हंसाते लोटपोट कर देते हैं -
हे दुनिया के संतप्त जनो,
पत्नी-पीड़ित हे विकल मनो,
कूँआ प्यासे पर आया है
मुझ बुद्धिमान की बात सुनो !
यदि जीवन सफल बनाना है
यदि सचमुच पुण्य कमाना है,
तो एक बात मेरी जानो
साले को अपना गुरु मानो !
छोड़ो मां-बाप बिचारों को
छोड़ो बचपन के यारों को,
कुल-गोत्र, बंधु-बांधव छोड़ो
छोड़ो सब रिश्तेदारों को।
छोड़ो प्रतिमाओं का पूजन
पूजो दिवाल के आले को,
पत्नी को रखना है प्रसन्न
तो पूजो पहले साले को।
गंगा की तारन-शक्ति घटी
यमुना का पानी क्षीण हुआ,
काशी की करवट व्यर्थ हुई
मथुरा भी दीन-मलीन हुआ।
अब कलियुग में ससुराल तीर्थ
जीवित-जाग्रत पहचानो रे !
यदि अपनी सुफल मनानी है
साले को पंडा मानो रे !
इसी तरह व्यास जी की एक और चर्चित कविता साली पर है -
तुम श्लील कहो, अश्लील कहो
चाहो तो खुलकर गाली दो !
तुम भले मुझे कवि मत मानो
मत वाह-वाह की ताली दो !
पर मैं तो अपने मालिक से
हर बार यही वर मांगूंगा-
तुम गोरी दो या काली दो
भगवान मुझे एक साली दो !
सीधी दो, नखरों वाली दो
साधारण या कि निराली दो,
चाहे बबूल की टहनी दो
चाहे चंपे की डाली दो।
पर मुझे जन्म देने वाले
यह मांग नहीं ठुकरा देना-
असली दो, चाहे जाली दो
भगवान मुझे एक साली दो।
वह यौवन भी क्या यौवन है
जिसमें मुख पर लाली न हुई,
अलकें घूंघरवाली न हुईं
आंखें रस की प्याली न हुईं।
वह जीवन भी क्या जीवन है
जिसमें मनुष्य जीजा न बना,
वह जीजा भी क्या जीजा है
जिसके छोटी साली न हुई।
तुम खा लो भले पलेटों में
लेकिन थाली की और बात,
तुम रहो फेंकते भरे दांव
लेकिन खाली की और बात।
तुम मटके पर मटके पी लो
लेकिन प्याली का और मजा,
पत्नी को हरदम रखो साथ,
लेकिन साली की और बात।
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