कलेक्टर की मुहिम हुई साकार: छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके के अस्पतालों में अब 24 घंटे तैनात रहते हैं डॉक्टर्स
यह लेख छत्तीसगढ़ स्टोरी सीरीज़ का हिस्सा है...
देश में ऐसे अनगिनत ग्रामीण इलाके हैं जहां डॉक्टर न होने की बड़ी वजह है वहां सुविधाओं का आभाव। ऐसे इलाकों में चिकित्सक भी अपनी प्रैक्टिस करने से कतराते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ के बीजापुर जैसे इलाके में स्पेशल पैकेज और अच्छी सुविधाएं देकर डॉक्टरों को तैनात किया गया है जो बड़े-बड़े शहरों की तरह ही मेडिकल सुविधा समाज के अंतिम छोर पर खड़े गांव के लोगों को प्रदान करते हैं।
आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र राज्य की सीमाओं को छूता छत्तीसगढ़ का जिला है बीजापुर। नक्सल प्रभावित इलाकों में होने की वजह से यहां विकास कार्यों को उतनी गति नहीं मिल पाई जितनी की मिलनी चाहिए थी, जिसका नतीजा ये हुआ कि नागरिकों को चिकित्सकीय ज़रूरतों के लिए काफी दूर जाना पड़ता था। लेकिन बीते कुछ सालों में यहां चिकित्सीय सुविधाओं में अभूतपूर्व परिवर्तन आया है।
भारत में डॉक्टरों की काफी कमी है। चिकित्सा सुविधाओं के मामले में ग्रामीण इलाकों की हालत तो और भी बदतर है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल-2017 के आंकड़ों के मुताबिक 11,097 लोगों की आबादी पर सिर्फ एक डॉक्टर है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि हर 1000 पर एक डॉक्टर होना ही चाहिए। ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों के न होने की बड़ी वजह ये है कि वहां सुविधाओं का आभाव होता है और ऐसे इलाकों में डॉक्टर सर्विस करने से कतराते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ के बीजापुर जैसे इलाके में स्पेशल पैकेज और अच्छी सुविधाएं देकर डॉक्टरों को तैनात किया गया है जो बड़े-बड़े शहरों की तरह ही मेडिकल सुविधा समाज के अंतिम छोर पर खड़े गांव के लोगों को प्रदान करते हैं।
छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिणी हिस्से में स्थित जिला है बीजापुर। आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र राज्य की सीमाओं को छूता यह जिला पहले दंतेवाड़ा जिले का हिस्सा था। यह जिला प्रदेश के नक्सल प्रभावित इलाकों में गिना जाता है। इस वजह से यहां विकास कार्यों को उतनी गति नहीं मिल पाई। जिसका नतीजा ये हुआ कि सड़कें, स्कूल और सबसे प्रमुख चिकित्सा सुविधाओं के लिए नागरिकों को काफी दूर जगदलपुर जैसे जिले में जाना पड़ता था। लेकिन बीते कुछ सालों में यहां चिकित्सीय सुविधाओं में अभूतपूर्व परिवर्तन आया है। अब ग्रामीणों को जिले में ही हर तरह का इलाज मुहैया कराया जा रहा है। इस बदलाव का श्रेय यहां के जिला कलेक्टर आईएएस डॉ. अयाज तांबोली और उन सभी डॉक्टरों को जाता है जो इस पिछड़े इलाके में काम करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
योरस्टोरी टीम ने बीजापुर जिला अस्पताल का दौरा किया और जानने की कोशिश की कि इस बदलाव को कैसे धरातल पर उतारा गया। मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. बी.आर पुजारी से हमने बात करने की कोशिश की तो उन्होंने बताया कि वे यहीं के रहने वाले हैं और बमुश्किल 500 मीटर की दूरी पर उनका पैत्रक घर है। उनकी शुरुआती पढ़ाई लिखाई भी यहीं से हुई। डॉ. पुजारी बताते हैं, 'स्कूल की पढ़ाई करने के बाद मैं जबलपुर एमबीबीएस करने चला गया। 1989 में जब मैं डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था तो उस वक्त यहां आठ डॉक्टर हुआ करते थे। यहां तक कि उन इलाकों में भी उस वक्त डॉक्टर हुआ करते थे जहां अब पहुंचना भी मुश्किल है। यहां जितने भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं वहां भी पहले एमबीबीएस डॉक्टर हुआ करते थे। हालांकि तब सड़कें उतनी अच्छी नहीं हुआ करती थीं।'
डॉ पुजारी बताते हैं कि 1995 में जब वे कॉलेज से पास होकर निकले तो अधिकतर डॉक्टर यहां से जा चुके थे। हालत ये हो गई थी कि कोई टीचर या डॉक्टर यहां काम करने को तैयार नहीं होता था। डॉ. पुजारी ने कुछ दिनों तक ग्रामीण इलाकों में सेवाएं दीं लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए वे वापस जबलपुर चले गए। वहां उन्होंने एमडी मेडिसिन किया। इसके बाद जब वे वापस यहां प्रैक्टिस करने आए तो डॉक्टर पुजारी एकमात्र एमडी मेडिसिन थे और पूरे इलाके में कोई भी पीजी डॉक्टर नहीं था। वे बताते हैं कि उस वक्त रात में किसी भी मरीज को भर्ती नहीं किया जाता था। सारे मरीजों का दिन में ही इलाज करके घर भेज दिया जाता था, जिसकी वजह थी डॉक्टरों की कमी।
डॉ. पुजारी बताते हैं कि डॉक्टरों की कमी को दूर करने के लिए 2010 में तत्कालीन कलेक्टर आर. प्रसन्ना ने कुछ कदम उठाए। उन्होंने स्पेशल पैकेज देकर बाहर से डॉक्टरों को यहां बुलाया। लेकिन वे डॉक्टर भी कुछ दिन काम करने के बाद चलते बने। बड़ा बदलाव तब हुआ जब यहां कलेक्टर अयाज तंबोली की नियुक्ति हुई। उनके बारे में हमें मेडिकल सुविधाओं को देखने वाले डिस्ट्रिक्ट प्रोग्राम मैनेजर पुष्पेंद्र ने विस्तार से जानकारी दी। पुष्पेंद्र छत्तीसगढ़ के जशपुर के रहने वाले हैं। वे बताते हैं कि बीजापुर के मुकाबले उनका इलाका विकसित है। इसका बड़ा कारण वहां की शिक्षा व्यवस्था है।
पुष्पेंद्र ने बैचलर ऑफ डेंटल सर्जन की पढ़ाई की और उसके बाद हॉस्पिटल मैनेजमेंट में एमबीए भी किया। इसके बाद वे आंखों के अस्पताल की चेन के साथ जुड़कर काम करने लगे। वे बताते हैं, 'जब मैं दिल्ली और हरियाणा में तैनात था तो वहां के लोग मुझसे कहते थे कि छत्तीसगढ़ में लोग नक्सलवाद की वजह से काम नहीं करना चाहते हैं। ये बात मुझे अंदर तक चुभती थी। इसीलिए जब मुझे यहां काम करने का मौका मिला तो काफी खुशी हुई।'
डॉक्टर्स और स्टाफ की नियुक्ति का श्रेय जिले के कलेक्टर अय्याज तंबोली को देते हुए पुष्पेंद्र कहते हैं, 'वैसे तो छह जिलों में पद खाली थे, लेकिन कलेक्टर ने मुझे खासतौर पर बीजापुर भेजा क्योंकि यहां की हालत सबसे खराब थी और 8 महीनों से यहां पद खाली था।' वे बताते हैं कि यहां योजनाएं तो बनाई जाती थीं लेकिन कई वजहों से उसे अमल में नहीं ला पाया जाता था। पुष्पेंद्र ने कहा कि कलेक्टर ने उन्हें काम करने की आजादी के साथ-साथ हर तरह से सहयोग भी किया।
पुष्पेंद्र कहते हैं, 'नक्सल प्रभावित एरिया की वजह से यहां डॉक्टर नहीं थे। तीन साल पहले पूरे जिले में सिर्फ 8-9 डॉक्टर हुआ करते थे जबकि एक स्वास्थ्य केंद्र में ही 10 डॉक्टरों की जरूरत होती है। इस तरह से देखा जाए तो पूरे जिले में लगभग 40 डॉक्टर होने चाहिए। नया जिला होने की वजह से भी दिक्कतें आ रही थीं। क्लिनिकल, पैरामेडिकल और मैनेजमेंट तीनों कैडर खाली थे। यहां ब्लड बैंक नहीं था, एनेस्थीसिया डिपार्टमेंट खाली पड़ा था।' वे बताते हैं कि यहां अगर किसी को इमर्जेंसी होती थी तो सीधे जगदलपुर जाना पड़ता था जो कि यहां से 170 किलोमीटर दूर है। फिर चाहे सी सेक्शन डिलिवरी हो या फिर ब्लास्ट में घायल हुए लोग, सबको जगदलपुर ही ले जाना पड़ता था।
हालत में बदलाव हुआ कलेक्टर अय्याज तंबोली के आने के बाद। उन्होंने सबसे पहले यहां के इन्फ्रास्ट्रक्चर को बदला। सारे सीएचसी और पीएचसी को अपग्रेड किया गया। सुविधाओं को बढ़ाया गया। और पुराने अस्पतालों को बदला गया। पुष्पेंद्र बताते हैं, 'इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधर जाने के बाद से हमने नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू की। हमें पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया और यूनिसेफ ने भी सपोर्ट किया और यहां एएमयू मेडिकल कॉलेज और पीजीआई चंडीगढ़ से भी डॉक्टरों को नियुक्त किया गया। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश के गायनकोलॉजिस्ट से लेकर जनरल सर्जन और पीडियाट्रिक सर्जन की नियुक्ति हुई।'
डॉक्टरों के यहां आने की सबसे बड़ी वजह थी अच्छी सुविधा और ऊंची तनख्वाह। कलेक्टर अयाज ने नेशनल हेल्थ मिशन और डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन से मिलने वाले फंड को डॉक्टरों को मिलने वाली सैलरी में इस्तेमाल किया। यहां के डॉक्टरों को बड़े-बड़े शहरों के अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टरों से ज्यादा सैलरी दी गई। स्पेशलिस्ट डॉक्टरों को तो 2 से 2.5 लाख रुपये प्रतिमाह पर रखा गया। इसके साथ ही डॉक्टरों को रहने के लिए कलेक्टर और आर्मी ऑफिसर की तरह बंगले दिए गए। अगर डॉक्टर शादीशुदा हैं तो उनके पति-पत्नी को योग्याता के मुताबिक नौकरी भी दी गई।
डॉक्टर्स और स्टाफ की नियुक्ति हो जाने के बाद चिकित्सीय मशीनों को लगाया गया। लेकिन आदिवासी इलाका होने की वजह से एक बड़ी आबादी शिक्षित और जागरूक नहीं है। इसलिए फील्ड लेवल पर हेल्थ वर्करों को बताया गया कि वे गांव के लोगों तक यह संदेश पहुंचाएं कि अस्पताल में अब उनका इलाज हो सकता है और उन्हें इलाज के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है।
जिन इलाकों के लोग अस्पताल की सुविधाओं के बारे में अनजान थे वहां कैनोपी लगाकर एएनएम को बैठाया गया और लोगों को जानकारी दी गई। जो इलाके पहुंच से दूर थे वहां एंबुलेंस भी दी गई। इन सब कदमों से स्थिति इतनी बदल गई कि जिन गांवों में पहले डिलिवरी के लिए भी किसी को अस्पताल नहीं ले जाया जात था वहां अब मेलिरिया और डेंगू जैसे मरीजों को भी एंबुलेंस से अस्पताल लाया जा रहा है।
यह प्रयोग इतना सफल हुआ कि अब छत्तीसगढ़ सरकार ने मुख्यमंत्री फेलोशिप प्रोग्राम के तहत इसे 3 से बढ़ाकर 10 जिलों में लागू करने का फैसला किया है। इस प्रयोग से यह भी सीखा जा सकता है कि अगर डॉक्टरों को अच्छी सुविधा और सैलरी दी जाए तो वे मुश्किल माने जाने वाले ग्रामीण इलाकों में भी अपनी सेवाएं दे सकते हैं।
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