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एक शख्स की बदौलत साइकिल के पहिये पर दौड़ने लगी एक आदिवासी इलाके की ज़िंदगी

एक शख्स की बदौलत साइकिल के पहिये पर दौड़ने लगी एक आदिवासी इलाके की ज़िंदगी

Tuesday November 17, 2015 , 7 min Read

‘बाइसाइकिल प्रोजेक्ट’ की शुरूआत साल 2008 से हुई...

पुरानी साइकिलों को इकट्ठा कर बांटते हैं आदिवासियों के बीच...

आदिवासी बच्चों को दी जाती है मुफ्त में साईकिल...


जीवन के साथ-साथ अकसर जिस शब्द का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है वो है पहिया। पहिये का मतलब है स्थिर न होना, लगातार चलना। कहते हैं चलने का नाम ही है जीवन। अगर ये पहिया साइकिल का हो तो? साइकिल एक ऐसी सवारी है जिसे शहरों में आमतौर पर लोग अपनी फिटनेस से जोड़कर देखते हैं, लेकिन दूर दराज के गांवों में यही साइकिल जीवन के साथ जुड़कर गति देने वाली होती है। कभी आपने सोचा कि ये साइकिल किसी आदिवासी इलाके में बदलाव ला सकती है, वहां रहने वाले लोगों में आत्मविश्वास भर सकती है, बच्चों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है। मुंबई में रहने वाले कारोबारी हेमंत छाबड़ा ने जब इस बारे में सोचा तो उन्होने इस काम को एक प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू किया और उसका नाम रखा ‘बाइसाइकिल प्रोजेक्ट’।

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महाराष्ट्र के सबसे बड़े आदिवासी इलाकों में से एक विक्रमगढ़ तहसील में पड़ने वाला गांव है झड़पोली। जहां अकसर हेमंत का आना जाना होता था। आज हेमंत मुंबई छोड़ यहीं रहते हैं और रूलर टूरिज्म के साथ साथ अपने ‘बाइसाइकिल प्रोजेक्ट’ पर भी काम कर रहे हैं। बाइसाइकिल प्रोजेक्ट की शुरूआत साल 2008 में तब शुरू हुई जब एक दिन हेमंत गांव के एक बस स्टॉप पर खड़े थे। उस वक्त काफी तेज बारिश हो रही थी। तब हेमंत ने देखा की हवा के एक तेज झोंके के कारण वहां से स्कूल की ओर जा रही लड़कियों के छाते उल्टे हो गए। इस कारण वो भींग गई। हेमंत को ये बात अच्छी नहीं लगी। तब उन्होने सोचा कि ये जगह मुंबई से महज सौ किलोमीटर की दूरी पर है। मुंबई से यहां की दूरी सिर्फ दो घंटे की है। हेमंत बताते हैं कि "उस वक्त शाइनिंग इंडिया ज़ोरों पर था और मुंबई और दिल्ली जैसे शहर दिनों दिन चमक रहे थे बावजूद देश में कई ऐसे गांव थे जहां ना बिजली आती थी और ना सड़क थी, वहीं पीने के पानी के लिए लोगों काफी दूर जाना पड़ता था। तब मैंने सोचा कि इस आदिवासी इलाके में बदलाव लाने के लिए क्यों ना खुद ही पहल की जाए।"

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उस वक्त हेमंत अपने परिवार के साथ मुंबई के अंधेरी इलाके में रहते थे। उन्होने देखा की उनकी सोसाइटी में ढेरों ऐसी साइकिल हैं जिनका लोग इस्तेमाल नहीं करते हैं और वो खराब हो रही हैं। तब उनको लगा कि अगर इन साइकिल को ठीक कर आदिवासी बच्चों को दिया जाए तो इनका बेहतर इस्तेमाल हो सकता है। हेमंत बताते हैं कि “मैंने देखा था कि स्कूल के लिए कई आदिवासी लड़के लड़कियां 10 से 12 किलोमीटर दूर पैदल चल कर आते जाते थे। ऐसे में इन बच्चों के लिए साइकिल काफी मददगार साबित हो सकती थी।” इसके बाद हेमंत को विश्वास होने लगा था कि “अगर इस इलाके में मैं साइकिल लाने में कामयाब हुआ तो झड़पोली और उसके आसपास काफी बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है।” हेमंत सही दिशा में जा रहे थे। इस काम को आगे बढ़ाने के लिए उन्होने मदद ली अपनी दोस्त सिमोना टेरन की। जो पेशे से पत्रकार भी थीं। जब सिमोना टेरन से हेमंत ने बात की तो सिमोना ने उनसे कहा कि “तुम्हारी सोच छोटी है तुम इस प्रोजेक्ट को अगर शुरू करना चाहते हो तो आसपास के दूसरे इलाके को भी क्यों नहीं शामिल कर लेते।” ये बात हेमंत को भी पसंद आई और वो इसके लिए तैयार हो गए।

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सिमोना ने एक लेख लिखा और जिसमें उन्होंने लोगों से साइकिल देने की अपील की और उन्हें प्रेरित भी किया। इसके बाद इस लेख को हेमंत ने अपने सभी दोस्तों के साथ साझा किया। अगले दिन एक औरत ने उनको फोन कर उनको साइकिल तो नहीं दी लेकिन उनको तीन हजार रुपये दिये। इसके बाद हेमंत ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और लोग उनको पुरानी साइकिल देने के लिए आगे आने लगे। लोगों से मिली ऐसी प्रतिक्रिया से हेमंत भी हैरान थे। अब लोग साईकिल देने आगे तो आ रहे थे लेकिन इस काम में सबसे बड़ी दिक्कत थी लोगों के घरों से साइकिल लेना और उनको ठीक कराकर किसी एक जगह पर रखना। इतना ही नहीं इन साइकिल को गांव तक पहुंचाना भी एक बड़ी चुनौती थी। इसके लिए हेमंत ने एक साइकिल मैकेनिक को अपने साथ लिया। हेमंत और साइकिल मैकेनिक, दोनों सुबह और शाम साइकिल इकट्ठा करते और उन साइकिल को लाकर अपनी सोसाइटी में खड़ी कर देते।

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मेहनत से चुनौती को मात देने का विश्वास रखने वाले हेमंत के लिए अभी एक और परीक्षा बाकी थी। वो थी गांव तक साइकिल को पहुंचाना। तब हेमंत ने एक मिनी ट्रक को किराये पर लिया, लेकिन जब ट्रक वाले को पता चला की उसे मुंबई से पुरानी साइकिलों को ले जाकर गांव में छोड़नी हैं तो वो इसके लिए तैयार नहीं हुआ उल्टा उसने हेमंत की इस कोशिश को पागलपन करार दिया। हेमंत का कहना है कि “तब मैंने सोचा कि ये मेरा आइडिया है इसलिए ये काम मुझे ही करना होगा, इसके अलावा मैंने ये भी सोचा कि जब तक किसी काम को मैं खुद नहीं करूंगा तब तक मुझे कैसे पता चलेगा कि उस काम में कितनी परेशानियां हैं।” लिहाजा हेमंत ने अपनी गाडी के पीछे की सीट को निकाल लिया ताकि ज्यादा से ज्यादा साइकिल उनकी गाडी में आ सके। वो दिन और आज का दिन....हेमंत इस तरह आज तक उन इलाकों में एक हजार से ज्यादा साइकिल गरीब आदिवासी बच्चों के बीच बांट चुके हैं।

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हेमंत बताते हैं कि साइकिल प्रोजेक्ट के तहत लोगों से मिलने वाली साइकिल आसपास के स्कूलों को दी जाती हैं और वो ही तय करते हैं कि किस बच्चे को साइकिल दी जानी चाहिए। हांलाकि बच्चों को साइकिल देने के लिए कुछ मापदंड भी हैं-- जैसे स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा 3 किलोमीटर से ज्यादा दूरी पर रहता हो, बच्चे के माता-पिता किसान हों और वो उनके पास दूसरा कोई रोजगार का साधन ना हो। इसके अलावा जो छात्र या छात्रा पढ़ाई में होशियार हो उसे ही साइकिल दी जाती है। हेमंत के मुताबिक इस प्रोजेक्ट का असर ये हुआ कि स्कूलों में बच्चों के दाखिले बढ़ गए। साइकिल के कारण गांव की जिंदगी बदली गई। आज ये साइकिल ना सिर्फ बच्चों को स्कूल लाने ले जाने में मददगार साबित हो रही हैं बल्कि वो उनके घर के दूसरे काम में इस्तेमाल होती है। हेमंत बताते हैं कि एक बार उन्होने देखा कि एक बच्चे की साइकिल में एक व्यक्ति अपनी बड़ी बेटी की शादी के कार्ड बांट रहा था। ये बात उनके दिल को छू गई। खास बात ये है कि सत्र खत्म होने बाद हर साल बच्चे को साइकिल स्कूल वापस करनी पड़ती है और नये सत्र की शुरूआत में ही उनको दी जाती है।

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साइकिल प्रोजेक्ट का असर ये हुआ कि बच्चों में पढ़ाई को लेकर एक चेतना आई है। उन्हें समझ में आने लगा है कि पढ़ाई करने से साइकिल मिलती है। इस बात से हेमंत का काफी उत्साह बढ़ा। आज भी लोग हेमंत की इस मुहिम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। वो बताते हैं कि आज भी कई ऐसे लोग मिल जाएंगे जो पुरानी साइकिलें ना सिर्फ उनको दान में देते हैं बल्कि उनको देने से पहले खुद ठीक भी कराते हैं। हेमंत के मुताबिक “कई ऐसे लोगों ने साइकिल दी जो मुझे जानते नहीं थे। लोग दिल खोलकर मेरी मदद को तैयार रहते हैं।” यही वजह है कि साल 2008 से शुरू हुआ हेमंत का ‘बाइसाइकिल प्रोजेक्ट’ का सफर आज भी बदस्तूर जारी है।