श्रेष्ठ सृजन में सिद्धहस्त कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर
कोई भी प्रतिष्ठित पुरस्कार सिर्फ किसी कवि-कथाकार-साहित्यकार-लेखक-आलोचक और उसकी कृति का ही सम्मान नहीं होता बल्कि वह सृजन की उस विधा, उसके सरोकार, उसके भावार्थ और संदेशों का भी सामाजिक आदर होता है। बिहार के वरिष्ठ समकालीन कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर को 11 लाख रुपए का वर्ष 2018 का 'श्रीलाल शुक्ल इफको स्मृति साहित्य सम्मान' दिया जा रहा है।
इतने बड़े पुरस्कार के लिए कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर का चयन उनके व्यापक साहित्यिक अवदानों को ध्यान में रखते हुए किया गया है। पुरस्कार चयन समिति में डीपी त्रिपाठी, मृदुला गर्ग, राजेंद्र कुमार, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, इब्बार रब्बी, दिनेश शुक्ल आदि शामिल रहे हैं।
इंडियन फारर्मस फर्टिलाइजर को-ऑपरेटिव लिमिटेड यानी इफको की ओर से हिंदी साहित्यकार रामधारी सिंह दिवाकर को वर्ष 2018 का 'श्रीलाल शुक्ल इफको स्मृति साहित्य सम्मान' दिया जायेगा। श्रीलाल शुक्ल की स्मृति में वर्ष 2011 में शुरू किया गया यह सम्मान ऐसे हिंदी लेखक को दिया जाता है, जिसकी रचनाओं में ग्रामीण और कृषि जीवन, हाशिए के लोग, विस्थापन आदि से जुड़ी समस्याओं, आकांक्षओं और संघर्षों के साथ-साथ भारत के बदलते हुए यथार्थ को अपने लेखन में उल्लेखित-चित्रित किया हो। खेती-किसानी को अपना साहित्यिक आधार बनानेवाले दिवाकर को 31 जनवरी, 2019 को नयी दिल्ली में आयोजित होनेवाले एक कार्यक्रम में प्रतीक चिह्न, प्रशस्ति पत्र के साथ 11 लाख रुपये से सम्मानित किया जाएगा।
अररिया (बिहार) के नरपतगंज गांव में एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्मे रामधारी सिंह दिवाकर दरभंगा के मिथिला विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त होने के बाद बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के निदेशक भी रहे हैं। अपने पैने-धारदार सृजन के लिए समकलालीन कथा साहित्य में ख्यात दिवाकर की कहानी पर फिल्म भी बन चुकी है। उनकी रचनाओं में 'नये गांव में', 'अलग-अलग परिचय', 'बीच से टूटा हुआ', 'नया घर चढ़े' सरहद के पार', धरातल', माटी-पानी', 'मखान पोखर', 'वर्णाश्रम', झूठी कहानी का सच' (कहानी संग्रह)', 'क्या घर क्या परदेश', 'काली सुबह का सूरज', 'पंचमी तत्पुरुष', 'दाखिल-खारिज', 'टूटते दायरे', अकाल संध्या (उपन्यास)', 'मरगंगा में दूब (आलोचना)' आदि प्रमुख कृतियां हैं।
इतने बड़े पुरस्कार के लिए कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर का चयन उनके व्यापक साहित्यिक अवदानों को ध्यान में रखते हुए किया गया है। पुरस्कार चयन समिति में डीपी त्रिपाठी, मृदुला गर्ग, राजेंद्र कुमार, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, इब्बार रब्बी, दिनेश शुक्ल आदि शामिल रहे हैं। इफ्को के प्रबंध निदेशक डॉ. उदय शंकर अवस्थी कहते हैं- ‘खेती–किसानी को अपनी रचना का आधार बनाने वाले रामधारी सिंह दिवाकर का सम्मान देश के किसानों का सम्मान है।’ राकेश रोहित लिखते हैं - हमारी हिंदी कहानी लेखकीय संवेदन क्षमता की श्रेष्ठता और पाठकीय संवेदन योग्यता के प्रति संदेह से आक्रांत रहती है और इसलिए हमारी कहानी में ‘स्पेस’ का अभाव रहता है। वही सच है, जो कहानी में है और वही सारा सच है, कुछ ऐसा ही भाव आज की कहानी प्रस्तुत करती है। और इसलिए हिंदी कहानी में अनुपस्थित-पात्र योजना का अभाव है। यह चीज फणीश्वर नाथ ‘रेणु‘ में देखी जा सकती है। उनके यहां अनुपस्थित पात्र अक्सर कहानी को ‘स्पेस’ और ‘डाइमेंशन’ देते हैं।
रामधारी सिंह दिवाकर की कहानी 'द्वार पूजा' पिपही बजाने वाले झमेली द्वारा सुखदेव कलक्टर की बेटी की शादी में पिपही बजाने की इच्छा की कहानी है। यह एक सामान्य इच्छा रह जाती अगर झमेली सुखदेव के बाप और उनकी बहन की शादी में पिपही बजाने की परंपरा को अपने अधिकार से न जोड़ते और साथ-साथ इस भावना से न जुड़े रहते, “दुलहिन भी सुन लेगी हमारा बाजा।” पर धीरे-धीरे कहानी में यह बात फैलती है, “गांव वालों की कोई खास जरूरत नहीं है।” और झमेली क्या अपनी अपमानित सत्ता से बेखबर पिपही बजाने के सुख में डूबा है? नहीं, जब आप देखते हैं कि विशाल शामियाने के पीछे गोहाल में उसने अपनी मंडली रची है, अपनी एक दुनिया बनायी है, जिसमें उसकी सत्ता है। वह अब विवाह की घटना से जैसे ऊपर है कि झमेली भी यह बात बिल्कुल भूल गया है, वह अपनी पोती की शादी में पिपही बजाने आया है। इस दुनिया में उस चमक भरी दुनिया का हस्तक्षेप भी है, जब सुखदेव बाबू पंडित चुनचुन झा को शास्त्री जी के साथ बैठ जाने को कहते हैं- “गरीब पुरोहित हैं, बेचारे को कुछ दान-दक्षिणा भी मिल जायेगी।” और तब राधो सिंह पंडी जी को द्वार पूजा के लिये छोड़कर स्मृतियों के साथ जीवित दूसरी दुनिया में लौटते हैं, जहां एक संदेश पिपही से निकल कर फ़ैल रहा है, “माय हे, अब न बचत लंका— राजमंदिर चढि कागा बोले...।”
सुपरिचित कथाकार-उपन्यासकार रामधारी सिंह दिवाकर समकालीन हिंदी कहानी साहित्य में श्रेष्ठ सृजन के अब प्रतिनिधि रचनाकार बन चुके हैं। वह अपनी चर्चित कहानी 'सरहद के पार' में रेखांकित सामाजिक संबंधों में आ रहे ठहराव को लक्षित करते हुए कहते हैं - 'बाबूजी प्रसन्न मुद्रा में बोल रहे थे। और मुझे लग रहा था, अपने ही भीतर के किसी दलदल में मैं आकंठ धंसता जा रहा हूँ। कोई अंश धीरे धीरे कटा जा रहा था अंदर का लेकिन बाबूजी के मन में गजब का उत्साह था।' दिवाकर कहते हैं कि छोटे शहर और ग्रामीण परिवेश से आ रहे रचनाकारों के लिए पाठकों तक पहुँचना अब भी चुनौती है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के सह आचार्य डॉ संजय कुमार कहते हैं कि हिन्दी में प्रो. रामधारी सिंह दिवाकर के पाठक लम्बे समय से हैं और सारिका, धर्मयुग के दौर से उनकी कहानियां चाव से पढ़ी जा रही हैं। सामाजिक संबंधों की दृष्टि से उनकी रचनाशीलता उल्लेखनीय है। देश में आंतरिक विस्थापन की स्थितियों को रेखांकित करने वाले दिवाकर का कथा-सृजन बहुआयामी है। आंतरिक विस्थापन की जटिलताओं को समझने में दिवाकर जी की रचनाएँ मददगार होती हैं। दिवाकर की कथा रचनाओं को बिहार के ग्रामीण अंचल का वास्तविक वर्तमान मानना चाहिए। इस सच को जानने के लिए हिन्दी आलोचना को भी अपना दायरा बढ़ाना होगा। प्रो दिवाकर की कथा भाषा माटी की गंध से सुवासित है। उनकी कहानियां भले ही समकालीन कथा चर्चा से बाहर हों लेकिन उनमें अपने समय की विडम्बनाओं को स्पष्टतः देखा जा सकता है।
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