'काम' का वार 'हिंसा' की मार और घायल महिला 'कामगार'
घरेलू महिला कामगारों के शोषण की संभावना घर की दहलीज के अंदर और बाहर समान रूप से एक जैसी होती है। अस्मत और जिंदगी पर कब और कैसे डाका पड़ जाये कोई करार नहीं। घरेलू कामगार महिलाओं के साथ तरह-तरह से क्रूरता, अत्याचार और शोषण होते हैं, उसी पर प्रस्तुत है योरस्टोरी की एक रिपोर्ट।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के चर्चित आशियाना गैंगरेप कांड के दोषी गौरव शुक्ला को दस साल की सजा हो गई है या यूं कहें कि दर्द, आंसू, कराह, बदनामी, ताने, तिजारत, प्रलोभन और धमकियों के तेजाबी सैलाब को पार करने के बाद आखिरकार एक घरेलू कामगार लड़की ने खुद के साथ नाबालिग उम्र में हुये दुराचार के अपराधी को सजा देने के लिये कानून को विवश कर दिया। अब एक दशक से अधिक समय गुजर जाने के बाद ये इंसाफ है या संघर्ष का सांत्वना पुरस्कार, ये तो जेरे बहस है! लेकिन सवाल राजधानी लखनऊ समेत सूबे में काम कर रहीं लाखों घरेलू महिला कामगारों की सुरक्षा का है।
आशियाना कांड की पीड़िता भी घरेलू महिला कामगार ही थी, जो एक घर से अपना काम निपटा कर दूसरे घर में काम करने जा रही थी। रास्ते में घटी घटना ने जिंदगी की सारी दिशा ही बदल दी। जिस्म पर सिगरेट की दागों के निशान ने रूह तक को दाग दिया।
ऐसा नहीं है, कि पीड़िता घर से बाहर थी इसीलिये माफिया खानदान के युवा तुर्क की अय्याश मिजाजी का शिकार बनी, बल्कि हकीकत तो ये है कि घरेलू महिला कामगारों के शोषण की संभावना घर की दहलीज के अंदर और बाहर समान रूप से एक जैसी होती है। अस्मत और जिंदगी पर कब और कैसे डाका पड़ जाये कोई करार नहीं। घरेलू कामगार महिलाओं के साथ तरह-तरह से क्रूरता, अत्याचार और शोषण होते हैं। मीडिया के माध्यम से प्रकाश में आये दिल दहला देने वाले ऐसे अनेक केस हम सब की स्मृतियों में कैद हैं, जिसमें कुछ घरेलू महिला कामगारों को अपनी मुफलिसी और महिला होने की कीमत, अपना जीवन देकर चुकानी पड़ी है।
विदित हो कि जौनपुर से बसपा के सांसद रहे धनंजय सिंह और दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में डेंटल सर्जन के पद पर नियुक्त उनकी पत्नी को पुलिस ने घरेलू कामगार महिला की मृत्यु के सिलसिले में गिरफ्तार किया था। मामले की तफ्तीश करने वाले पुलिस अधिकारियों का कहना था, कि सांसद और उनकी चिकित्सक पत्नी उस घरेलू महिला कामगार को लोहे की छड़ और डंडे से पीटते थे। मृत पायी गयी महिला पश्चिम बंगाल की थी और जीविका की तलाश में देश की राजधानी में आयी थी। उसी प्रकार मध्यप्रदेश के पूर्व विधायक राजा भैया (वीर विक्रम सिंह) और उनकी पत्नी आशारानी सिंह को अपनी घरेलू नौकरानी तिजी बाई को आत्महत्या के लिए उकसाने वाले मामले में सजा हुई थी।
घरेलू कामगारों खासकर महिलाओं और नाबालिगों के साथ बढ़ते अत्याचार में सिर्फ राजनेता ही शामिल नहीं हैं, बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले, बैंक, बीमा कर्मचारी, प्रोफेसर, चिकित्सक, इंजीनियर, व्यापारी, सरकारी अधिकारी इत्यादी सभी शामिल हैं।
कॉरपोरेट जगत की वंदना धीर घरेलू कामगार किशोरी को अर्धनंगा रखती थी ताकि वो भाग न जाये, उसके शरीर पर चाकू और कुत्ते के दांत से काटने के जख्म थे। वहीं वीरा थोइवी एयर होस्टेस अपनी घरेलू काम करने वाली एक किशोरी को बेल्ट से पीटती और भूखा रखती थी, बाद में उसे पुलिस ने छुड़ाया। ये तो वो हाई प्रोफाइल मामले हैं जो मीडिया की मशक्कत से समाज के सामने आ गये अन्यथा अमीरी की चारदीवारी के अंदर घरेलू महिला कामगारों की सिसकियां गरीबी की कीमत अदा करते-करते कब दम तोड़ देती हैं, ये तो वे भी नहीं जान पातीं। हजारों नहीं बल्कि लाखों की संख्या में ऐसे घरेलू महिला कामगारों के होने से इंकार नहीं किया जा सकता है जो अपने नियोक्ता के अत्याचार चाहे वो शारीरिक, मानसिक या फिर शाब्दिक हों, सह रही होगीं।
घरेलू कामगार महिलाओं को अपने साथ हो रहे हिंसा की शिकायत करने पर रोजी-रोटी छिन जाने का डर रहता है। इसी काम से वे अपने घर-परिवार को चलाने में सहयोग करती हैं। इसी कारण वे शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर पाती हैं। सभी पीड़िताओं में आशियाना गैंगरेप कांड की पीड़िता जैसा संकल्प, आत्मविश्वास, जिजीविषा, हौसला और प्रताड़ना सहने का माद्दा नहीं होता है और इंसाफ की राह में कायम इतने तवील अंधेरों में सभी को मंजिल भी नहीं मिल पाती है।
घरेलू कामगार महिलाओं के साथ अत्याचार और उत्पीडऩ की घटनाएं उच्च वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग से ज्यादा आ रही हैं। इसका कारण इस वर्ग द्वारा घरेलू कामगार के प्रति आपसी विश्वास की कमी, सामंती मानवीय स्वभाव, पैसा दे कर खरीदा गुलाम समझना, कम पैसे में ज्यादा से ज्यादा काम कराने की मानसिकता आदि को माना जा सकता है। दीगर है कि घरेलू कामगार महिलाएं ज्यादातर आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े और वंचित समुदाय से होती हैं। उनकी ये सामाजिक स्थिति उनके लिए और भी विपरीत स्थितियां पैदा कर देती है। इन महिलाओं के साथ यौन उत्पीडऩ, चोरी का आरोप, गालियों की बौछार या घर के अन्दर शौचालय आदि का प्रयोग न करने, इनके साथ छुआछूत करना जैसे चाय के लिए अलग कप एक आम बात है। ऐसा उत्पीड़न-शोषण करना और इनसे न के बराबर मजदूरी में हाड़तोड़ मेहनत करवाना, बड़ी जातियां अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती हैं लेकिन जैसे-जैसे-जैसे अर्थ प्रधानता बढ़ रही वैसे-वैसे सवर्ण जातियों की महिलाओं की भी खासी संख्या घरेलू कामगार के रूप में दिखायी पड़ने लगी है।
कुछ जगह तो खास संबोधन देकर कार्य के सापेक्ष महिला कामगार के जातीय स्वाभिमान को रक्षित करने की भी कोशिश की जाती है जैसे किसी घर में खाना बनाने वाली ब्राह्मण महिला को महराजिन नाम का संबोधन देकर। किंतु इससे सवर्ण महिला (घरेलू) कामगार सुरक्षित हो जाती हो ऐसा नहीं है, क्योंकि समस्या तो महिला और उसके कार्य के प्रति पुरुष और नियोक्ता के नजरिये की है, जो कमोबेश आदि काल से अधिनायकवादी ही रही है। दरअसल घरेलू महिला कामगारों के शोषण की शुरुआत उसी मोड़ से शुरू हो जाती है जब कई सारे प्रलोभन देकर इन्हें महानगरों में काम दिलवाया जाता है। आमतौर पर बड़े शहरों में घरेलू कामकाज करने वाले इन कम उम्र के नौकर-नौकरानियों को विषम परिस्थितियों से जूझ रहे माता-पिता स्वयं ही बड़े शहरों में भेजते हैं। गरीबी के फंदे में पहले से उलझी कम उम्र की बच्चियां आसानी से दलालों के जाल में फंस जाती हैं। ये कई बार यौन शोषण का भी शिकार बनती हैं। अमानवीयता की सीमा पार करने वाले इस व्यवहार का शिकार अधिकतर नाबालिग बच्चे और महिलाएं ही बनते हैं।
घरेलू कामकाज करने वाली महिलाओं पर अत्याचार की कहानियों के अंतहीन सिलसिले हैं, जिसका कारण परस्पर विश्वास की कमी को बताया जाता है। दीगर है कि हिंसा की इन घटनाओं को एक तरह से नकारने के लिए कुछ और कहानियां सुनायी जाती हैं। इन कहानियों में बताया जाता है, कि घरेलू कामकाज के लिए किसी महिला को अपने घर में सहायक के तौर पर नियुक्त करने वाला हर व्यक्ति व्यवहार के मामले में हिंसक नहीं होता।
बहुत से मध्यवर्गीय परिवार हैं, जहां घरेलू परिचारक-परिचारिकाओं से इंसानियत का बर्ताव किया जाता है लेकिन अध्ययन बताते हैं कि मध्यवर्गीय परिवारों के घरेलू कामकाज में सहायता करके जीविका कमाने को मजबूर महिलाओं की समस्या व्यक्तिगत व्यवहार का मामला भर नहीं है। उनके साथ होने वाली हिंसा की घटनाएं आपसी विश्वास की कमी भर से नहीं उपजती हैं। ऐसी महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा की जड़ें मानवीय स्वभाव में कम और हमारे मौजूदा अर्थव्यवस्था की बनावट में कहीं ज्यादा हैं। हमारी अर्थव्यवस्था के भीतर घरेलू कामकाज में सहायक लोगों को बेनाम और बेशक्ल रखा गया है। परंपरा से चली आ रही मान्यता घरेलू कामकाज में सहायता करने वाले लोगों को नौकर/ नौकरानी का दर्जा देती है, यानी एक ऐसा व्यक्ति जो मूल कार्य नहीं करता, बल्कि मूल कार्य के पूरा होने में किन्हीं तरीकों से सहायक मात्र होता है और इस वजह से किये गये काम के वाजिब मेहनताने का नहीं, बल्कि बख्शीश भर पाने का पात्र होता है। बख्शीश हकदारी का नहीं, मनमानी का मामला है। मन हुआ तो सल्तनत बख्श दी और मन हुआ तो पैबंद लगे कपड़े, फटे जूते या फिर बासी रोटी थमा कर खुद के मालिक होने पर गर्व महसूस करने लगे।
होना तो यह चाहिए कि घरेलू कामगार महिलाओं को प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले कर्मचारी की तरह ही माना जाना चाहिए और कर्मचारियों को मिलने वाली सामान्य सुविधाएं जैसे, न्यूनतम मजदूरी, काम के घंटों का निर्धारण, सप्ताह में एक दिन का अवकाश, इत्यादि सुविधा मिलनी चाहिए।
घरेलू कामगार महिलाएं आजीविका के लिए सुबह से शाम तक लगातार कार्य करती है। अल सुबह उठ कर पहले अपने घर का काम करती हैं उसके बाद वह घरों में काम करने जाती हैं। दिनभर काम करने के बाद वापस घर आ कर घर का काम भी करती है। उसे एक दिन की भी छुट्टी ना तो अपने घर के काम से और ना ही दूसरों के घरों के काम से मिल पाती है। काम के अत्यधिक बोझ के कारण उसे अक्सर पीठ दर्द, थकावट, बरतन मांजने व कपड़ेे धोने से हाथों और पैर की ऊंगलियों में घाव हो जाते हैं, इसके बावजूद उसे काम करना पड़ता है। कार्य के अत्यधिक बोझ के कारण ये अक्सर पीठ दर्द, थकावट आदि का शिकार हो जाती हैं, कुछ कार्य जैसे बर्तन मांजने व कपड़े धोने वाली महिलाओं की हाथों की उंगुलियों में घाव हो जाते हैं, इसके बावजूद इन्हें यही कार्य करना पड़ता है। स्वास्थ्य खराब होने पर भी इनके लिए चिकित्सा प्राप्त करना कठिन होता है, क्योंकि सार्वजनिक अस्पतालों में लगने वाला समय उनके पास नहीं होता एवं निजी चिकित्सा सेवा की लागत चुका पाना इनके बस में नहीं होता है।
देश में लाखों घरेलू कामगार महिलाएं है लेकिन देश की अर्थव्यवस्था में इसे गैर उत्पादक कामों की श्रेणी में रखा जाता है। इसी कारण देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई सही आंकलन नहीं किया गया। जबकि इनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। इन महिलाओं को घर के काम में मददगार के तौर पर माना जाता है। इस वजह से उनका कोई वाजिब एक सार मेहनताना नही होता है। ये पूर्ण रूप से नियोक्ता पर निर्भर करता है।
घरेलू कामगार महिलाओं की सबसे बढ़ी समस्या उनके किसी संगठन का ना होना है। इस कारण अपने पर होने वाले अत्याचार का ये सब मिल कर विरोध नहीं कर पाती है, इनके मांगों को उठाने वाला कोई नहीं है। घरेलू महिला कामगारों को श्रम का बेहद सस्ता माध्यम माना जाता है। संगठन ना होने के कारण इनके पास अपने श्रम को लेकर नियोक्ता के साथ मोलभाव करने का ताकत है, इसके कारण नियोक्ता इनका फायदा उठाते हैं। इसी के चलते काम के दौरान हुई दुर्घटना, छुट्टी, मातृत्व अवकाश, बच्चों का पालनाघर, बीमारी की दशा में उपचार जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं हो पाती है। यदि घर में काम करने वाले किसी महिला के साथ नियोक्ता द्वारा हिंसा करता है तो केवल पुलिस में शिकायत के अलावा ऐसा कोई फोरम नहीं है जहां जाकर वे अपनी बात कह सकें और शिकायत कर सकें। कामवाली बाइयों की बढ़ती संख्या, कार्य की विविधता, कार्य लेने वालों की विशाल संख्या के कारण इन्हें कानूनी सुरक्षा देने का कार्य काफी चुनौतीपूर्ण होते हुए भी आज की परिस्थितियों में आवश्यक हो गया है। कुछ शहरों में स्वंयसेवी संस्थाओं द्वारा घरेलू कामगार महिलाओं के संगठन बने हैं और कुछ जगह इस तरह के संगठन बनाने की ओर प्रयास किये जा रहे हैं। राज्य सरकारें भी उसके अधिकारों और सम्मान के बारे में सजग हो चली हैं।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घरों में काम करने वाली महिलाओं को कामवाली बाई के बदले बहन जी अथवा दीदी के संबोधन से पुकारने की अपील की है।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का मानना है, कि इससे घरेलू काम-काज करने वाली औरतों के सम्मान को बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने घरेलू नौकरानियों की महापंचायत के आयोजन किए जाने का भी आह्वान किया। उन्हें फोटोयुक्त परिचय पत्र तथा प्रशिक्षण दिए जाने की भी योजना है। महाराष्ट्र और केरल की भांति दिल्ली राज्य सरकार घरेलू कामगार एक्ट लागू करने के लिए प्रयास कर रही है। जिनके अंतर्गत कामवाली बाई को साप्ताहिक अवकाश के साथ-साथ अन्य सुविधाएं लेने की भी पात्र होंगी। दिल्ली सरकार के श्रम विभाग द्वारा साप्ताहिक अवकाश, न्यूनतम वेतन तथा अन्य सुविधाओं का खाका तैयार किया जा चुका है। ये लाभ उन सभी कामवाली बाइयों को मिलेगा जो अपना पंजीयन कराएंगी। यदि वह सब यथावत होता है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि कामवाली बाइयों की जीवन दशा में सकारात्मक सुधार होकर रहेगा।
लेकिन देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में शायद अंधेरा ज्यादा घना है। यहां यह सवेरा होने में अभी देर होती प्रतीत हो रही है। दरअसल, घरेलू कामकाज में सहायक श्रमशक्ति की सारी लड़ाई इस मान्यता से टकराने और बदलने की है। इस श्रमशक्ति की लड़ाई खुद को नौकर/ नौकरानी नहीं बल्कि 'कामगार' (एक ऐसा व्यक्ति जिसके काम का तयशुदा मोल हो) स्वीकार करवाने की है। कामगार का दर्जा हासिल होते ही वैधानिक तौर पर कार्यस्थल पर हासिल सुविधाएं, काम के घंटे, वांछित काम का रूप, उनसे जुड़ा जोखिम और हर्जाना समेत कार्य-संपन्न होने की स्थिति में होने वाले भुगतान की बात सुनिश्चित हो जाती है। ऐसे में घरेलू कामकाज में सहायक के तौर लगे लोगों से किये जाने वाले बर्ताव में मनमानी करने की गुंजाइश समाप्त हो जाती है।
देश में असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून (2008) है जिसमें घरेलू कामगारों को भी शामिल किया गया है। लेकिन अभी तक ऐसा कोई व्यापक और राष्ट्रीय स्तर पर एक समान रूप से सभी घरेलू कामगारों के लिए कानून नहीं बन पाया है, जिसके जरिये घरेलू कामगारों की कार्य दशा बेहतर हो सके और उन्हें अपने काम का सही भुगतान मिल पाये।
घरेलू कामगार को लेकर समय-समय पर कानून बनाने का प्रयास हुआ, सन् 1959 में घरेलू कामगार बिल (कार्य की परिस्थितियां) बना था, परंतु वह व्यवहार में परिणित नहीं हुआ। फिर सरकारी और गैरसरकारी संगठनों ने 2004-07 में घरेलू कामगारों के लिए मिलकर 'घरेलू कामगार विधेयक' का खाका बनाया था। इस विधेयक में इन्हें कामगार का दर्जा देने के लिए एक परिभाषा प्रस्तावित की गयी है "ऐसा कोई भी बाहरी व्यक्ति, जो पैसे के लिए या किसी भी रूप में किये जाने वाले भुगतान के बदले किसी घर में सीधे या एजेंसी के माध्यम से जाता है, तो स्थायी या अस्थायी, अंशकालिक या पूर्णकालिक हो तो भी उसे घरेलू कामगार की श्रेणी में रखा जायेगा।"
इसमें उनके वेतन, साप्ताहिक छुट्टी, कार्यस्थल पर दी जाने वाल सुविधाएं, काम के घंटे, काम से जुड़े जोखिम और हर्जाना समेत सामाजिक सुरक्षा आदि का प्रावधान किया गया है, लेकिन इस विधेयक को आज तक अमली जामा नही पहनाया जा सका है। कार्यस्थल में महिलाओं के साथ होने वाली लैंगिक हिंसा को रोकने के लिए देश में 'महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिशेेध तथा प्रतिशोध) अधिनियम 2013' बनाया गया है, जिसमें घरेलू कामगार महिलाओं को भी शामिल किया गया है।
नई सरकार ने कुछ समय पहले ही घोषणा की है, कि वे घरेलू कामगार के लिए एक विधेयक लाने वाले हैं। अगर घरेलू काम करने वालों को कामगार का दर्जा मिल जाये, तो उनके स्थिति बहुत बेहतर हो सकेगी। वे भी गरिमा के साथ सम्मानपूर्ण जीवन जी सकेगीं। ये भी अन्य कामों की तरह ही एक काम होगा ना कि नौकरानी का दर्जा।