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वैज्ञानिकों ने बनाई खारा पानी मीठा करने वाली चलनी

वैज्ञानिकों ने बनाई खारा पानी मीठा करने वाली चलनी

Monday November 05, 2018 , 6 min Read

पानी के लिए तीसरे विश्वयुद्ध के अंदेशों के बीच लगातार घट रहा भूजल स्तर वर्ष 2030 तक भारत का सबसे बड़ा संकट बनने वाला है। इसके बावजूद बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनियां बिनी किसी राजस्व अदायकी के अंधाधुंध भू-जल दोहन कर रहीं, क्यों? इस बीच वैज्ञानिक समुद्र का खारा पानी मीठा बनाने की खोज में जुटे हैं।

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आज जबकि समुद्र के किनारे महानगरों मुंबई, चैन्नई, कोलकाता, गोवा तक में भूजल समाप्त होने की स्थिति में है, समस्त समुद्र तटवर्ती इलाकों के मीठे पानी में खारे जल का विलय भी एक बड़ा खतरा बन चुका है।

एक ओर एक अरब से अधिक आबादी पृथ्वी पर पीने के पानी की कमी से ग्रस्त है, दूसरी तरफ बोतलबंद पानी के बाजार में दुनिया के हजारों उद्यमी डुबकी लगा रहे हैं। पानी का भविष्य दुनिया के ज्यादातर देशों को डरा रहा है। मांग बढ़ती जा रही है। इस बाजार के खिलाड़ियों की पानी बेंचकर खूब बल्ले-बल्ले भी हो रही है लेकिन एक ऐसे वक्त का भी खतरा सिर पर है, जब समुद्र का खारा पानी मीठा बनाने के अलावा दुनिया के सामने और कोई विकल्प नहीं होगा, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी इजराइल यात्रा के दौरान वहां के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ समुद्र में एक ऐसी विशिष्ट जीप में बैठ चुके हैं, जो समुद्री पानी को मीठे पेयजल में बदल देती है। पीएम मोदी उस पानी का सेवन भी कर चुके हैं। साथ ही नेतन्याहू ने अपनी भारत यात्रा के दौरान हमारे देश को यह जीप भेंट भी कर चुके हैं।

इस 71 लाख रुपए के जीपनुमा संयंत्र का गुजरात के बनासकांठा जिले में स्थित सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) उपयोग कर रहा है। समुद्री पानी को मीठा बनाने का काम तो यह संयंत्र करता ही है, बाढ़ के समय भी पानी को शुद्ध कर देता है। इससे एक दिन में 20 हजार लीटर पानी शुद्ध किया जा सकता है। इजराइल इकलौता देश है, जिसने समुद्र के खारे पानी को पीने लायक बनाने की तकनीक ईजाद की है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 2050 तक जब विश्व की 40 फीसदी आबादी जलसंकट भोग रही होगी, तब भी इजराइल में पीने के पानी का संकट नहीं होगा। भारत स्वयं ऐसी प्रौद्योगिकी की खोज में जुटा है, बल्कि पूरी दुनिया के आधुनिक वैज्ञानिक लगातार ऐसी कोशिश में लगे हैं कि समुद्र के खारे पानी को पीने के लायक बना लिया जाए, जिससे इस सदी में पानी के लिए तीसरे विश्वयुद्ध की जो आशंकाएं निर्मूल साबित की जा सकें।

आज जबकि समुद्र के किनारे महानगरों मुंबई, चैन्नई, कोलकाता, गोवा तक में भूजल समाप्त होने की स्थिति में है, समस्त समुद्र तटवर्ती इलाकों के मीठे पानी में खारे जल का विलय भी एक बड़ा खतरा बन चुका है। ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के वैज्ञानिक डॉ राहुल नायर के नेतृत्व में एक वैज्ञानिक टीम ने ग्रैफीन की एक ऐसी चलनी विकसित की है, जो समंदर के खारे पानी से नमक को अलग कर देती है। ग्रैफीन ग्रैफाइट की पतली पट्टी जैसा तत्व है, जिसे प्रयोगशाला में आसानी से तैयार किया जा सकता है। ग्रैफीन ऑक्साइड से निर्मित यह छलनी समुद्र के पानी से नमक अलग करने में तो सक्षम है लेकिन इससे उत्पादन बहुत महंगा पड़ता है। इधर, हमारे देश में अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों ने ब्रिटिश तकनीक की तुलना में एक और सस्ती तकनीक से खारे पानी को मीठे पानी में बदलने का दावा किया है।

इस तकनीक को इंटरडिस्पिलनरी नैनो टेक्नोलॉजी सेंटर के निदेशक प्रो. अबसार अहमद ने अंजाम दिया है। उन्होंने इंडोफिटिक फंजाई (फंगस) से पोरस नैनो सामग्री तैयार की, इसकी माप नैनो मीटर से होती है। ये फंगस खाने-पीने की वस्तुओं में आसानी से घुल जाते हैं। फंगस के मेमरेन (बायोमास) में पहले छेद किया गया। छेद का व्यास नैनो मीटर से तय किया गया। छेद युक्त इन नैनो पार्टिकल्स (सूक्ष्म कण) से केवल पानी ही रिस कर बाहर निकला, अन्य लवणयुक्त कण फंगस के ऊपर ही रह गए।

यह खतरा भूमण्डल का तापमान लगातार बढ़ते जाने से और बढ़ गया है। दूर संवेदी उपग्रहों के माध्यम से हुए नए अध्ययनों से पता चलता है कि पश्चिमी अंटार्कटिक में बिछी बर्फ की पट्टी बहुत तेजी से पिघल रही है। यह पानी समुद्री जल को बढ़ा रहा है। इस कारण एक ओर तो बंगलादेश और मार्शल द्वीपों पर डूब जाने का आसन्न खतरा मंडरा है, वहीं समुद्री रिहाइशी इलाकों का पीने योग्य पानी खारे पानी में विलय हो जाने का खतरा है। ऐसा संकट पैदा हो चुका है, जिसके लिए टैंकर लॉबी को दोषी माना जा रहा है। ये टैंकर गहराई से लाखों क्यूसेक मीठा पानी पम्पों से खींचकर भवन निर्माताओं और औद्योगिक इकाइयों को प्रदान कर रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि बोतलबंद पानी की मांग सालाना 15 प्रतिशत तक बढ़ जा रही है। बोतलबंद पानी उत्पादन के लिए भयंकर प्रतिस्पर्धा है।

आज ओजोनेशन तकनीक से बोतलबंद पेयजल का उत्पादन किया जा रहा है। कीटाणुशोधन और ऑक्सीजन संतृप्ति से उपयोगी गुणों को संरक्षित करने के लिए लंबे समय तक ऐसे पानी को स्टोर करना संभव हो जाता है। आंकड़ों के मुताबिक, बोतलबंद पानी के खरीदारों की संख्या हर साल बड़ी संख्या में बढ़ती जा रही है। ऐसा खराब पर्यावरणीय स्थिति और लोगों की बढ़ती स्वास्थ्य जागरूकता के कारण भी हो रहा है। इसके साथ ही, विकासशील शहरों में तेजी से इसका कराबोरा भी बढ़ा है।

विशेषज्ञों का कहना है, जमीन की भीतरी बनावट ऐसी है कि बारिश का पानी एक निर्धारित सीमा तक ही जमीन में तैरता रहता है, जो कि प्रसंस्कृत होकर नीचे पीने के योग्य अपने आप बनता रहता है लेकिन ज्यादा खुदाई के बाद उसमें खारा पानी आ जाता है, क्योंकि वह समुद्री जल स्तर से प्रभावित होने लगता है। देश के समुद्र तटवर्ती शहरों में बोतलबंद पानी का बिजनेस इसलिए भी तेजी से बढ़ता जा रहा है कि अन्य तरह के कारोबारों, उद्यमों, काम-धंधों की तुलना में पानी का उत्पादन और बिक्री का काम अपेक्षाकृत कम जोखिम भरा है। हमारे देश में तो सालाना यह बाजार 40-45 प्रतिशत बढ़ जा रहा है। उद्यमियों की एक बड़ी संख्या ऐसे स्थायी प्राकृतिक स्रोतों की खोज में जुटी है। इस बीच नीति आयोग ने इसी साल सितंबर में अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि लगातार घट रहा भूजल स्तर वर्ष 2030 तक देश में सबसे बड़े संकट के रूप में उभरने वाला है।

घटते भूजल स्तर को लेकर भूवैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की चिंता पर एनजीटी ने कड़े दिशा-निर्देश बनाने के लिए अल्टीमेटम दिया है, लेकिन ताज्जुब है कि वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से भूजल स्तर का संकट लगातार गहराता जा रहा है। इतने साल बीतने पर भी प्रशासन ने इसमें कुछ खास फुर्ती नहीं दिखाई है। पर्यावरणविद् विक्रांत तोंगड़ की एक याचिका पर फैसला सुनाते हुए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने कहा है कि अब इस मामले को केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के सचिव देखें। इस विफलता या लहतलाली के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार प्रशासन को माना जा रहा है। कहीं कोई नियम-कायदा नहीं है। बोतलबंद पानी की कंपनियां अंधाधुंध पानी का दोहन कर रही हैं और इसके एवज में किसी तरह का भुगतान नहीं कर रही हैं। इसके लिए भूजल के दिशा-निर्देशों को दुरुस्त करना जरूरी माना जा रहा है। इसीलिए प्रशासन से एनजीटी पूछ रहा है कि संवेदनशील क्षेत्रों में भूमिगत जल को निकालने की अनुमति क्यों दी जा रही है?

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