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कैसे होगी घाटी कश्मीरी पंडितों से आबाद?

भारत सरकार 2014 से विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं को फिर से घाटी में बसाने के लिये कह रही है लेकिन क्या उस दिशा में फैसलाकुन कोशिशें की जा रही हैं? क्या जम्मू-कश्मीर सरकार घाटी में पंडितों को बसाने के लिये संकल्पबद्ध दिखाई पड़ रही है?

कश्मीरी पंडित

कश्मीरी पंडित


विस्थापितों ने तीन बातों को लेकर घाटी छोड़ी थी। वे तीन बातें थीं- सुरक्षा, सम्मान और स्वतंत्रता। आज के परिप्रेक्ष्य में भी सवाल यह है कि क्या आज घाटी के समाज का मानस 90 के दशक में किये गए नरसंहार के खिलाफ अपनी मुट्ठियां भींचता है?

कश्मीर एक बहते हुए दरिया की मानिंद है जिसमें दर्द, मुश्किलात, कत्लोगारद और बर्बादी के तमाम पसमंजरों के अक्स आपस में किलोली करते दिखाई पड़ते हैं। ताज्जुब होता है कि कैसे रात भर में यहां सब कुछ बदल जाता है, आप रात में पुरसुकून माहौल में सोएं और सुबह जब नींद खुले तो सड़कों पर वीरानी हो। पुलिस आम जन को घर में रहने की हिदायत दे रही हो तो समझ में आता है कि कितना नाजुक है कश्मीर का अमन। ऐसे हालातों में भी घर वापसी का तसव्वुर सुकून बख्शने वाला होता है।...गर वह वापसी दशकों के विस्थापन के बाद हो रही हो तो रोमांच और कौतूहल का कई गुना बढ़ जाना लाजिमी है। भारत सरकार 2014 से विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं को फिर से घाटी में बसाने के लिये कह रही है लेकिन क्या उस दिशा में फैसलाकुन कोशिशें की जा रही हैं? क्या जम्मू-कश्मीर सरकार घाटी में पंडितों को बसाने के लिये संकल्पबद्ध दिखाई पड़ रही है?

दीगर है विस्थापितों ने तीन बातों को लेकर घाटी छोड़ी थी। वे तीन बातें थीं- सुरक्षा, सम्मान और स्वतंत्रता। आज के परिप्रेक्ष्य में भी सवाल यह है कि क्या आज घाटी के समाज का मानस 90 के दशक में किये गए नरसंहार के खिलाफ अपनी मुट्ठियां भींचता है? क्या अब वहां के समाज ने कश्मीरी औरतों की फरमाइश करने से तौबा कर ली है? क्या आज घाटी से भारत विरोध की आवाजें आनी बंद हो गई हैं? गर नहीं तो जहां भारत विरोध का आलम हो, फौज तक हमले से जूझ रही हो वहां सम्मानजनक वापसी और सुरक्षित पुनस्र्थापना कैसे सम्भव हो सकती है। घाटी छोडऩे के बाद भी वहां रह रहे कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया जाता रहा। उदाहरण के लिए मार्च, 2003 में नादीमार्ग गांव में 24 कश्मीरी पंडितों की जघन्य हत्या कर दी गई। इससे पांच साल पूर्व जनवरी 1998 में महिलाओं और बच्चों सहित 23 कश्मीरी पंडितों की बर्बर हत्या वनधामा गांव में कर दी गई थी। अत: अब जब उनकी वापसी की बात हो रही है तो सुरक्षा, सम्मान और स्वतंत्रता के साथ एक चौथा विषय भी जुड़ गया है, जो है- भविष्य को लेकर आशंका। इन चार मुद्दों का समाधान सिर्फ राजनीतिक निर्णयों से नहीं हो सकता। इस निर्णय प्रक्रिया में निर्वासित कश्मीरी पंडितों को शामिल किया जाना चाहिए और उनकी राय को अहमियत दी जानी चाहिए।

चर्चित लेखक और पत्रकार राहुल पंडिता कहते हैं कि सवाल न्यायिक प्रक्रिया का भी है। बिना किसी न्याय के कश्मीरी पंडितों से कैसे अपेक्षा रखी जा सकती है कि वे उन्हीं जगहों पर वापस जाएं, जहां से वे जान बचा कर भागे थे? मिसाल के तौर पर, टेलीकॉम इंजीनियर पी.के गंजू की हत्या। मार्च, 1990 में जब डाउनटाउन श्रीनगर (पुराने श्रीनगर) में दो आतंकी गंजू को मारने आये तो वह चावल के एक ड्रम में छिप गए थे। आतंकी हार कर वापस लौट रहे थे, लेकिन पड़ोसी महिला ने उन्हें बता दिया कि गंजू कहां हैं? आतंकियों ने वापस जाकर न सिर्फ उसी ड्रम में गंजू की हत्या की, बल्कि खून से सने चावल उनकी पत्नी को जबरन खिलाए। अब गंजू की विधवा से उसी गली-मोहल्ले में लौटने की बात कहना भला कितना न्यायोचित है? ऐसा सिर्फ एक मामला नहीं है। घाटी में 1990 के आसपास 700-800 से ज्यादा पंडित मारे गए थे, मगर एक भी मामला न्यायिक प्रक्रिया में अपने अंजाम तक नहीं पहुंच सका।

कश्मीर मामलों के जानकार सुशील पंडित कहते हैं कि कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन छेडऩे वाले कश्मीर की आजादी का सपना देख रहे हैं ऐसे में जबकि कश्मीर घाटी में राकेटों, मिसाइलों, मोर्टार आदि जैसे युद्ध में इस्तेमाल होने वाले हथियारों का खुल कर इस्तेमाल हो रहा है सेफ जोन क्या सचमुच सेफ होंगे। फिर भी कश्मीरी हिन्दू घर लौटने को लालायित हैं, लेकिन उनकी तीन शर्तें हैं। 'पहली शर्त तो यही है कि इस बात को स्वीकार किया जाए कि हमारा विस्थापन जातीय संहार के एक सुनियोजित अभियान के तहत हुआ। जो अपराध हिन्दू समुदाय पर किए गए, उसके लिए न्याय मिले। उन अपराधों के लिए अब तक कोई दोष या दोषी तय नहीं हुआ। कोई मुकदमा नहीं चला। न ही कोई दण्डित हुआ है। वहीं तीसरी शर्त यह है कि पनुन कश्मीर में भारतीय संविधान निर्बाध रूप से प्रभावी हो। धारा-370 से वह भू-भाग मुक्त हो। इन्हीं तीन मूल बातों के लिए कश्मीरी हिन्दुओं का संघर्ष चल रहा है। पनुन कश्मीर को केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में तैयार किया जा सकता है जहां वह कश्मीरी समुदाय सुख-चैन तथा अलगाववादी आतंकवादी संगठनों की पहुंच से दूर होकर रह सकेगा जहां मानवाधिकारों के उल्लंघन की कोई बात ही नहीं होगी और अल्पसंख्यक समुदाय आजादी महसूस करेगा।

यह केन्द्र शासित क्षेत्र, जो होगा कश्मीर घाटी का ही एक हिस्सा लेकिन उसमें सिर्फ और सिर्फ हिन्दू अल्पसंख्यक समुदाय के लोग ही रहेंगे। हालांकि भारत सरकार के लिए यह कदम बहुत ही कठिनाइयों से भरा होगा परन्तु एक कौम को बचाने की खातिर तथा जम्मू कश्मीर की समस्या को सुलझाने के लिए आज के परिप्रेक्ष्य में जरूरी है।

'जेहाद' और 'निजामे-मुस्तफा' के नाम पर बेघर किए गए लाखों कश्मीरी पंडितों के वापस लौटने के सारे रास्ते बेहद मुश्किल भरे हैं। घाटी में कश्मीरी पंडितों को वापस बसाने को लेकर अलगाववादी संगठनों की जैसी प्रतिक्रियाएं हुई हैं, वे बहुत स्वाभाविक हैं। यासीन मलिक जैसे अलगाववादी बयान दे रहे हैं कि यदि कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से 'टाउनशिप' बसाई गई तो यहां इस्रायल जैसी स्थितियां पैदा हो जाएंगी। यासीन मलिक कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की वापसी का स्वागत है लेकिन अगर उनके लिए अलग कॉलोनियां बनाई गईं तो मैं इसका विरोध करूंगा।

कुछ अलगाववादियों ने तो अलग होम लैंड की मांग को यहूदी होमलैंड, बनाने की संज्ञा दे डाली। कश्मीरी विस्थापितों के लिए संघर्षरत रविन्द्र कोत्रू कहते हैं कि जो लोग आज हमें शर्तें गिना रहे हैं कि हमें वहां कैसे रहना है, वो ही 25 साल पहले हमें निकालने वाले थे। शायद रहजन जब रहबरी का दावा करता है तो ऐसे ही बोलता है। कश्मीर पंडितों की कॉलोनी बनाने की बात पर उन्हें यहूदी शब्द से सम्बोधित करना कितना खतरनाक है। यह वहां पल रही घातक मानसिकता और विचारधारा दोनों का प्रगटीकरण है। कश्मीरी पंडित एक पीडि़त पक्ष हैं, जबकि इस्रायल के यहूदी एक ताकतवर समूह हैं। इतने अत्याचार और दमन के बावजूद पंडितों ने अब तक अपनी लड़ाई कानूनी और अहिंसक तरीके से ही लड़ी है। वे हथियार उठाने और कत्लेआम करने वाले लोग नहीं है।

यहां एक सवाल और है जो कश्मीरी पंडितोंं के वापस लौटने के संदर्भ में जरूरी है, कि घाटी में रह रहे लोग उनका स्वागत करने को तैयार हों। वहां अब उन्हें लौटने पर नये पड़ोसी मिलेंगे और मिलेगी बंदूक के साये में पल-बढ़ कर बड़ी हुई युवा पीढ़ी। उसके साथ एडजस्ट करने की अपनी समस्याएं होंगी जिनका समाधान भी विस्थापितों के घाटी में लौटने की स्थिति में खोजना होगा। अभी राष्ट्र-विरोधी प्रदर्शन, हिंसा और घृणा आये दिन देखने को मिलती है। पाक समर्थक और अलगाववादी ताकतें भारत से कश्मीर को अलग करने के तमाम हथकंडे अपनाए रहती हैं। नागरिकों की हत्या, सीमा पार से घुसपैठ, आम जनजीवन में हर रोज का व्यवधान, स्कूलों को बंद किया जाना जैसी तमाम अलगाववादी हरकतों के दरम्यान वहां रह रहे लोगों के लिए विस्थापन का दंश झेल कर लौटे कश्मीरी पंडितों का खुले दिल से स्वागत करना उतना आसान नहीं होगा। ऐसे हालातों में जम्मू से लेकर दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में अपनी तीन-तीन पीढिय़ों को टेण्ट में गुजारने का विकल्प कहीं ज्यादा सुरक्षित प्रतीत होता है।

खैर, कश्मीरी पंडितों को वहां फिर बसाने के लिए अलग कॉलोनी बसाने के साथ लम्बी अवधि की योजना चाहिए, और वह तब तक सफल नहीं होगी, जब तक कि वहां के हालात दुरुस्त नहीं किए जाएंगे। जीवटता, जिजीविषा और जद्दोजहद को तमाम सैलाबों को पार कर ही कश्मीरी पंडितों को अपना होमलैंड प्राप्त होने की सम्भावनाएं दिखायी पड़ रही हैं। आशा है सियासी प्रतिबद्धता कश्मीरी पंडितों के अहिंसक संघर्ष को सफल बना कर घाटी में बारूद की हार को जरूर सुनिश्चित करेंगी। फिलहाल तो बस यही सवाल है कि:

खून की लकीर पर लकीर पर लकीर, क्या इसी का नाम है कश्मीर?

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