ताकि अपराधियों को प्रमोशन से रोका जा सके
उत्तर प्रदेश में अपराध और राजनीति का गठजोड़ सालों से प्रदेश की कानून व्यवस्था पर भारी पड़ता आ रहा है। कई राजनीतिक और वर्चस्व की रंजिशें आज भी चली आ रही है। बृजेश सिंह, हरिशंकर तिवारी, अतीक अहमद, धनंजय सिंह, धर्मपाल उर्फ डी. पी. यादव, मुख्तार अंसारी, राजा भैया, इनके साथ ही प्रदेश के लगभग हर एक जिले में कोई न कोई बाहुबली अपनी धमक से अपनी सत्ता चला रहा है।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि सभी राजनीतिक दल 'अपराधियों और बाहुबलियों' भरे पड़े हैं। यदि कांग्रेस पार्टी पहली बार राजनीति में 'अपराधियों' का परिचय के लिए जिम्मेदार है, तो भाजपा ने उन्हें मंत्री बनाया और, सपा और बसपा ने इस परंपरा को मजबूत किया है। उत्तर प्रदेश में पहली बार अपराधी छवि वाले नेताओं को मंत्री बनाने का श्रेय भाजपा को जाता है।
दीगर है कि नई विधानसभा में 107 विधायकों यानी 26 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले (इसमें हत्या, हत्या की कोशिश जैसे जुर्म शामिल हैं) दर्ज हैं। ध्यान रहे कि इनमें 83 विधायक सत्ताधारी भाजपा के हैं।
उत्तर प्रदेश में अपराध और राजनीति का गठजोड़ सालों से प्रदेश की कानून व्यवस्था पर भारी पड़ता आ रहा है। कई राजनीतिक और वर्चस्व की रंजिशें आज भी चली आ रही है। बृजेश सिंह, हरिशंकर तिवारी, अतीक अहमद, धनंजय सिंह, धर्मपाल उर्फ डी. पी. यादव, मुख्तार अंसारी, राजा भैया, इनके साथ ही प्रदेश के लगभग हर एक जिले में कोई न कोई बाहुबली अपनी धमक से अपनी सत्ता चला रहा है, इनमें विधायक अखिलेश सिंह, ब्रजभूषण सिंह, पूर्व विधायक अजय प्रताप सिंह, लल्ला भैया, पूर्व बसपा विधायक रामसेवक सिंह, अरुण शंकर शुक्ला 'अन्ना महाराज, रामगोपाल मिश्रा, बादशाह सिंह, अमर मणि त्रिपाठी, पंडित सिंह आदि वो नाम हैं जो जिस जिले में रहते हैं वहां सिर्फ इनका ही नाम सरकार है भले ही प्रदेश में सरकार किसी की भी हो।
इन बाहुबलियों की दबंगई ऐसी है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री भी जब-तब इनके सामने नतमस्तक होते रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि सभी राजनीतिक दल 'अपराधियों और बाहुबलियों' भरे पड़े हैं। यदि कांग्रेस पार्टी पहली बार राजनीति में 'अपराधियों' का परिचय के लिए जिम्मेदार है, तो भाजपा ने उन्हें मंत्री बनाया और, सपा और बसपा ने इस परंपरा को मजबूत किया है। उत्तर प्रदेश में पहली बार अपराधी छवि वाले नेताओं को मंत्री बनाने का श्रेय भाजपा को जाता है। 1996-97 में कल्याण सिंह ने आपराधिक रिकॉर्ड वाले 12 विधायकों को मंत्री पद दिया। सन 2000 में जब भाजपा फिर से सत्ता में आई तो पार्टी के लगभग 70 विधायकों का आपराधिक रिकॉर्ड था। मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह मंत्रिमंडल में 18 मंत्री अपराधिक रिकॉर्ड वाले थे।
बसपा सुप्रीमो मायावती भी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को शामिल करने में कोई कसर नहीं रखी। 2009 में, उन्होंने माफिया से नेता बने मुख्तार अंसारी को गरीबों की मसीहा बताया। आश्चर्य देखिये कि 2007 में मायावती ने कानून और व्यवस्था मुद्दा पर विधानसभा चुनाव जीता था और 131 ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जिन पर हत्या, बलात्कार, डकैती, दंगे और अपहरण जैसे अपराधों के मामले में दर्ज थे। दस मंत्रियों का आपराधिक रिकॉर्ड था। समाजवादी पार्टी के बारे में तो यह नारा बना था कि जिसमें सपा का झंडा होगा, उसमें गुण्डा बैठा होगा। दीगर है कि नई विधानसभा में 107 विधायकों यानी 26 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले (इसमें हत्या, हत्या की कोशिश जैसे जुर्म शामिल हैं) दर्ज हैं। ध्यान रहे कि इनमें 83 विधायक सत्ताधारी भाजपा के हैं।
उपरोक्त तथ्यात्मक विवरणों के माध्यम से अब तक तो यह जाहिर हो चुका है कि सूबे को अपराध मुक्त बनाने की मंजिल अपराधियों को माननीय बनाने की राह पर से रोकने में ही है। ज्ञात हो कि राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिये ही सुप्रीम कोर्ट ने दो वर्ष की सजा वाला प्रावधान लागू किया है, जिस पर यदि ठीक से कार्य किया जाये तो इस फैसले से आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति में दूरगामी परिणाम देखने को मिल सकते हैं।
दीगर है कि क्षेत्र में वर्चस्व कायम होने के बाद अपराधी प्रवृत्ति के लोग राजनीति से अपनी जिंदगी की दूसरी पारी की शुरुआत करते हैं। इसके लिए वो किसी राजनीतिक दल का दामन थाम लेते हैं और फिर वहीं से शुरु होता है अपराध का राजनीतिकरण। राजनीति में आने के बाद इन अपराधियों का रुतबा और बढ़ जाता है। जिससे इनको छोटे-मोटे केस में पुलिस का डर भी खत्म हो जाता है। विदित हो कि कानून बन गया है कि दो साल तक की सजा पाये हुए अपराधी चुनाव नहीं लड़ सकते हैं।
ऐसे में अगर पुलिस अभियोजन निदेशालय, बड़े मुकदमों के साथ-साथ छोटे-मोटे केसों की मजबूत पैरवी करके, दो साल तक की सजा के प्रावधान वाले केसों में आरोपी को सजा दिलाकर उनके राजनीति के दरवाजे बंद करने की कोशिश करे तो आने वाले वक्त में सियासत अपराधियों की पनाहगाह नहीं बन पायेगी। अभियोजन किसी भी मुकदमें की अहम कड़ी होता है। निष्पक्ष अभियोजन से जहां एक ओर पीड़ित को न्याय मिलता है वहीं दूसरी ओर अपराधियों का मनोबल भी टूटता है। मुकदमों में सजा दिला कर ही पुलिस अपराधियों के प्रमोशन को रोक सकती है। ऐसा होने पर वर्तमान समय में अपराधी प्रवृत्ति के स्थापित सियासत दां भी राजनीति की आड़ में अपने गैरकानूनी काम को अंजाम देने से गुरेज करेंगे।
पुलिस महानिदेशक अभियोजन डॉ. सूर्य कुमार कहते हैं कि शासकीय अधिवक्ता, अभियोजक और पुलिस के नोडल अधिकारियों की संयुक्त रूप से जिम्मेदारी है कि अपराधी को जल्द से जल्द सजा दिलाई जाए। अभियोजन विभाग द्वारा 01 जुलाई 2015 से 16 जनवरी 2016 तक चलाये गये, एक सजा कराओ अभियान की उपलब्धि के बारे डॉ. सूर्य कुमार कहते हैं कि अभियोजन के जरिए सूबे में ज्यादातर अपराधियों को सजा कराई गई और साथ ही पेशेवर अपराधियों की जमानत निरस्त कराई गई है। बच्चों के यौन उत्पीडन के मामले में प्रदेश स्तर पर 426 अपराधियों को रेप के मामले में सजा कराई गई। पास्को एक्ट के तहत 34 लोगों को सजा कराई गई। इनमें आठ अपराधी आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं। प्रदेश भर में उन्होंने 63325 अपराधियों की निरस्त कराने का दावा किया है।
वैसे अभियोजन में बड़े सुधारों की जरूरत है। पहले तो निचली अदालतों में सुनवाई पूरी होने में ही सालों बीत जाते हैं, और अगर निचली अदालत सजा सुना भी दे, तो फैसले और अभियोजन के दस्तावेजों में खामी के आधार पर अक्सर ऊपरी अदालतें उन्हें निरस्त कर देती हैं। अभियोजन और न्याय की पूरी व्यवस्था में उभर रहे इस विरोधाभास के कई कारण गिनाये जा सकते हैं जैसे लंबित मामलों के बोझ के चलते अदालतों का कामकाज सुस्त होना, गवाह का बाद में मुकर जाना, अभियोजन का तर्क कमजोर होना, आरोपों की समुचित जांच नहीं हो पाना और भ्रष्टाचार के आरोपी का भ्रष्टाचार के सहारे बच निकलना आदि-आदि। लेकिन इनमें से किसी कारण से यदि कोई दोषी बच निकलने में कामयाब हो जाता है, या उसे उसके किये की मामूली सजा मिल पाती है, तो यह हमारी व्यवस्था पर कई प्रश्नचिह्न खड़े करता है।
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर क्यों जांच एजेंसियां आरोपों को समुचित तर्क और सबूत के आधार पर पुख्ता नहीं बना पातीं? देश का आपराधिक न्याय-तंत्र इस सिद्धांत पर काम करता है कि हर गुनाह सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध अपराध है, इसलिए जांच, अभियोजन और दंड की जिम्मेदारी राज्य की है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट सीबीआई जैसी जांच एजेंसी को भी पिंजरे में कैद तोता की संज्ञा से नवाजता है तो देश के आपराधिक न्याय-तंत्र के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये पुलिस और जांच एजेंसियों को अधिक स्वायत्तता तथा अभियोजन पक्ष को अधिक सक्षम बनाने की अत्यंत जरूरत है ताकि पिंजरे में बंद तोता बाज बन सके और अपराधियों को प्रमोशन पाने से रोका जा सके।
ये भी पढ़ें: कुलपतियों की गिरती साख