...मैं अयोध्या हूं: कई युगों को समेटे शहर की ऐतिहासिक दास्तां
हां मैं वही अयोध्या हूं जो समय-समय पर विदेशी आक्रांताओं के हमलों के बावजूद भी वजूद बचाने में कामयाब रही। इतिहास के पन्नों में मेरे संघर्षों की अनेक दास्तानें दर्ज हैं। मेरे पुत्रों ने मेरे लिए अपना बलिदान देने में कभी देर नहीं की।
'मेरी गोद में संस्कृतियां इठलाती हैं। तभी तो आज भी मेरे आंगन में हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम एवं जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं।'
मेरे ही दामन को छूकर बहने वाली सरयू के किनारे 14 प्रमुख घाट हैं। हर घाट की अपनी एक कहानी है। इनमें गुप्तद्वार घाट, कैकेयी घाट, कौशल्या घाट, पापमोचन घाट, लक्ष्मण घाट आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
मैं अयोध्या हूं। राजा राम की राजधानी अयोध्या। इक्ष्वाकु कुल के सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी अयोध्या। यहीं राम के पिता राजा दशरथ ने राज किया। यहीं श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ। यहीं बहती है सरयू। गंगा-जमुनी तहजीब का संगम, सरयू। वेद में मुझे ईश्वर का नगर बताया गया है, अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या और मेरी सम्पन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। हनुमानगढ़ी मेरी सरहदों की निगेहबान है तो सरयू मेरी पवित्रता की सौगन्ध। सदियों के तारीखी सफर में अन्धेरे और उजाले मेरे हमसफर हैं। मेरी गोद में संस्कृतियां इठलाती हैं। तभी तो आज भी मेरे आंगन में हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम एवं जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। हिन्दुओं के लिए रामलला, हनुमंतलाल और नागेश्वरनाथ जैसे तीर्थ मेरे ही आंगन में हैं। मुस्लिमों के पैगंबरों, जैनियों के तीर्थकरों और बौद्धों के धर्मगुरुओं का केन्द्र भी यहीं हैं।
हां मैं वही अयोध्या हूं जो समय-समय पर विदेशी आक्रांताओं के हमलों के बावजूद भी वजूद बचाने में कामयाब रही। इतिहास के पन्नों में मेरे संघर्षों की अनेक दास्तानें दर्ज हैं। मेरे पुत्रों ने मेरे लिए अपना बलिदान देने में कभी देर नहीं की। मेरी गलियों में ही बौद्ध और जैन पंथ फला-फूला। पांच जैन तीर्थंकर यहां जन्मे। इनके मन्दिर भी तो बने हैं यहां। सनातन संस्कृति के अन्य आयामों से लेकर जैन, बौद्ध, सिख और सूफी परम्परा तक की जड़ें व्याप्त हैं। जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव अयोध्या राजपरिवार के थे। कोई पांच हजार वर्ष बाद अयोध्या में प्रथम तीर्थंकर की विरासत जीवन्त है। रायगंज मोहल्ले में न केवल उनका भव्य मन्दिर और विशाल प्रतिमा स्थापित है बल्कि कटरा मुहल्ले में भी उनका मन्दिर है। अयोध्या अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ एवं अनंतनाथ के रूप में चार अन्य जैन तीर्थंकरों की भूमि के रूप में प्रतिष्ठित है।
बौद्ध परम्परा में भी अयोध्या का स्थान महत्वपूर्ण है। बौद्ध ग्रंथ दीपवंश से ज्ञात होता है कि बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद 45 वर्षों तक धर्मोपदेश किया और उनमें से 16 वर्षावास उन्होंने अयोध्या में किया। अनेक बौद्ध वन एवं विहार भी अयोध्या में होने का वर्णन मिलता है। बुद्ध के करीब पांच सौ वर्ष बाद बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अग्रणी आचार्य अश्वघोष अयोध्या के ही थे। सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री हेनत्सांग आये यहां। उन्होंने दुनिया भर को मेरे सुख-समृद्धि के बारे में बताया..उसके अनुसार यहां 20 बौद्ध मन्दिर थे तथा 3000 भिक्षु रहते थे। सिखों की चर्चा के बिना रामनगरी की संस्कृति में समाहित सतरंगी छटा का परिचय नहीं पूरा होता।
प्रथम, नवम् एवं दशम् सिख गुरु समय-समय पर अयोध्या आये और नगरी के प्रति आस्था निवेदित की। गुरुद्वारा ब्रह्मकुंड एवं गुरुद्वारा गोविंद धाम के रूप में सिख परम्परा की विरासत अभी भी जीवन्त है। मैं इस्लाम के लिए भी अकीदत का मरकज हूं। मणिपर्वत के समीप स्थित शीश पैगम्बर की मजार, स्वर्गद्वार स्थित सैय्यद इब्राहिम शाह की मजार, शास्त्री नगर स्थित नौगजी पीर की मजार से इस रुझान की झलक मिलती है। इस्लाम की परम्परा में अयोध्या को मदीनतुल अजोधिया के रूप में भी संबोधित किए जाने का जिक्र मिलता है।
मेरे ही दामन को छूकर बहने वाली सरयू के किनारे 14 प्रमुख घाट हैं। हर घाट की अपनी एक कहानी है। इनमें गुप्तद्वार घाट, कैकेयी घाट, कौशल्या घाट, पापमोचन घाट, लक्ष्मण घाट आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। मन्दिरों में 'कनक भवन' सबसे सुन्दर है। लोकमान्यता के अनुसार कैकेयी ने इसे सीता को मुंह दिखाई में दिया था। ऊंचे टीले पर हनुमानगढ़ी आकर्षक का केन्द्र है। सरयू के निकट नागेश्वर का मन्दिर शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में गिना जाता है। 'तुलसी चौरा' वह स्थान है जहां बैठ कर तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना आरम्भ की थी। प्रह्लाद घाट के पास गुरु नानक भी आकर ठहरे थे।
मैं वही अयोध्या हूं जिसकी गोद में राम खेले थे, जिसकी जमीन पर राम का जीवन खिला था, जिस जमीन पर राम का राज्य था। जहां मंदिर हनुमान का भी हो तो राम की मूरत उसकी शोभा बढ़ाती है। जिसके बारे में राम ने कहा था- 'अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।' यानी हे लक्ष्मण, होगी लंका सोने की लेकिन यह जो सरयू किनारे मेरी जन्मभूमि है, जहां मैं पैदा हुआ, वह मेरी मातृभूमि मेरे लिए स्वर्ग से भी बढ़ कर है। वाल्मीकि रामायण में दर्ज इस इतिहास को तुलसी दास ने अवधी में अलग तेवर दिए।
जद्यपि सब बैकुण्ठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना। अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।। जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।
विडम्बना देखिये कि उसी अयोध्यापुरी में रामलला अपनी जन्मभूमि पर तिरपाल में रह रहे हैं। मरहूम हाशिम अंसारी ने जब कहा कि 'तिरपाल में रामलला अब बर्दाश्त नहीं हैं। अयोध्या पर हो चुकी जितनी सियासत होनी थी, अब तो बस यही चाहता हूं कि रामलला जल्द से जल्द आजाद हों। मुझे ऐसे लगा जैसे राम के रहीम, कृष्ण के रसखान फिर से आवाज देने लगे हैं। दरअसल न मैं हिन्दू हूं, न मैं मुस्लिम हूं, रंजिशों की चौखट पर रोती, पुत्र रक्त से नहलायी गयी मां हूं, प्रेम धर्म बतलाने वाली जीवन की घोर निराशा हूं।
हां मैं अयोध्या हूं...मेरी गलियां तंग हैं, गन्दगी चारों तरफ फैली हुई है, सरयू तक मैली हो गई है, हरियाली गायब हो रही है। हां मैं अयोध्या हूं, मैं शायद बूढ़ी हो गई हूं...तभी तो लोग मेरी कद्र नहीं करते, राम और रहमान के नाम पर लड़ते हैं। जमाना बदल गया है, पर शायद लोग नहीं बदले। एक दिन सीता को दोषी कह देश से निकला मैं उस दिन भी रोई थी, मैं आज भी रोती हूं पर न तब किसी मे मेरी सुनी थी न आज कोई मेरी सुन रहा है। आरजू हैं कि काश, कोई मेरी भी आवाज सुने, मेरे दिल के जख्मों को मिटा दे। पेड़ -पौधों से मुझको आबाद कर दे। मेरी सरयू को फिर से निर्मल कर दे। हर मन्दिर और मस्जिद को फिर से पाक बना दे...मुझे उस राम राज्य के दिन लौटा दे।
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