साहित्य के नाम पर होने वाले फाइव स्टार तमाशे
लिट्रेचर फेस्टिवल्स...
लिटरेरी फेस्टिवल के नाम पर अब आए दिन तमाशे हो रहे हैं। इसमें बड़े घराने धन लगा रहे हैं। इन तमाशों में नजर पर्यटकों से होने वाली आमदनी पर रहती है। इसमें पर्यटन उद्योग, होटल और प्रकाशन उद्यमियों की साझेदारी होती है। उनकी प्रतिसंस्कृति, साहित्य-संस्कृति की परिभाषा बिगाड़ने में जुटी है। इससे अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ रहा है। इन साझेदारों ने भारत को अंग्रेजी का उपनिवेश मान लिया है। इससे उर्दू, पंजाबी, तमिल, सिंधी, कन्नड़, तेलगु, गुजराती, मराठी, राजस्थानी आदि 24 भाषाओं, बोलियों को आघात पहुंच रहा है। ऐसे तमाशों के चाल-चलन पर समाज का बड़ा बौद्धिक वर्ग आगाह करने लगा है कि गंभीर कवि-साहित्यकारों को ऐसे आयोजनों के प्रतिरोध में खुलकर पहलकदमी करनी चाहिए वरना साहित्य में गंभीर विचार-विमर्श की बची-खुची गुंजाइश भी खत्म हो जाएगी...
जिस तरह फिल्मों में सूखा पीड़ित किसानों के गांव में माधुरी दीक्षित का डांस कराया जाता है, उसी तरह लिटरेचर फेस्टिवल में अब साहित्य के नाम पर प्रकाशकों के उत्थान-पतन का रोना रोते हुए गायन-वादन-डांस की सतरंगी महफिलें सजाई जाती हैं। ऐसे ही फूहड़ परिदृश्य ने श्रेष्ठ कवि-साहित्यकारों को जयपुर में 'समानांतर साहित्य उत्सव' जैसे आयोजनों के लिए विवश किया है।
पिछले कुछ वर्षों से साहित्य में बाजार ने नए तरीके से सेंध लगानी शुरू की है। बाजार जहां सेंध लगाए, कुछ भी खरा नहीं रह जाता है। अब तो प्रायः कभी यहां, कभी लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित होने लगे हैं। साहित्यिक उत्सवों का यह कॉन्सेप्ट किसी भी श्रेष्ठ कवि-साहित्यकारों के गले नहीं उतर रहा है। दरअसल, जब बड़े और स्थापित कवि-साहित्यकारों ने इस बाजारवादी तरीके को सिरे से नकारना शुरू किया तो फेस्टिवल करने वालों ने चमक-दमक के भिन्न-भिन्न तरीके खोज निकाले हैं। ऐसे फेस्टिवल में सबसे कारगर माध्यम बन रहे हैं वे फिल्मी किस्म के कवि, जिन्हें चमक-दमक की कुछ ज्यादा ही तलब रहती है। उन्हें साहित्य में भी चमक-दमक की भूख सताती रहती है, खासकर आत्मप्रचार का बेशर्म लहजा।
जिस तरह फिल्मों में सूखा पीड़ित किसानों के गांव में माधुरी दीक्षित का डांस कराया जाता है, उसी तरह लिटरेचर फेस्टिवल में अब साहित्य के नाम पर प्रकाशकों के उत्थान-पतन का रोना रोते हुए गायन-वादन-डांस की सतरंगी महफिलें सजाई जाती हैं। ऐसे ही फूहड़ परिदृश्य ने श्रेष्ठ कवि-साहित्यकारों को जयपुर में 'समानांतर साहित्य उत्सव' जैसे आयोजनों के लिए विवश किया है। वरिष्ठ साहित्यकार ऋतुराज कहते हैं कि बाजारीकरण एक अश्लील चीज है। साहित्य कोई वस्तु (जिंस) नहीं है किंतु मनोरंजन, विज्ञापन, धंधई सोच और शो बिजनेस के जरिये इसे नीचे लाने का प्रयास किया जा रहा है। मीडिया भी इसका एक अंग है। देश में भूमंडलीकरण के बाद आवारा पूंजी आई, जिसने 'पोस्ट ट्रुथ' की अवधारणा दी। इससे राजनीति, समाज, निजी जीवन में असत्याग्रह का प्रवेश हुआ।
ऐसे समय में चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देखना मुश्किल हो रहा है। हमारे सारे जन माध्यम बाजार की गिरफ्त में आ गए हैं। साहित्य के लिए स्थान सिकुड़ता गया। हमारा संघर्ष यह है कि साहित्य की नैतिकता और मूल बोध को कैसे बचाएं। मूलतः लेखक अल्पसंख्यक है क्योंकि उसकी उपेक्षा की जा रही है। इसके पाठक और श्रोता सीमित होते जा रहे हैं। मीडिया का साथ मिला तो हम इस स्थिति को बदलने में अवश्य कामयाब हो सकते हैं। साहित्य में ऐसे अपसंस्कृति के उत्सवों के प्रतिरोध के द्वारा ही सच्चे साहित्य को प्रतिष्ठित किया जा सकता है।
पिछले कई वर्षों से साहित्य के नाम पर तमाशे हो रहे हैं। इसमें कई बड़े घराने धन लगा रहे हैं। तमाशे के दौरान उनकी नजर पर्यटकों से होने वाली आमदनी पर रहती है। इसमें पर्यटन उद्योग, होटल और प्रकाशन उद्यमियों की साझेदारी होती है। उनकी प्रतिसंस्कृति, साहित्य-संस्कृति की परिभाषा बिगाड़ने में जुटी है। उनकी कोशिशों से अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। इस देसी-विदेशी साझेदारों ने भारत को अंग्रेजी का जैसे एक उपनिवेश मान लिया है। इससे हमारे देश की हिंदी के अलावा उर्दू, पंजाबी, तमिल, सिंधी, कन्नड़, तेलगु, गुजराती, मराठी, राजस्थानी आदि 24 भाषाओं, बोलियों को आघात पहुंच रहा है।
मुकेश भारद्वाज बताते हैं कि किस तरह लिटरेचर फेस्टिवल के नाम पर रंग-विरंगे तमाशों की दुनिया गुलजार हो रही है और उसके पीछे चतुरजनों का असली मकसद रहता है। 'ग्रेटेस्ट लिटरेरी शो ऑन द अर्थ यानी सदी का महानतम साहित्यिक तमाशा (शो यानी हिंदी में कार्यक्रम, प्रदर्शन और लीला भी। फिलवक्त तमाशा का भाव ही सही लग रहा)। जयपुर साहित्योत्सव ने अपना नारा यही बना रखा है। साल 2006 में शोभा डे सहित 18 लेखकों के साथ शुरू हुए इस साहित्योत्सव ने जिसमें 100 लोगों ने शिरकत की थी आज खुद ही धरती का सबसे महानतम होने का तमगा भी लगा लिया है।
अमीश त्रिपाठी से लेकर चेतन भगत तक को महान साहित्यकारों की कतार में बिठाने वाले इस महोत्सव के लिए ही शायद सोहा अली खान ने किताब लिख डाली और उनकी किताब के लोकार्पण के साथ ही उन्हें जयपुर जलसे का न्योता मिल गया था। जयपुर के मंच पर सोहा और साहित्य का मेल ही इसकी दशा और दिशा की कहानी कह रहा है। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की आत्मकथा से बेहतर साहित्यिक परिघटना और क्या हो सकती है। ऐसे फेस्टिवल में कलम के साथ विज्ञापनदाताओं की दीवार पर ‘डर्टी पिक्चर’ भी टांग दी जाती हैं, जिसका मकसद मनोरंजन, मनोरंजन और सिर्फ मनोरंजन होता है।
मनोरंजन, अर्थ और विज्ञापन जगत के चेहरों के साथ एक-दो कलम वाले भी बुला लिए जाते हैं नोबेल, पुलित्जर और साहित्य अकादेमी पुरस्कारों की चमक के साथ। और आपकी कलम से ज्यादा आपके चेहरे की कीमत होनी चाहिए ‘शो’ के लिए। लिखने वाले लाखों हैं तो मंच किसे दिया जाए। मंच पर वही चेहरे आएंगे जिन्हें मुख्य मीडिया के कैमरे कैद करें। और, जब आपका प्रायोजक ही एक टीवी चैनल है तो फिर क्या कहने। टीवी वाले जब खबरें भी अपना मुनाफा देख कर चलाते हैं तो फिर उनके प्रायोजित मंच पर किन कलमकारों को जगह मिलेगी इसके विश्लेषण की जरूरत नहीं।
जब हामिद करजई जैसा राजनेता, मोहम्मद यूनुस जैसा अर्थशास्त्री, विशाल भारद्वाज जैसा फिल्मकार, रोहन मूर्ति जैसा प्रकाशक, सोनल मानसिंह और जाकिर हुसैन जैसे कलाकार, पद्मश्री कला समीक्षक बीएन गोस्वामी, बायोकेमिस्ट और एनजीओ मालिक प्रणय लाल, छायाकार अबीर वाई हाकू को ही मंच देना था तो आपने अपने ब्रांड के आगे साहित्य क्यों जोड़ा। हामिद करजई जैसे वैश्विक पहुंच वाले राजनेताओं को मंच मिलने की कोई दिक्कत है क्या? आप करजई और अनुराग कश्यप को इसलिए बुलाते हैं क्योंकि ये जब बोलते हैं तो खबर में होते हैं। दलाई लामा जो बहुत खास जगहों के ही आमंत्रण स्वीकारते हैं और जिन्हें बुलाने की हैसियत आम आयोजक नहीं रखते वे आपके मंच पर आसीन होते हैं तो आपकी ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है।
लेकिन यह भी तय है कि धर्मगुरु दलाई लामा साहित्यकारों को कोई ताकत नहीं दे पाएंगे। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का साहित्य जगत में बड़ा योगदान है या राजनीतिक जगत में, यह समझ से परे तो नहीं ही है। ऐसे फेस्टिवल को जिस साहित्य का सबसे बड़ा कार्यक्रम बताया जाता है, उस तमाशे में सबसे हाशिए पर साहित्य और साहित्यकार ही रखे जाते हैं। साहित्य की साख का भोंडे तरीके से इस्तेमाल किया जाता है। विज्ञापनदाता बड़ी कंपनियों के लिए तो साहित्य चैरिटी की तरह है ही।
विज्ञापन, बाजार और राजनीति के चमकते चेहरों के बीच एक-दो साहित्यकारों के नाम पर पैसे खर्च कर दान-पुण्य और गंगा नहान का भाव महसूसा ही जाता है। बाकी तो उन्हीं चमचमाते चेहरों को जगह देनी होती है जो बिकाऊ होते हैं। पत्रकारिता और साहित्य एक-दूसरे से कितने जुड़े हैं, यह तो अलग बहस है लेकिन इन महोत्सवों में जगह पाने वालों में पत्रकार भी खूब हैं। अब अगर हम भारतीय पत्रकारों की सूची देखें तो इनमें वही चेहरे हैं जो आज के दौर में अपनी खबरनवीसी नहीं प्रस्तुतीकरण के लिए जाने जाते हैं।
इन मंचों पर हिंदी वालों में एक को छोड़ कर शायद ही किसी को जगह मिलती है। भक्त हो या अभक्त श्रेणी का, इन मंचों पर जगह पाने वाले पत्रकारों की पहचान खबरों को खोजने की नहीं खोजी खबरों पर भाषा और प्रस्तुति की कशीदाकारी और नक्काशी से है। जयपुर से निकले साहित्योत्सवों ने पत्रकारिता के मानक को प्रस्तुति में बदल दिया है। जयपुर साहित्योत्सव से चले चलन पर चिंता में दो समांतर भी अपनी जनपक्षधरता के साथ खड़े हुए हैं। लेकिन जब कोई समांतर खड़ा होता है वह किसी अन्य के खिलाफ ही खड़ा हो सकता है। एक ही शहर में तीन जलसे और दो समांतर के नाम पर। खतरा यह है कि जब आप समांतर होते हैं तो मौलिक नहीं होते हैं। मौलिक जो भी है, जैसा भी है उसके खिलाफ समांतर है तो आपके पाठ के उद्धरणों में मौलिक तो आएगा ही।'
बाजारवादी लिटरेरी फेस्टिवल की आड़ में राजनीतिक सर-संधान भी बड़े मजे से किए जाते हैं। इन भव्य सजावटों वाले आयोजनों के लिए पैसा कहां से आता है, क्या पैसा किसी ऐसी जगह से भी लाना संभव होता है, जहां राजनीति की पहुंच न हो, कत्तई नहीं। यह भी सच है कि सियासत और साहित्य की कभी जमी नहीं। सियासत हुकूमत करना नहीं भूलता और साहित्य हुकूमत की हजामत करने में कसर नहीं छोड़ता! पॉलिटिक्स मतलब केवल नेतागिरी नहीं बल्कि सक्रिय राजनीति से हटकर समाज के बारे में सोचना व काम करना भी राजनीति ही है।
साहित्य सदियों से जन प्रिय रहा। इसका प्रत्यक्ष कारण है- जनता के बीच व जनता के लिए कवियों का जीना। साहित्य का मकसद लोगों के दिलों में बसना, उनके दर्द-खामोशी को लब्ज देना। साथ ही सामाजिक कुरीतियों की खिलाफत करना। हाँ, राजा-महाराजाओं के समय दरबारी कवि हुए पर जैसे-जैसे हम सामाजवाद- लोकतंत्र की ओर बढ़े साहित्यकार की आवाज़ बुलंद हो गई। इसे हम न केवल अपने देश में बल्कि दूसरे देश में भी देखते हैं। हमारे कवि आज भी कविता के माध्यम से विरोध जताते हैं। आए दिन अलग-अलग शहरों में होने वाले लिटरेचर फेस्टिवल साहित्य को एक तमाशे में, एक पॉप शो में बदलने में लगे हुए हैं। वे न सिर्फ साहित्य का बाजारीकरण कर रहे हैं बल्कि उसका अभिजातीकरण भी कर रहे हैं।
संजय कुंदन का कहना है कि 'साहित्य में गंभीर विचार-विमर्श और आम आदमी के संघर्षों के साथ जुड़ाव की जो थोड़ी बहुत गुंजाइश बची हुई थी, लिटरेचर फेस्टिवल उसे भी खत्म करने पर आमादा हैं। आज से 11 साल पहले जब जयपुर से ऐसे फेस्टिवलों की शुरुआत हुई थी, तो लगा था कि इसके माध्यम से एक ऐसा मंच उपलब्ध होगा, जहां दुनिया भर के साहित्यिक-चिंतक-बुद्धिजीवी एक दूसरे से अपने अनुभव और विचार साझा करेंगे और उनके जरिए देश के तमाम साहित्यप्रेमियों को ग्लोबल लेखन की एक झलक भी मिल जाएगी। इससे हिंदी और भारतीय भाषाओं के लेखकों का मानसिक दायरा बढ़ेगा और अंतत: पाठकीयता में वृद्धि होगी। यह सामान्य लोगों को साहित्य की तरफ खींचने का एक माध्यम बनेगा।
शुरुआती कुछ वर्षों में यह प्रक्रिया चली भी, मगर जल्दी ही इनका असली चरित्र सामने आ गया। फेस्टिवल को लोकप्रिय बनाने के लिए फिल्मी हस्तियों और राजनेताओं को बुलाया जाने लगा। दरअसल, इन्हें लिटरेचर फेस्टिवल कहना ही बेकार है। इसके पीछे आयोजकों की मंशा समाज के ताकतवर लोगों के बीच जगह पक्की करने और एक सोशलाइट के रूप में अपनी छवि बनाने की है। उन्होंने एक तरह से उदारता दिखाते हुए साहित्यकारों को भी इसमें शामिल कर लिया है। इस बात के कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं कि इन फेस्टिवलों के बाद से हिंदी किताबों की बिक्री बढ़ गई है। बेहतर होगा कि हिंदी के लेखक इनसे दूरी बनाएं।'
मुंशी प्रेमचंद ने कभी कहा था कि 'साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उस का दर्जा इतना मत गिराइए।' शायद साहित्य के सरोकारों से मुक्त होने और 'फ़ेस्टिवल' में तब्दील होने के अनिवार्य दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। पत्रकार एवं लेखक दयानंद पांडेय का कहना है कि सचमुच साहित्य के नाम पर यह दृश्य दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक है। चमक-दमक वाले ऐसे आयोजन जैसे लफ़्फ़ाज़ों की जागीर बनते जा रहे हैं।
ऐसे आयोजनों की अखबारों और फ़ेसबुक पर बदली-बदली बयार की फ़ोटो देखकर साहित्य का उद्धार तो होने से रहा। यह तो साहित्य में बाजार की अवसरवादिता की पराकाष्ठा है। कहीं टाटा तो कही रिलायंस के पैसे से ये कार्पोरेटी लिटरेरी फेस्टिवल संपन्न हो रहे हैं। अब यहाँ बताने की क्या जरूरत की यह साहित्य का आखेटीकरण है या साहित्यकारों के वैचारिकी की दुम और उसके कंपन का मापीकरण है। यह फेस्टिवल साहित्य का कारपोरेटीकरण है जिसका मकसद साहित्य को उपभोक्तावादी माल में बदलना है, उसे सामाजिक सरोकार व उसकी मूल चिंता से दूर ले जाना है लेकिन विडम्बना यह भी है कि सब चुप हैं। ऐसे में मुक्तिबोध याद आते हैं-
सब चुप,
साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्चिन्तक,
शिल्पकार, नर्तक चुप हैं,
उनके खयाल से यह सब गप है
मात्र किवदन्ति।
रक्तपाई वर्ग से नाभिनालबद्ध
ये सब लोग नपुंसक-भोग-शिरा-जालों में उलझे।
प्रश्न की उथली-सी पहचान
राह से अनजान वाक् रुदन्ती।
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