बंधन बैंक स्थापित करने वाले अरबपति चंद्र शेखर घोष कभी घर चलाने के लिए बेचा करते थे दूध
घर चलाने के लिए जो बेचा करते थे दूध, आज वो हैं बंधन बैंक के सीईओ और मैनेजिंग डायरेक्टर...
खुद के जीवन में तरक्की का कोई बना-बनाया फॉर्मूला नहीं होता। व्यक्तिगत जीवन में हमेशा से सफलता कठिन परिस्थितियों की कायल रही है। बंधन बैंक के सीईओ एवं मैनेजिंग डॉयरेक्टर चंद्रशेखर घोष, मामूली से मिठाई के दुकानदार के सबसे बड़े बेटे के रूप में बचपन के दिनो में दूध बेचा करते थे, आश्रम के खाने से पेट भरते थे, ट्यूशन से पढ़ाई का खर्च निकालते थे, अपने सोच, आइडिया और मेहनत के बूते प.बंगाल की महिलाओं को दो-दो लाख रुपए लोन देकर आज देश के 21 प्रतिष्ठित बैंकों से आगे निकल जाने वाले 'बंधन बैंक' के अरबपति बन चुके हैं। उनका मानना है कि अपनी मेहनत और हुनर से कोई भी दुनिया का सबसे बड़ा अमीर भी बन सकता है। अपनी पचास रुपए की पहली कमाई से उन्होंने अपने पापा के लिए शर्ट खरीदी थी।
आज वह बैंकिंग सेक्टर का एक बड़ा नाम बन चुके हैं। कोलकाता में उनकी 'ड्रीम ओपनिंग' अब बखूबी परवान चढ़ रही है। ग्रेटर त्रिपुरा के लोगों को सन् 1960 में भला क्या पता रहा होगा कि एक गरीब परिवार का छात्र दूध बेचते-बेचते एक दिन महिला सशक्तीकरण का मसीहा बन जाएगा।
सकारात्मक सोच और लगन से जीवन में कब भविष्य की सुनहली किरणें फूट पड़ें, ये विश्वास फूटी कौड़ी के मोहताज व्यक्ति को भी चंद्रशेखर घोष की तरह अरबपति बना सकता है। लोगों के जीवन में झांक कर देखिए, तो दुनिया में ऐसे तमाम लोग मिल जाएंगे, जो खुशी-खुशी पापड़ बेलते हुए फर्श से अर्श पर पहुंच चुके हैं। माना कि सफलता कभी आसानी से नहीं मिलती है, जरूरत है तो बस किसी बड़े कैनवास पर निगाहें टिकाए हुए जीवन में रचनात्मक और मेहनती होने की। बंधन बैंक के सीईओ और मैनेजिंग डायरेक्टर चंद्रशेखर घोष को गरीबी ने न सिर्फ ज़िंदगी की कई महत्वपूर्ण बारिकियां सिखाईं बल्कि एक ऐसा बिजनेस आइडिया दिया, जिसने उनके साथ लाखों लोगों की जिंदगी ही बदल डाली।
वह आइडिया था माइक्रोफाइनेंस बैंक बंधन बनाने का। चंद्रशेखर का जन्म सन् 1960 में त्रिपुरा के एक गांव में एक अत्यंत विपन्न परिवार में हुआ। उन्होंने अपने जीवन का लंबा वक्त बांग्लादेश और पूर्वी भारत के गरीबों के बीच व्यतीत किया। वह अपने छह भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं। उनके पिता उन दिनो मामूली सी मिठाई की दुकान चलाते थे। उससे बमुश्किल परिवार का खर्चा चल पाता था। जब चंद्रशेखर घर का काम-काज संभालने की उम्र में पहुंचे, दूध बेचने के साथ ही वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगे। हां, इस दौरान उन्होंने लाख किल्लत के बावजूद कत्तई अपनी एजुकेशन नहीं छोड़ी।
वह 1978 का साल था, जब उन्होंने बांग्लादेश के ढाका विश्वविद्यालय से सांख्यिकी में एमए किया उसी दौरान बांग्लादेश में महिला सशक्तीकरण के लिए काम कर रहे एक संगठन BRAC में काम करने लगे। उसी दौरान उन्होंने देखा कि गांवों की कुछ-एक महिलाएं किस तरह मामूली आर्थिक सहयोग से अपना जीवन स्तर बदल रही हैं। उस वक्त उनके दिमाग में एक आइडिया आया कि ऐसी महिलाओं को आर्थिक मदद देकर छोटे-छोटे उद्योगों का जाल बिछाया जा सकता है, जिससे देश की तरक्की भी हो सकती है। उनके मन में इस तरह एक बैंक ने आकार लेना शुरू किया, जिसका नाम पड़ा 'बंधन बैंक'। खूब सोच-विचार के बाद सन् 2001 में अपने रिश्तेदारों से धन जुटा कर उन्होंने पश्चिम बंगाल से बंधन माइक्रोफाइसेंस बैंक की शुरुआत कर दी।
इस तरह शुरू में उनकी 'बंधन-कोनागर' कंपनी ने पहला आकार लिया। वह अपनी कंपनी से गरीब महिलाओं को अधिकतम दो लाख रुपये तक लोन देने लगे। देखते ही देखते बंधन बैंक लाखों महिलाओं के जीवन में बड़े बदलाव का सबब बन गया। उन्होंने सन् 2009 में बंधन को नॉन-बैंकिंग फाइनैंस कंपनी के रूप में रजिस्टर करा दिया। बंधन बैंक की इस सफलता को देखते हुए उन्हें रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से सन् 2014 में बैंकिंग लाइसेंस भी मिल गया। इसी मार्च 2018 में तो बंधन बैंक के स्टॉक को शेयर बाजार ने भी हाथों-हाथ ले लिया। एनएसई पर 375 रुपये के इशू प्राइस पर 33 प्रतिशत प्रीमियम के साथ बंधन बैंक 499 रुपये पर लिस्टेड हुआ। कुल 4,473 करोड़ रुपये के आईपीओ को 14.63 बार सब्सक्राइब किया गया। बाजार में लिस्ट होने के बाद बैंक का मार्केट कैप 58,837 करोड़ रुपये हो गया। इसके साथ ही बैंक अपने निवेशकों को 33 फीसदी तक का मुनाफा भी देने लगा। भारत में आज इस बैंक के कुल 430 एटीएम के साथ ही लगभग 887 शाखाएं खुल चुकी हैं। इसके आईपीओ ने शेयर बाजार में धूम मचा रखी है। पूर्वोत्तर भारत में इस बैंक के 23 लाख ग्राहक हो चुके हैं।
इस तरह चंद्रशेखर घोष को एक सफल बिजनेसमैन बनने की पहली सीख घर की गरीबी से मिली। आज वह बैंकिंग सेक्टर का एक बड़ा नाम बन चुके हैं। कोलकाता में उनकी 'ड्रीम ओपनिंग' अब बखूबी परवान चढ़ रही है। ग्रेटर त्रिपुरा के लोगों को सन् 1960 में भला क्या पता रहा होगा कि एक गरीब परिवार का छात्र दूध बेचते-बेचते एक दिन महिला सशक्तीकरण का मसीहा बन जाएगा। चंद्रशेखर जिस वक्त 'ब्रैक' में काम कर रहे थे, उनकी आंखों के सामने गरीब महिलाओं का जिंदगी नर्क बनी हुई थी। एक-एक पैसे के लिए मोहताज उनके घरों में सबसे ज्यादा उपेक्षा और यातना उन्हें अपने पतियों से ही झेलनी पड़ रही थीं।
यह सब देखते, सहते हुए चंद्रशेखर कई साल तक शुरुआत में पश्चिम बंगाल की 'गांव कल्याण सोसाइटी' में चुपचाप काम करते और पूरे हालात को रीड करते रहे। घोष बताते हैं कि उन्होंने अपनी बैंकिंग कंपनी का नाम भी 'बंधन' काफी सोच-विचार कर रखा गया। बंधन का मतलब होता है साथ। उनके मिशन का यही मूल मंत्र रहा - समाज को एकसाथ, एकजुट, एक दिशा में सफलता की ओर ले जाना। जब वह छोटे-छोटे गांवों को बच्चों को पढ़ाते हुए अपना बिजनेस आइडिया कर्ज चाहने वाली महिलाओं के बीच शेयर किया करते थे, लोग उनको संदेह की दृष्टि से देखा करते थे। उन्हे क्या पता रहा होगा कि 'बंधन बैंक' उनके घरों की रोशनी बनने वाला है। महिलाओं को दिए जाने वाले छोटे-छोटे लोन विकास की नई इबारत लिखने जा रहे हैं। चंद्रशेखर घोष का मानना है कि उनके अडिग इरादों ने ही आज एक झटके में देश के 21 बड़े बैंकों को पीछे छोड़ जाने के लिए विवश किया है। दिल में हौसला और जुनून हो तो कुछ भी किया जा सकता है। ये सिर्फ कहने की बात नहीं है कि अटल इरादा, सही सोच और आइडिया से दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति भी बना जा सकता है।
आज सीईओ एवं डॉयटरेक्टर चंद्रशेखर घोष के बंधन बैंक का आईपीओ जारी होने के बाद से उसकी भारत के बैंकिंग सेक्टर में शानदार लिस्टिंग हो चुकी है। उसकी मार्केट वैल्यू कुल 60 हजार करोड़ रूपए तक पहुंच गई है, जो एसबीआई को छोड़कर अन्य सभी बैंकों से ऊपर हो गई है। इस धमाकेदार कामयाबी ने पूरे बैंकिंग सेक्टर को हैरत में डाल दिया है। आज चंद्रशेखर जब कभी खयालों में अपने बचपन पर नजर डालते हैं, सोचकर उनके मुंह से बरबस उफ् निकल जाती है कि उन दिनो किस तरह उनका नौ सदस्यों वाला परिवार घिसट-घिसट कर गुजारा कर रहा होता था। वह उन कदम-कदम पर आर्थिक तंगी से घिरे रहा करते थे। जैसे-तैसे अपने पिता की दुकान में हाथ बंटाते हुए वह बड़े हुए।
देश आजाद होने के दिनों में उनका परिवार ढाका से अगरतला (त्रिपुरा) आ बसा था। ढाका में पढ़ाई के दिनो में वह ब्रोजोनंद सरस्वती के आश्रम में भोजन-पानी के लिए जाते-आते रहते थे। उनके जीवन पर ब्रोजोनंद सरस्वती का भी गहरा प्रभाव रहा। उनको पेट भरने का रास्ता तो आश्रम से मिल गया, जेब खर्च वह ट्यूशन पढ़ाकर निकाल लिया करते थे। जब उनको पहली बार अपनी कमाई के पचास रूपए मिले थे, उससे अपने पापा के लिए एक शर्ट लेकर अपने घर पहुंचे थे। पापा ने कहा कि इस शर्ट को वह अपने चाचा को दे दें, इसकी उन्हें ज़्यादा जरूरत है। उस वाकये से उन्हें सीख मिली कि जो दूसरे का हित सोचते हैं, उन्हें जीवन में कभी असफलता नहीं मिलती है।
उन्होंने प.बंगाल के गरीब परिवारों, उन घरों की परेशानहाल महिलाओं को इसी नजरिए से सोचा, परखा था। इसके साथ ही उन्हे बीआरएसी की नौकरी से भी इसी तरह की सीख मिली कि वह बांग्लादेश के छोटे-छोटे गांवों में महिलाओं का बड़ी मेहनत से किस तरह सशक्तीकरण कर रहा था। वे महिलाएं अपनी बीमारी की हालत में भी पेट भरने के लिए मजदूरी करती रहती थीं। जब वह सन् 1997 में बांग्लादेश से कोलकाता आए थे, उन्होंने विलेज वेलफेयर सोसाइटी के लिए काम करना शुरू किया तो उनका दूर-दराज के गांवों की बदहाली से साबका पड़ा। वहीं से उनके आइडिया को पंख लगे। कोलकाता से 60 किमी दूर बगनान गांव में अपनी माइक्रोफाइनेंस कंपनी स्थापित करने के लिए खुद उनको भी नौकरी छोड़कर दो लाख रूपए उधार लेने पड़े थे।
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