क्या सिर्फ जाली विश्वविद्यालयों की सूची जारी कर हमारी शिक्षा व्यवस्था हो जाएगी दुरुस्त?
सावधान: उच्च शिक्षण संस्थान में एडमिशन लेने जा रहे हैं तो UGC की इस लिस्ट पर डालें एक नज़र...
भारतीय समाज में जैसे कई सारे अवयव थक चुके हैं, कई लुंज-पुंज होकर सड़ने-गलने लगे हैं, उनमें ही एक है भ्रष्टाचार के दलदल में धंस चुकी शिक्षा व्यवस्था। उस पर एक ओर आधुनिकता के मुलम्मे पर मुलम्मे चढ़ते जा रहे हैं, दूसरी ओर लगता है सब कुछ शिक्षा माफिया के चंगुल में जा फंसा है। यूजीसी द्वारा आज जारी की गई 24 फर्जी विश्वविद्यालयों की लिस्ट इसी किस्म के सच की ओर तो इशारा कर रही है।
यूजीसी ने आज नोटिस जारी कर बताया है कि देशभर में 24 विश्वविद्यालय फर्जी हैं, इसलिए दाखिले से पहले विश्वविद्यालय की सत्यता जांच लें। यूजीसी ने पब्लिक नोटिस के माध्यम से छात्रों और अभिभावकों से अपील करते हुए उन फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची भी जारी की है।
यूजीसी सचिव प्रो. रजनीश जैन की ओर से जारी नोटिस में लिखा है कि दाखिले से पहले यूजीसी की वेबसाइट पर विश्वविद्यालय, कॉलेज या फिर शिक्षण संस्थान की सत्यता, रेटिंग अवश्य जांच कर लें। ये फर्जी विश्वविद्यालय यूजीसी से मान्यता प्राप्त नहीं हैं, इसलिए वे डिग्री भी नहीं दे सकते हैं।
हमारे देश में शिक्षा का पुराना और मर्यादित इतिहास है। कभी बिहार का नालंदा विश्वविद्यालय विश्व का सबसे पुराना विश्वविद्यालय हुआ करता था। इसी तरह शांति निकेतन और वनस्थली जैसे शिक्षण संस्थानों में आज भी युवा पढ़ने के लिए ललचते रहते हैं। भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है। भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी हम निरंतर विकासशील पाते हैं। सूत्रकाल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं। बौद्धकाल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया गया। प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत व उत्कृष्ट थी लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा की व्यवस्था का ह्रास हुआ।
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों से डाली गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारंभ में मद्रास ही उनका कार्यक्षेत्र रहा। धीरे धीरे कार्यक्षेत्र का विस्तार बंगाल में भी होने लगा। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे। रविवार को विद्यालय बंद रहता था। अनेक शिक्षक छात्रों की पढ़ाई अनेक श्रेणियों में कराते थे। अध्यापन का समय नियत था। साल भर में छोटी बड़ी अनेक छुट्टियाँ हुआ करती थीं। 1853 में शिक्षा की प्रगति की जाँच के लिए एक समिति बनी। 1854 में बुड के शिक्षासंदेश पत्र में समिति के निर्णय कंपनी के पास भेज दिए गए। संस्कृत, अरबी और फारसी का ज्ञान आवश्यक समझा गया। औद्योगिक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। प्रातों में शिक्षा विभाग अध्यापक प्रशिक्षण नारीशिक्षा इत्यादि की सिफारिश की गई। 1857 में स्वतंत्रता युद्ध छिड़ गया जिससे शिक्षा की प्रगति में बाधा पड़ी। प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित ही रही। उच्च शिक्षा की उन्नति होती गई। 1857 में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित हुए। 1916 तक भारत में पाँच विश्वविद्यालय थे। अब सात नए विश्वविद्यालय स्थापित किए गए। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा मैसूर विश्वविद्यालय 1916 में, पटना विश्वविद्यालय 1917 में, ओसमानिया विश्वविद्यालय 1918 में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय 1920 में और लखनऊ और ढाका विश्वविद्यालय 1921 में स्थापित हुए।
आजादी के बाद राधाकृष्ण आयोग, माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, कोठारी शिक्षा आयोग, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, नवीन शिक्षा नीति आदि की ओर से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को समय-समय पर सही दिशा देने की गंभीर कोशिशें की गईं। सन् 1948-49 में विश्वविद्यालयों के सुधार के लिए भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग की सिफारिशों को बड़ी तत्परता के साथ कार्यान्वित किया गया। उच्च शिक्षा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। पंजाब, गौहाटी, पूना, रुड़की, कश्मीर, बड़ौदा, कर्णाटक, गुजरात, महिला विश्वविद्यालय, विश्वभारती, बिहार, श्रीवेकंटेश्वर, यादवपुर, वल्लभभाई, कुरुक्षेत्र, गोरखपुर, विक्रम, संस्कृत वि.वि. आदि अनेक नए विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात् शिक्षा में प्रगति होने लगी। विश्वभारती, गुरुकुल, अरविंद आश्रम, जामिया मिल्लिया इसलामिया, विद्याभवन, महिला विश्वक्षेत्र में प्रशंसनीय वनस्थली विद्यापीठ आधुनिक भारतीय शिक्षा के विद्यालय और प्रयोग हैं।
यह तो रहा शिक्षा का प्राचीन और आधुनिक इतिहास, अब आइए, उस वर्तमान और बीमार शिक्षा व्यवस्था को जानते हैं, जिसके इलाज के लिए यूजीसी ने आज नोटिस जारी कर बताया है कि देशभर में 24 विश्वविद्यालय फर्जी हैं, इसलिए दाखिले से पहले विश्वविद्यालय की सत्यता जांच लें। यूजीसी ने पब्लिक नोटिस के माध्यम से छात्रों और अभिभावकों से अपील करते हुए उन फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची भी जारी की है। खास बात यह है कि देश की राजधानी दिल्ली में इनमें से आठ फर्जी विश्वविद्यालय धड़ल्ले से चल रहे हैं। यूजीसी सचिव प्रो. रजनीश जैन की ओर से जारी नोटिस में लिखा है कि दाखिले से पहले यूजीसी की वेबसाइट पर विश्वविद्यालय, कॉलेज या फिर शिक्षण संस्थान की सत्यता, रेटिंग अवश्य जांच कर लें। ये फर्जी विश्वविद्यालय यूजीसी से मान्यता प्राप्त नहीं हैं, इसलिए वे डिग्री भी नहीं दे सकते हैं।
सूची में महिला ग्राम विद्यापीठ इलाहाबाद (वीमेन्स यूनिवर्सिटी), गांधी हिंदी विद्यापीठ प्रयाग इलाहाबाद, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ इलेक्ट्रो कांप्लेक्स होम्योपैथी कानपुर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस ओपन यूनिवर्सिटी अलीगढ़, उत्तर प्रदेश विश्वविद्यालय कोसीकला मथुरा, महाराणा प्रताप शिक्षा निकेतन विश्वविद्यालय प्रतापगढ़, इंद्रप्रस्थ शिक्षा परिषद इन्सीट्यूशनल एरिया नोएडा फेज 3 आदि शामिल हैं। इसके अलावा दिल्ली के कमर्शियल यूनिवर्सिटी लिमिटेड, दरियांगज, यूनाइटेड नेशन्स यूनिवर्सिटी, वोकेशनल यूनिवर्सिटी, एडीआर सेन्ट्रिक ज्यूरिडिकल यूनिवर्सिटी, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड इंजीनियरिंग, विश्वकर्मा ओपन यूनिवर्सिटी, वाराणसी संस्कृत विवि के अलावा यौन उत्पीड़न के आरोपी बाबा वीरेंद्र देव दीक्षित का आध्यत्मिक विश्वविद्यालय भी शामिल है।
अब सवाल उठता है कि क्या सिर्फ जाली विश्वविद्यालयों की सूची जारी कर देने से हमारी शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त हो जाएगी। यदि ये विश्वविद्यालय फर्जी हैं तो उन लाखों छात्रों के भविष्य से खेलने वाले इन विश्वविद्यालयों के प्रबंधन वर्ग से जुड़े लोगों के साथ क्या सुलूक होना चाहिए? क्या इस दिशा में सरकारें कोई पहल कर सकती हैं? इन विश्वविद्यालयों से डिग्री लेकर अब तक जो विभिन्न व्यवसायों, नौकरियों में सेवारत हो चुके हैं, उनके सर्टिफिकेट की विश्वसनीयता पर क्या होना चाहिए? शिक्षा व्यवस्था को लेकर जब भी कोई इस तरह का काला अध्याय खुलता है, उस पर न तो कोई राजनेता बयान देता है, न कोई अधिकारी। जैसे सबको सांप सूंघ जाता है। इसके पीछे सच ये है कि इन्हीं वर्गों से जुड़े लोगों की सह पर देश में धड़ल्ले से इतने बड़े-बड़े कर्मकांड हो रहे हैं।
एक कड़वी सच्चाई ये भी है कि हम आज भी मैकाले की शिक्षा व्यवस्था के औपनिवेशिक ढांचे के गुलाम हैं। जो भी दल सत्ता में आता है, वह अपने हिसाब से पाठ्य-पुस्तकों का निर्माण करवाता है। यह काम पहले मुगलों ने, फिर अंग्रेजों ने, फिर काले अंग्रेजों ने किया। हर राजनीतिक दल शिक्षा के माध्यम से अपनी राजनैतिक विचारधारा को आरोपित कर उन्हें भविष्य के वोट बैंक के रूप में देखता है। डॉ. प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री भारत में जो शिक्षा पद्धति प्रचलित है, उसके कई पक्षों में सुधार की आवश्यकता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था पर एक वृहत् जनसमूह को शिक्षित करने का उत्तरदायित्व है।
साधन और संसाधन बहुत सीमित हैं, परिस्थितियाँ भी अनुकूल नहीं। ’सबके लिए शिक्षा’ की सुविधा उपलब्ध करवाना है तो प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह इस लक्ष्य प्राप्ति में सहयोग प्रदान करे। 'each one teach one' का नारा इस दिशा में सफलता दिला सकता है। इसके लिए सरकारी तंत्र के साथ स्वयंसेवी और सामाजिक संगठनों को भी जोड़ना होगा। विद्यालयों में संख्यात्मक नामांकन की बढ़ोतरी की बजाय न्यूनतम अधिगम स्तर पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
स्वतंत्रता के बाद हमने सबके लिए शिक्षा प्राप्ति पर तो ध्यान दिया, पर सबके लिए समान गुणवत्ता वाली शिक्षा का लक्ष्य अभी भी कोसों दूर है। क्या यह शिक्षा बच्चे को यह स्वतन्त्रता देती है कि वो रमन, टैगोर, कलाम, कल्पना, सुनीता बन सकें? वर्तमान में ज्ञान का विस्फोट तीव्र गति से हो रहा है, किन्तु इस विस्फोट की चुनौती को स्वीकार करने के लिए हमारे देश के विश्वविद्यालयों के स्तर पर ऐसे जाली कारनामों ने एक बार फिर से हमे खबरदार कर दिया है।
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