जंगल काटने आये दस्ते को वापिस लौटा देने वाली बहादुर महिला गौरादेवी और उनका 'चिपको आंदोलन'
आज ही के दिन दो दर्जन महिलाओं के साथ जंगल काटने आये दस्ते को बैरंग वापिस लौटा दिया था गौरादेवी ने
आज 'चिपको' आंदोलन की 45वीं वर्षगांठ है। चमोली (उत्तराखंड) में दो दर्जन महिलाओं के साथ आज (26 मार्च 1974) के ही दिन पहाड़ की अजेय स्री-योद्धा गौरादेवी ने पेड़ों से चिपक कर जंगल काटने पहुंचे दस्ते को ललकारते हुए कहा था - 'जंगल हमारे मैत (मायका) हैं। इनसे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल और लकड़ियां मिलती हैं। जंगल काटोगे तो बाढ़ आएगी और हमारे बगड़ बह जाएंगे।' इसके बाद सभी महिलाएं पेड़ों से चिपक गई थीं और आखिरकार, दस्ते को बैरंग वापस लौटना पड़ा।
'चिपको' आंदोलन की आज 45वीं वर्षगांठ, आज ही के दिन गौरादेवी ने ललकारा था जंगल काटने आये दस्ते को।
आज, जबकि पूरी दुनिया में जंगलों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, वनवासियों को उनकी जड़ों से, जल-जंगल-जमीनों से खदेड़ा जा रहा है। कारपोरेट घराने राज्य के सहयोग से पेपर और प्रिंटिंग उद्योग चलाने के लिए हरित क्षेत्र का ढोल बजाकर वन माफिया को संरक्षण दिए हुए हैं। इसके साथ ही उत्तराखंड की जुझारू स्त्रियों का आंदोलन भी सतत जारी है। यहां की आंदोलनकारी मातृशक्ति आज भी आवाज उठा रही है कि जो जंगल बचाएगा, वही कार्बन क्रेडिट का मालिक होगा। देश-दुनिया के बाकी हिस्सों की तरह आज उत्तराखंड के भी बचे खुचे जंगल वन माफिया की गिरफ्त में हैं और लगातार कटते जा रहे हैं। एक वक्त ऐसा भी रहा है, जब उत्तराखंड अलग राज्य नहीं था और यहां के वनों को बचाने के लिए गौरादेवी के नेतृत्व में पहाड़ की महिलाओं का पहला आंदोलन उठ खड़ा हुआ था। उत्तराखण्ड आन्दोलनों की धरती है। यहां के लोगों ने आंदोलनों के बूते ही अपना अलग उत्तराखण्ड राज्य हासिल किया है।
चाहे जो भी आंदोलन रहा हो, 1921 का 'कुली बेगार आन्दोलन', 1930 का 'तिलाड़ी; आन्दोलन हो, 1974 का 'चिपको आन्दोलन', 1984 का 'नशा नहीं, रोजगार दो' आन्दोलन, 1994 का 'उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति' आन्दोलन, उन सबमें यहां की महिलाएं बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती रही हैं। आज 'चिपको' आंदोलन की 45वीं वर्षगांठ है। गूगल ने उस पर डूडल बनाया है। यहां के चमोली क्षेत्र की महिलाओं ने 1970 के दशक में गौरादेवी के नेतृत्व में अहिंसक तरीके से इस आंदोलन की शुरुआत की थी। गौरादेवी कहती थीं- 'जंगल हमारे मैत (मायका) हैं।'
सन् 1925 में चमोली के लाता गांव में एक मरछिया परिवार में नारायण सिंह के घर जन्मीं गौरा देवी ने उस जमाने में कक्षा पांच तक पढ़ाई की। मात्र ग्यारह साल की उम्र में उनका विवाह रैंणी गांव के मेहरबान सिंह से हुआ। रैंणी भोटिया (तोलछा) का स्थायी आवासीय गांव है। यहां के लोग रोजी-रोटी के लिए पशुपालन, ऊन उद्यम और खेती-बाड़ी पर निर्भर रहे हैं। गौरादेवी जब बाईस साल की हुईं, मेहरबान सिंह चल बसे। गौरादेवी घर-गृहस्थी की मुसीबतों का पहाड़ सा टूट पड़ा। उस समय उनके इकलौते पुत्र चन्द्र सिंह मात्र ढाई साल के थे। बड़े होकर चन्द्रसिंह ने जब घर-गृहस्थी संभालनी शुरू कर दी, मां गौरादेवी क्षेत्र के ग्रामीणों के सुख-दुख में व्यस्त होने लगीं। उसी दौरान भारत-चीन युद्ध और अलकनन्दा की भयंकर बाढ़ ने पहाड़ी जन जीवन को झकझोर दिया। भारत सरकार चमोली में सेना के लिए जंगल काटकर सड़कें बनाने लगी। इस वन-संहार के विरोध में प्रख्यात पर्यावरणविद चण्डीप्रसाद भट्ट पहाड़वासियों के साथ उठ खड़े हुए। यहां के लोग आंदोलन की राह पर चल पड़े।
1972 के दशक में हर गांव में महिला मंगल दल गठित होने लगे। गौरादेवी रैंणी गांव की महिला मंगल दल अध्यक्ष चुन ली गईं। जब दो साल बाद सरकार ने सड़क बनाने के लिए ढाई हजार पेड़ काटने की योजना बना रही थी, 23 मार्च 1974 को रैंणी की ग्रामीण महिलाओं को लेकर गौरादेवी जोर-शोर से आंदोलन में कूद पड़ीं। एक ओर तो वन विभाग ने आश्वासन दिया कि जो ढाई हजार पेड़ काटने के लिए चिह्नित किए गए हैं, उनका 26 मार्च 1974 को चमोली में मुआवजा दिया जाएगा, दूसरी तरफ ठेकेदारों को आगाह कर दिया कि जब रैंणी के पुरुष गण मुआवजा लेने के लिए चमोली पहुंच जाएं, हम आंदोलित महिलाओं को बातचीत के लिए गोपेश्वर बुला लेंगे, तभी मजदूरों से सारे पेड़ कटवा देना। योजनाबद्ध तरीके से जब ठेकेदारों के श्रमिक बड़ी संख्या रैंणी के निकट नीचे उतरकर ऋषिगंगा के किनारे रागा होते हुए मौके पर पहुंचकर देवदार के जंगल काटने में जुट रहे थे, रैणी की एक चश्मदीद लड़की ने तुरंत गौरादेवी को इसकी सूचना पहुंचा दी। गौरादेवी झटपट लगभग दो दर्जन महिलाओं बतीदेवी, महादेवी, भूसीदेवी, नृत्यीदेवी, लीलामती, उमादेवी, हरकी देवी, बालीदेवी, पासादेवी, रुक्कादेवी, रुपसादेवी, तिलाड़ीदेवी, इन्द्रादेवी आदि के साथ मौके पर पहुंच गईं।
गौरादेवी ने ठेकेदार, वनकर्मियों, मजदूरों से कहा- 'भाइयो, यह जंगल हमारा मायका है। इनसे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल, और लकड़ी मिलती है। जंगल काटोगे तो बाढ़ आएगी। हमारे बगड़ बह जायेंगे। आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो। जब हमारे मर्द आ जायेंगे तो फैसला होगा।' गुहार मानने की बजाए ठेकेदार और वनकर्मी उल्टे उन्हें गिरफ्तारी का भय दिखाते हुए भाग जाने के लिए बंदूकों से धमकाने लगे। उन्होंने गौरादेवी पर थूक दिया लेकिन वह टस से मस नहीं हुईं, महिलाओं के साथ मौके पर अडिग हो गईं और सीना तानकर गरज पड़ीं - 'लो, आओ, मारो गोली और काट लो हमारा मायका।' इसके बाद सारी महिलाएं आसपास के पेड़ों से चिपक गईं। इसी दौरान उन्होंने और ऋषिगंगा तट से जुड़े नाले का सीमेण्ट पुल ध्वस्त कर दिया। वहां से गुजरने वाले रास्तों पर अड़कर खड़ी हो गईं। आखिरकार, विवश होकर ठेकेदार और वनकर्मियों को श्रमिकों के साथ लौटना पड़ा। पेड़ों की जिंदगी तबाह होने से बच गई। तो यही था पहाड़ का पहला 'चिपको' आंदोलन, जिसने बाद में पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया और तब मानो पूरा पहाड़ गौरादेवी के प्रति श्रद्धा से भर उठा।
बाद में वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने भी डॉ वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में जांच समिति गठित कर गौरादेवी के सुर में सुर मिलाते हुए आगाह किया कि रैंणी, ऋषि गंगा, पाताल गंगा, गरुड़ गंगा, विरही, मन्दाकिनी, कुवारी पर्वत के जंगल काटना पर्यावरण के लिए बहुत खतरनाक होगा। आगे के वक्त में गौरादेवी 'चिपको' आंदोलन जारी रखने के साथ ही नए पेड़-पौधे रोपने के अभियान में भी जुटी रहीं। बाद में 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गौरादेवी को प्रथम 'वृक्ष मित्र' पुरस्कार से सम्मानित किया। पहाड़ के 'चिपको' आन्दोलन की इस अजेय योद्धा ने 4 जुलाई, 1991 को दुनिया छोड़ दी।
इससे पहले 18वीं सदी में राजस्थान में भी चिपको आंदोलन हुआ था, जब जोधपुर के तत्कालीन राजा ने पेड़ों को काटने का फरमान सुनाया था। बिश्नोई समाज के लोग पेड़ों से चिपक गए थे और राजा को अपना फरमान वापस लेना पड़ा था। गौरादेवी की वह ललकार आज भी उत्तराखंड के पहाड़ों के कानों में गूंजती रहती है। दुनिया उनको 'चिपको विमन' के नाम से भी जानती है। चिपको आंदोलन को बाद में सुंदरलाल बहुगुणा ने गति और दिशा दी लेकिन आज जिस तरह से वन माफिया हावी हैं, पेड़ों की बड़े पैमाने पर कटाई हो रही है, निश्चित ही गौरादेवी की आत्मा रो रही होगी। उत्तराखंड ही क्यों, आज तो पूरी दुनिया में अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे, जंगल उजाड़े जा रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों, पुलिस, वन विभाग के साथ मिली-भगत कर उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल के बचे खुचे वन क्षेत्रों के 30 प्रतिशत भूभाग पर भी माफिया कब्जा कर चुके हैं। इससे जंगलों और पर्यावरण को भारी गंभीर खतरा पैदा हो गया है।
वनों के असुरक्षित होने का दुष्प्रभाव वन्यजीवों को भी भुगतना पड़ रहा है। वह उग्र हो रहे हैं। जंगल की फूड चेन टूटने लगी है। यह अंदेशा कोई कपोल कल्पित नहीं, स्टेट बायोडायवर्सिटी बोर्ड की एक रिपोर्ट में व्यक्त किया गया है, जबकि सुप्रीम कोर्ट भी चाहता है कि कुल भौगोलिक क्षेत्र का 33 प्रतिशत को 'ग्रीन कवर' हो। सांठ-गांठ कर आज जंगलों की किस तरह बेतहाशा कटाई हो रही है, इसका सच खुली आंखों देखना है तो पहाड़ की उन सड़कों पर सुबह पहुंच जाइए, जो आसपास के नगरों को वनक्षेत्रों से जोड़ती हैं। उत्तराखंड का गठन होते ही विकास के नाम पर यहां की नदियों को खोदने, तरह-तरह के बांध बनाने का अभियान सा चल पड़ा। घरेलू ईंधन, लकड़ी के कोयले के कारोबार, फर्नीचर, पेपर उद्योग की आपूर्ति के लिए बड़ी संख्या में रोजाना पेड़ काटे जा रहे हैं। अब 30 प्रतिशत वन क्षेत्र ही बचा है, जिसे पर्यावरणविद् खतरे की घंटी मान रहे हैं। इससे एक तरफ वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर मिट्टी का कटाव भी तेजी से हो रहा है। फसलों का उत्पादन लगभग एक चौथाई घट गया है। लाखों की संख्या में लोग पहाड़ों से पलायन कर चुके हैं।
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