लुप्त हो रही ‘‘ब्लू पाॅट्री’’ के कारीगरों की जिंदगी को संवारती जयपुर की ‘लीला’
समाजसेवा करते-करते बनी सफल व्यवसाईदुनिया के कई हिस्सों में मिट्टी के बने सामान को करती हैं एक्सपोर्ट कारीगरों को गांव वापस जाकर काम करने के लिये किया प्रेरितमिट्टी से आपकी सोच से ज्यादा सामान बना सकती हैं लीला बोर्डिया
अपना पुश्तैनी काम-धंधा छोड़कर शहर की चकाचैंध भरी जिंदगी में गुम होते कारीगरों की मदद करते-करते कब एक घरेलू महिला सफल व्यवसायी बन गई यह तो उसे भी पता नहीं चला। लुप्त हो रही ‘‘ब्लू पाॅट्री’’ की कला को पुनर्जीवित करने वाली 65 साल की लीला बोर्डिया की लगन और दूरदर्शिता का ही परिणाम है कि कारीगरों को इस पारंपारिक कला को जुड़े रहने का मौका मिला और उन्हें रोजी-रोटी कमाने लिये शहर का रुख नहीं करना पड़ा।
1950 में राजस्थान के एक मारवाड़ी परिवार में जन्मी लीला बोर्डिया को समाजसेवा की भावना घर से ही मिली। बचपन से ही वे देखती थीं कि उनकी माँ कुछ अन्य महिलाओं के साथ कोलकाता की झोपड़-पट्टियों में लोगों की सहायता करने जाती हैं और कई बार तो वे भी उनके साथ चल देती थीं। बड़े हो जानेपर उन्हें समझ में आया कि उन महिलाओं में एक मदर टेरेसा भी थीं।
1974 में विवाह के बाद लीला जयपुर आ गईं। समय बिताने के लिये उन्होंने पड़ोंस के ही एक मोंटेसरी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया। एक दिन अचानक उन्हें घर के पास ही स्थित झोपड़बस्ती में जाना पड़ा। उन्होंने वहां देखा कि गांव से काम की तलाश में शहर आने वाले लोग किस तरह की नरकीय स्थिति में जीवन बिता रहे हैं।
‘‘उन लोगों के संघर्ष ने मुझे भीतर तक कचोटकर रख दिया। मैं अपनी तरफ से उनकी हर संभव मदद करने लगी। इसी दौरान मैंने देखा कि उनमें से कई अपने पूर्वजों से मिली पारंपरिक कला को जीवित रखते हुए बड़े खुबसूरत और रंग-बिरंगे मिट्टी के बर्तन तैयार कर रहे थे।’’
लीला ने थोड़ी और जानकारी एकत्रित की तो उन्हें इस कला ‘‘ब्लू पाॅट्री’’ के बारे में काफी कुछ पता चला। उन्होंने पाया कि कारीगर मिट्टी के जो बर्तन, प्लेट और गुलदस्ते इत्यादि बना रहे थे उनका बाजार बहुत सीमित था लेकिन उन्हें इस कला और इसके नीले रंग में बहुत संभावनाएं दिखीं।
लीला आगे जोडती हैं कि उन्होंने उन कारीगरों को अपने काम करने के तरीके में कुछ बदलाव करने के सुझाव दिये लेकिन वे लोग पीढि़यों से इस काम को जैसे करते आ रहे थे उसे वैसे ही करना चाहते थे। आखिरकार एक कारीगर उनके हिसाब से बदलाव लाने के लिये तैयार हुआ।
इसी दौरान 1977 में लीला की मुलाकात फ्रांस से आए पाॅल कोमर से हुई जिन्होंने बीड्स के बने पर्दे बनाकर उन्हें एक्सपोर्ट करने की सलाह दी। लीला बताती हैं कि उन्होंने कारीगर के साथ मिलकर आॅर्डर तैयार किया। लीला बताती हैं कि इस आॅर्डर का फायदा यह हुआ कि कारीगरों में संदेश गया कि मैडम को विदेश से काम मिलने लगा है और कारीगर अब खुद उनके पास आने लगे।
लीला आगे जोड़ती हैं कि उन्होंने कारीगरों से अपने गांव वापस जाकर इस काम को करने के लिये प्रेरित किया और वहीं जाकर उन लोगों से माल बनवाले लगी। ‘‘मैंने रणनीति बनाई थी कि जो भी काम मुझे मिलेगा वह मैं इन लोगों के गांव जाकर ही बनवाऊँगी और यही मेरे लिये सबसे बड़ा ट्रंपकार्ड साबित हुआ।’’
लीला कहती हैं कि उनका प्रारंभिक उद्देश्य इन कारीगरों को वापस इनकी जड़ों तक पहुंचाकर इनकी मदद करना था लेकिन काफी समय बाद मुझे महसूस हुआ कि यह अब सामाजिक कार्य से कहीं आगे निकल गया है। इसके बाद उन्होंने बाजार को कुछ नया देने के लिये प्रयोग करने शुरू किये।
‘‘ब्लू पाॅट्री में पारंपरिक रूप से एक खास पत्थर की मिट्टी का प्रयोग किया जाता था और यह सिर्फ दो रंगों, सफेद और नीले में ही होती थी। मेंने इसमें एक नए रंग ‘धूप वाले पीले’ का समावेश किया जिसके बाद इसकी रंगत ही बदल गई और हमें कई नए आॅर्डर मिले।’’
इसी दौरान उनके कारीगरों द्वारा तैयार किये सामान को फिल्म ‘फार पेवेलियंस’ की हीरोइन ने खरीदा जो जयपुर में शूटिंग करने आई हुई थीं। इसके अलावा उन्हें ताज ग्रुप द्वारा जयपुर में तैयार करवाए जा रहे रामबाग पैलेस के एक हिस्से को पारंपरिक राजस्थानी डिजाइनों से सजाने का मौका मिला जोे आज भी ‘नील महल’ के नाम से मशहूर है। ‘‘इसी दौरान हमें एक्सपोर्ट के कुछ आॅर्डर मिलने लगे और हमने अपनी कंपनी का नाम ‘‘नीरजा इंटरनेश्नल’’ रख दिया।’’ इसके बाद लीला का यह प्रयास राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय स्तर लोगों की नजरों में आया।
काम करने के तरीके के बारे में बताते हुए लीला कहती हैं कि ‘‘नीरजा इंटरनेश्नल को आर्डर मिलने के बाद काम को कारीगरों के पास कच्चे माल सहित उनके घर पर पहुंचा दिया जाता है। माल तैयार होने पर उसे जयपुर लाया जाता है और कारीगर को उसकी मेहनत का पैसा वहीं दे दिया जाता है। जयपुर में माल को चैक करने के बाद पैक करके खरीददार को भेज दिया जाता है।’’
लीला आगे कहता हैं कि उन्होंने कभी माल तैयार करने में मूल सामग्री के साथ खिलवाड़ नहीं किया और वही सामग्री इस्तेमाल की जो पीढि़यों से इसमें लग रही थी। वर्तमान में लीला 15 गांवों के लगभग 500 परिवारों की सहायता से ‘‘ब्लू पाॅट्री’’ की पुरातन कला को जीवित रखे हुए हैं और इन परिवारों की मदद कर रही हैं।
‘‘हमारे साथ काम करने वाले कारीगर लगभग 20 हजार रुपये प्रतिमाह से लेकर 2 लाख रुपये प्रतिमाह तक कमा रहे हैं। इस तरह से हमने इन लोगों को इनकी पुश्तैनी कला के साथ जोड़े रखा और एक लुप्त हो रही कला को भी बचाया।’’