पुण्यतिथि विशेष: भारत को आजाद कराने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले मौलाना आजाद
भारत की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले मौलाना आजाद को बचपन में था गुब्बारे उड़ाने का शौक
आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आज़ाद को आज याद करने का दिन है। आज 22 फरवरी उनकी पुण्यतिथि है। मौलाना राजनीति में नहीं जाना चाहते थे, वह दुनिया के जाने-माने उर्दू अदीब थे लेकिन हालात ही कुछ ऐसे नमूदार हुए कि अंग्रेजों से दो-दो हाथ करने के लिए जंग के मैदान में उतर पड़े।
गांधी जी ने भी लिखा कि मुझे खुशी है, मौलाना के साथ काम करने का मौक़ा मिला है। जैसी उनकी इस्लाम में श्रद्धा है, वैसा ही दृढ़ उनका देश प्रेम है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे महान नेताओं में से वह एक हैं। यह बात किसी को भी नहीं भूलनी चाहिए।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक एवं स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुलकलाम मुहीउद्दीन अहमद जुझारू स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और राजनेता ही नहीं, दुनिया भर में मशहूर मुस्लिम विद्वान भी थे। अरब देश के पवित्र मक्का में रहने वाले एक भारतीय पिता और अरबी माता के घर में उनका जन्म हुआ। उन्हें 'मौलाना आज़ाद' के नाम से जाना जाता है। उन्होंने सांप्रदायिकता पर आधारित देश के विभाजन का विरोध किया था। बंगाल के रहने वाले उनके पिता 'मौलाना खैरूद्दीन' भी विख्यात उर्दू अदीब रहे और माँ 'आलिया' मदीन के शेख़ मोहम्मद ज़ाहिर वत्री की भतीजी थीं। कुशाग्र आजाद दस वर्ष की छोटी सी आयु में क़ुरान पाठ में निपुण हो गए थे।
सत्रह वर्ष में ही इस्लामी दुनिया के धर्मविज्ञानी हो गए। काहिरा के 'अल अज़हर विश्वविद्यालय' में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। परिवार के कोलकाता में बसने पर उन्होंने 'लिसान-उल-सिद' नामक पत्रिका प्रारम्भ की। उन पर उर्दू के दो महान आलोचकों 'मौलाना शिबली नाओमनी' और 'अल्ताफ हुसैन हाली' का गहरा असर रहा। वह नेता नहीं बनना चाहते ही थे। वह कहते भी थे कि राजनीति के पीछे वह कभी नहीं दौड़े, राजनीति ने ही उन्हें पकड़ लिया। वह तो लाजवाब शायर थे, गलती से कदम सियासत की ओर चले गए। वह लिखते हैं -
क्यूँ असीर-ए-गेसू-ए-ख़म-दार-ए-क़ातिल हो गया
हाए क्या बैठे-बिठाए तुझ को ऐ दिल हो गया
कोई नालाँ कोई गिर्यां कोई बिस्मिल हो गया
उस के उठते ही दिगर-गूँ रंग-ए-महफ़िल हो गया
इंतिज़ार उस गुल का इस दर्जा क्या गुलज़ार में
नूर आख़िर दीदा-ए-नर्गिस का ज़ाइल हो गया
उस ने तलवारें लगाईं ऐसे कुछ अंदाज़ से
दिल का हर अरमाँ फ़िदा-ए-दस्त-ए-क़ातिल हो गया
क़ैस-ए-मजनूँ का तसव्वुर बढ़ गया जब नज्द में
हर बगूला दश्त का लैला-ए-महमिल हो गया
ये भी क़ैदी हो गया आख़िर कमंद-ए-ज़ुल्फ़ का
ले असीरों में तिरे 'आज़ाद' शामिल हो गया
मौलाना आजाद को बचपन में रंगीन गुब्बारे उड़ाने, तैराकी और खेल-कूद का शौक़ हुआ करता था। उनकी याददाश्त भी हैरतअंगेज थी। तेरह साल की आयु में ही उनका विवाह ज़ुलैखा बेगम से हो गया था। बाद में वह देश के जाने-माने पत्रकार, लेखक, कवि, दार्शनिक बने। प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक सॉमरसेट मॉम की तरह ही मौलाना आज़ाद ने लिखना शुरू किया, जैसे मछली अपने आप तैरना सीख जाती है। उर्दू अदीबों ने एक बार सन् 1904 में एक कॉन्फ्रेंस में भाषण के लिए उनको आमंत्रित किया। जब दुबले-पतले मौलाना आज़ाद रेलवे की प्रथम श्रेणी के डिब्बे से उतरे तो लाहौर स्टेशन पर जमा उनके हज़ारों प्रशंसकों को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। कुछ लोगों को निराशा भी हुई और जब उस लड़के ने कोई ढाई घंटे तक अलिखित भाषण दिया तो कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष मशहूर शायर मौलाना हाली ने उनको बांहों में भर लिया।
अबुल कलाम आज़ाद उस वक्त राजनीति से जुड़े, जब ब्रिटिश हुक्मरानों ने सन् 1905 में धार्मिक आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया। वह क्रांतिकारी संगठन में शामिल होने के बाद अरविंद घोष, श्यामसुंदर चक्रवर्ती आदि के संपर्क में पहुंच गए। वह जोशीले भाषण देते, उत्तेजना भरे लेख लिखते और पढ़े-लिखे मुसलमानों के साथ सम्पर्क बढ़ाते। मुसलमानों के कुछ गुप्त मंडलों की भी उन्होंने स्थापना की। एक बार उन्होंने घोषणा की कि मुसलमानों के लिए बिच्छू और साँप से सुलह कर लेना, पहाड़, ग़ुफा और बिलों के भीतर घूमना और वहाँ जंगली जानवरों के साथ चैन से रहना आसान है, लेकिन अंग्रेज़ों से संधि करना मुमकिन नहीं।
मौलाना बुनियादी तौर पर पत्रकार थे। भारतीय पत्रकारिता का इतिहास आजादी के आंदोलन से मुखर होता है। जब तोप मुकाबिल होती है। स्वतंत्रचेता हमारे क्रांतिकारी पुरखे ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अखबार को अस्त्र बनाते हैं। महाभारत कालीन आख्यान में प्रथम पत्रकार संजय अंधे धृतराष्ट्र के लिए 'कुरुक्षेत्र लाइव' प्रसारित करते हैं। पौराणिक आख्यानों में इसी तरह नारद और हनुमान चित्रित हैं, लेकिन जीवन की बहुमुखी व्यापकता के कारण स्वल्प सामग्री के सहारे विगत युग अथवा समाज का चित्रनिर्माण करना दुस्साध्य है। अन्य विषयों की तरह पत्रकारिता की भी प्राथमिक शिक्षा अपने समय के इतिहास से प्रारंभ होती है। हर समय (मिथक नहीं) अपने इतिहास से सबक लेता है।
पत्रकारिता के इतिहास से हमारे समय ने क्या सबक लिया है, क्या लेना चाहिए था। हम आज जिस दलदल में पत्रकारिता को पाते हैं, लगता नहीं कि उसने अपनी नई पीढ़ी और उसके बेहतर सामाजिक भविष्य लिए मौलाना आजाद जैसे पुरखों से कोई सार्थक सबक लिया है। आज की पीढ़ी के लिए सही सबक लेना किसी एक-अकेले का कार्यभार भी नहीं है। मौलाना आजाद ने अपने संदेशों को फैलाने के लिए सन् 1912 में साप्ताहिक अखबार 'अल-हिलाल' आरम्भ किया। अपने प्रगतिशील विचारों से 'अल-हिलाल' को उन्होंने अनवरत जनता की आवाज बनाये रखा। यह विदेशों में भी चर्चित हो गया। कुछ ही दिनों में उसकी छब्बीस हजार से ज्यादा प्रतियां बिकने लगीं।
ऐसी लहर आयी कि अख़बार का मंत्रवत सामूहिक पाठ होने लगा। अंग्रेजी सरकार के कान खड़े हो गये। उसने 'अल-हिलाल' की जमानतें ज़ब्त कर लीं और मौलाना को बंगाल से बाहर कर दिया। वह चार वर्षों तक रांची, बिहार में क़ैद रहे। 'अल हिलाल' के बंद होने के बाद आज़ाद ने 'अल बलघ' नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। वर्ष 1916 में उनके गिरफ्तार हो जाने के बाद यह पत्रिका भी बंद हो गयी। आज़ाद भारत में वह पहले शिक्षामंत्री बने। नि:शुल्क शिक्षा, भारतीय शिक्षा पद्धति, उच्च शिक्षण संस्थानों का मार्ग प्रशस्त किया। उन्हें ही 'भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना का श्रेय जाता है। मौलाना की एक और गज़ल -
इन शोख़ हसीनों की अदा और ही कुछ है
और इन की अदाओं में मज़ा और ही कुछ है
ये दिल है मगर दिल में बसा और ही कुछ है
दिल आईना है जल्वा-नुमा और ही कुछ है
हम आप की महफ़िल में न आने को न आते
कुछ और ही समझे थे हुआ और ही कुछ है
बे-ख़ुद भी हैं होशियार भी हैं देखने वाले
इन मस्त निगाहों की अदा और ही कुछ है
'आज़ाद' हूँ और गेसू-ए-पेचाँ में गिरफ़्तार
कह दो मुझे क्या तुम ने सुना और ही कुछ है
मौलाना आजाद कहते थे कि अगर एक देवदूत स्वर्ग से उतरकर क़ुतुब मीनार की ऊंचाई से यह घोषणा करता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को नकार दें तो 24 घंटे के भीतर स्वराज तुम्हारा हो जाएगा, तो मैं इस स्वराज को लेने से इंकार करूंगा, लेकिन अपने रुख़ से एक इंच भी नहीं हटूंगा, क्योंकि स्वराज से इंकार सिर्फ़ भारत को प्रभावित करेगा लेकिन हमारी एकता की समाप्ति से हमारे समूचे मानव जगत को हानि होगी। 'भारत की खोज' में पंडित जवाहर लाल नेहरू लिखते हैं कि मौलाना ने तार्किक दृष्टिकोण से धर्मग्रंथों की व्याख्या की है। मौलाना जब रांची के जेल में थे, गांधी जी उनसे मिलना चाहते थे लेकिन अंग्रेजों की अड़ंगेबाजी से संभव न हो सका।
जनवरी 1920 में रिहा होने के बाद उनकी दिल्ली में हकीम अजमल ख़ाँ के घर मुलाकात हुई। मौलाना ने बाद में लिखा कि आज तक हम जैसे एक ही छत के नीचे रहते आए हैं, हमारे बीच मतभेद भी हुए लेकिन हमारी राहें कभी अलग नहीं हुईं। जैसे-जैसे दिन बीतते, वैसे-वैसे उन पर मेरा विश्वास और भी दृढ़ होता गया। गांधी जी ने भी लिखा कि मुझे खुशी है, मौलाना के साथ काम करने का मौक़ा मिला है। जैसी उनकी इस्लाम में श्रद्धा है, वैसा ही दृढ़ उनका देश प्रेम है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे महान नेताओं में से वह एक हैं। यह बात किसी को भी नहीं भूलनी चाहिए।
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