तजुर्बे गूगल पर नहीं मिलेंगे, वक्त मिले तो बुजुर्गों के पास बैठ जाया करो
'बहुत सेल्फी लेते हो, जरा मुस्कराया करो, अपने चेहरे को आईना भी दिखाया करो, अरे जमाने के तजुर्बे गूगल पर नहीं मिलेंगे, मिले जो वक्त, बुजुर्गों के पास बैठ जाया करो।' दिनेश दिग्गज की ये लाइनें याद रखते हुए नई पीढ़ी तज़ुर्बों को जरा सी भी अहमियत देना सीख जाए तो उसकी जिंदगी की तमाम मुश्किलें आसान हो सकती हैं।
हमारे समय का इससे बड़ा सवाल और क्या हो सकता है कि हमारे बुजुर्गों का टाइम पास कैसे हो? हालात देखकर लगता है कि अब 'ओल्ड' के लिए लाइफ 'गोल्ड' नहीं रह गई है। कवि दिनेश दिग्गज के शब्द हैं- 'बहुत सेल्फी लेते हो, जरा मुस्कराया करो, अपने चेहरे को आईना भी दिखाया करो, अरे जमाने के तजुर्बे गूगल पर नहीं मिलेंगे, मिले जो वक्त, बुजुर्गों के पास बैठ जाया करो।' मगर आज की जेनरेशन तो बुजुर्गों की बात सुनना दूर, पास बैठना भी पसंद नहीं करती है, क्योंकि वह इतनी बिजी जो है। उसके लिए बुजुर्गों के साथ टाइम देने से अच्छा लगता है, फर्जी-अनजाने फ्रेंड्स के साथ सोशल मीडिया पर समय बिताना, तरह-तरह से वायरल होना। बुजुर्ग माता-पिता तो बस नई जेनरेशन का जरा सा साथ, कुछ पल उससे बोल-बतिया लेना चाहते हैं।
भूलना नहीं चाहिए कि वे उस वक़्त में हमारे साथ हुआ करते हैं, जब हम बोल नहीं पाते हैं, अपने पैरों से चल नहीं पाते हैं, वे उंगलियां थामे हमे एक-एक शब्द उचारना, एक-एक कदम रखना सिखाते हैं ताकि हम डगगमाकर कहीं गिर न जाएं। जब उनकी डगमाती आवाज, डांवाडोल बूढ़े कदम संभालने की हमारी बारी आती है, हम चमक-दमक वाली दुनियादारी में डुबकियां मारते हुए उनके लिए पराए हो जाते हैं। और तो और, उनसे कुछ सीखने की बजाय, हम उनके गहरे-लंबे अनुभवों से अनजान उल्टे उन्हे ही सीख देने लगते हैं। बुढ़ापा कोई उम्र नहीं, एक मुकम्मल किताब होती है, जो उसे नहीं पढ़ना चाहता, खुद अपनी अनुभवहीनताओं की जिंदगी भर कीमत चुकाता रहता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि बुजुर्गों के लिए उदासी से ज्यादा गुस्सा नुकसानदेह होता है। मगर वे करें तो क्या करें। बढ़ती उम्र के साथ उनकी मनोवैज्ञानिक एक बड़ी समस्या अकेलापन, संवादहीनता हो जाती है। यद्यपि उनके पास सबसे उम्दा अनुभवों की जमा-पूंजी होती है। वे चाहते हैं कि उनके परिजन उनकी मिल्कियत के अलावा अनुभवों की भी वह जमा-पूंजी साझा करें लेकिन बड़ी पुरानी कहावत है- 'घर की मुर्गी साग बराबर'। ऊले-ऊले कूद रही नई पीढ़ी बुजुर्गों के साथ कत्तई वक़्त नहीं बिताना चाहती है। यह अकेलापन बड़ों के मन को बहुत कचोटता है।
इससे निपटने का सरल उपाय यह हो सकता है कि उनको कुछ नई रुचियों के प्रति उत्साहित किया जाए, जो उनके स्वभाव तथा स्वास्थ्य के अनुकूल हों। यदि हमारे बुजुर्ग मानसिक रूप से समर्थ होंगे, उसका सकारात्मक प्रभाव उनके ही स्वास्थ्य पर नहीं, बल्कि पूरे समाज की सेहत पर होगा। बढ़ती उम्र के साथ बुजुर्गों के घुटनों में दर्द, आंखों की कमजोरी सताने लगती है। उनकी सोचने-समझने की शक्ति बच्चों की तरह मासूम भावुकता वाली हो जाती है। आजकल के इस खुरदरे वक़्त में बुजुर्गों की यही मासूमियत, यही भावुकता नई पीढ़ी के लिए औषधि की तरह बड़ी सुखकर हो सकती है लेकिन समझाए कौन, कुएं में भांग जो पड़ी है।
दिल्ली के कई बुजुर्ग तो टाइम पास के लिए आजकल अपने रोजमर्रा में मेट्रो का टाइम टेबल सेट किए रहते हैं। दोपहर का भोजन कर निकल पड़ते हैं मेट्रो सफर पर। पास बनवा रखा है। आराम से समय बिताते हुए शाम को ही घर लौटते हैं और खा-पीकर चारपाई पकड़ लेते हैं। दिल्ली में कभी मेट्रो की ऐसी भी भूमिका हो जाएगी, ये तो शायद कभी ई. श्रीधरन ने भी नहीं सोचा होगा। जो जितना बुजुर्ग होता है, उसके अनुभवों की किताब उतनी मोटी, उतनी पठनीय होती है। कश्मीर दिर मीर बताते हैं कि वे दुनिया के सबसे बुर्जुग व्यक्ति हैं।
दावा करते हैं कि सरकारी दस्तावेजों में उनकी उम्र 141 साल है। वह गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्सर के लिए दावा भी कर चुके हैं। वैसे दुनिया की सबसे उम्रदराज 115 वर्षीय जापानी मिसाओ ओकावा को बताया जाता है। पहाड़ी भाषा बोलने वाले मीर सबसे बुजुर्ग ही नहीं, सबसे लंबी जिंदगी जीने का रिकॉर्ड भी अपने नाम दर्ज करा सकते हैं। सबसे ज्यादा समय तक जीने का रिकॉर्ड 122 वर्षीय फ्रांसीसी महिला जीने कामेंट के नाम है।
वडोदरा (गुजरात) में है रावपुरा रोड का सीनियर सिटीजन ग्रुप। वे बुजुर्ग कहते हैं- हम शरीर से भले ही बूढ़े हो गए हों, हमारा दिल अभी जवान है। जमाने के साथ हम भी जिंदगी पूरे जोश के साथ जीना चाहते हैं लेकिन हमारे बच्चों को हमारी मौजूदगी फूटी आंख नहीं सुहाती है। उल्टे हमे ही उनका लिहाज करना पड़ता है। इसलिए वे अब अपनी बची-खुची जिंदगी में जी भरकर आनंद नहीं ले पाते हैं। इसलिए हमें टेरेस पर न जाकर अपने दोस्तों के साथ घर से बाहर निकलकर मोबाइल में फिल्में देखकर जी बहलाना पड़ता है। घर में विवाहित बेटे, बहू और पोते-पोतियां हैं, वहां हमें फर्जी औपचारिकताएं निभानी पड़ती हैं, बात-बात पर उनकी नाराजगी झेलनी पड़ती है। इसलिए हम सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक एक तयशुदा स्थान पर मिलते हैं। वहां हम आपस में सुखद मनोरंजन भी करते हैं। हमारा ग्रुप प्रायः सेव उसल, भजिया, होटल, रेस्टारेंट में जाकर पार्टी भी करता रहता है। आज जमाना बदल गया है तो हम भी जमाने के साथ चल रहे हैं।
बुजुर्गों का जिंदगीनामा वैसे ही मालूम पड़ता है, जैसे- हरि अनंत, हरिकथा अनंता। 'आस्था वरिष्ठ जन परिषद', गुडम्बा मार्ग, लखनऊ (उ.प्र.) के मैनेजर डॉ. विश्वजीत बताते हैं कि उनके यहां लोग मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार अपने बूढ़े मां-बाप को छोड़ जाते हैं लेकिन मैं अपने घरेलू जीवन में कभी ऐसा नहीं करूंगा। कभी-कभी इन्हे संभालना बहुत मुश्किल हो जाता है। ये बच्चों जैसे हैं। इनमें कई को उनके परिवार वाले छोड़ गए हैं। कई बुजुर्ग ऐसे हैं, जिनसे वर्षों से कोई मिलने नहीं आया है। इन दिनो इस वृद्धाश्रम में कनवर्टेड क्रिश्चियन सत्यवती सरताज सिंह, बुजुर्ग करुणा मिश्रा, रामलाल, शकीरा खातून, प्रहलाद अग्रवाल, अरुण ओहरी, ईरा रॉय, मालती टंडन आदि हैं। रामलाल की पत्नी और उनके दोनो बेटे अमेरिका में रहते हैं। ईरा रॉय पूर्व पुलिस अधीक्षक हैं। अरुण ओहरी कभी एक राष्ट्रीय अख़बार में विज्ञापन का काम देखते थे।