भास्कर जोशी के नवाचार से देश की सुर्खियों में आया अल्मोड़ा का एक स्कूल
"दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र अल्मोड़ा के एक गांव में मामूली से प्राइमरी स्कूल को अपनी कठिन तपस्या से देश की सुर्खियों में ला चुके भास्कर जोशी उत्तराखंड की एक ऐसी प्रेरक हस्ती बन चुके हैं, जिन्हे हाल ही में केंद्र सरकार ने नवाचारी अवॉर्ड से नवाज़ा है। अरविंदो सोसायटी ने उनके नवाचारों पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की है।"
हाल ही में केन्द्र सरकार की ओर से नई दिल्ली के मानेक्शा केंद्र में राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद के अंतरराष्ट्रीय 'जर्नी ऑफ टीचर एजुकेशनः लोकल टू ग्लोबल' रजत जयंती समारोह में मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने अल्मोड़ा (उत्तराखंड) के राजकीय प्राथमिक विद्यालय बजेला धौलादेवी के सहायक अध्यापक भास्कर जोशी को राष्ट्रीय नवाचारी अवॉर्ड से सम्मानित किया है।
भास्कर जोशी अपने विद्यालय के ऐसे एकल शिक्षक हैं, जो पिछले करीब छह वर्षों से यहां की छात्र संख्या दस को 26 तक पहुंचा चुके हैं। शिक्षा में शून्य निवेश नवाचार के लिए अरबिंदो सोसायटी इस विद्यालय का चयन कर चुकी है। जोशी सोशल मीडिया के व्हाट्सएप, ट्विटर, ब्लॉग के अलावा फेसबुक प्लेटफॉर्म से भी अपने स्कूल की गतिविधियों को हमेशा सुर्खियों में बनाए रखते हैं। वह राज्य के इस अत्यंत दुर्गम पहाड़ी इलाके में शिक्षा के प्रसार को अपनी पहली प्राथमिकता मानते हैं। वह वर्ष 2005 से संचालित इस स्कूल में लगातार तरह-तरह के नवाचारी प्रयोग करते रहते हैं।
उल्लेखनीय है कि अल्मोड़ा जिले से लगभग साठ किलोमीटर दूर दुर्गम एवं विकास से वंचित गाँव बजेला तक पहुँचने के लिए वाहन के बाद एक नदी पार कर छह किलो मीटर का पैदल पहाड़ी रास्ता तय करना पड़ता है। इस गाँव में सरकारी सुविधाएँ न के बराबर हैं। वर्ष 2013 में जोशी को अपने शिक्षक करियर की पहली पोस्टिंग बजेला गाँव के राजकीय प्राथमिक विद्यालय के सहायक अध्यापक के तौर पर मिली। वह शिक्षण के शुरुआती दिनों की यादें ताज़ा करते हुए बताते हैं कि जब वह पहली बार वहाँ पहुंचे थे, स्कूल एकदम बदहाली में था।
सिर्फ दस बच्चों के नाम स्कूल रजिस्टर में दर्ज थे और वे भी कभी कभार ही स्कूल आते थे। उनके अभिभावक भी पूरी तरह बेपरवाह थे, जो अपने बच्चों पशु चराने के लिए भेज देते थे। ऐसे हालात में उन्होंने सोचा कि अगर वह भी तबादला कराकर यहां से खिसक लेते हैं, इन दस बच्चों का भविष्य भी तबाह हो जाएगा। उसके बाद उन्होंने संकल्प लिया कि इस स्कूल को सुधार कर ही यहां से सिधारेंगे।
इस स्कूल को ऐसे सुखद हाल में पहुंचाने में जोशी को कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। शुरुआती दिनो में उनको बजेला गाँव के हर घर पर दस्तक देनी पड़ी। गांव वालों के ताने-उलाहने झेलने पड़े। कई अभिभावक तो अपनी आंचलिक भाषा-बोली में उनको गालियां देने से भी बाज नहीं आए लेकिन वह अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उन स्थितियों से कत्तई विचलित नहीं हुए। हां, ये बात उन्हे जरूर तकलीफ़ पहुंचाती थी कि वे अभिभावक किसी शरारत वश नहीं, बल्कि आर्थिक मजबूरी में अपने बच्चों को बकरियां चराने भेज देते हैं ताकि चार पैसे की कमाई हो सके।
इस तरह उनका एक लंबा वक़्त अपने स्कूल के बच्चों के माता-पिताओं को समझाने-बुझाने में बीता। उसके बाद धीरे-धीरे पशुओं को चराना छोड़छाड़ कर बच्चे नियमित रूप से स्कूल आने लगे।
जोशी बताते हैं कि जब अल्मोड़ा जिले के सरकारी स्कूलों के लिए प्रशासन ने रूपांतरण परियोजना शुरू की तो उसमें बजेला के स्कूल को शामिल ही नहीं किया गया। उसके बाद उन्होंने जिलाधिकारी नितिन भदौरिया को पत्र लिखकर पूरे हालात से अवगत कराया ताकि सरकारी मदद से वहां का पठन-पाठन और अधिक सुदृढ़ किया जा सके। अपने पत्र में उन्होंने डीएम से वादा भी कर डाला कि प्रशासन से मदद मिले तो वह इस स्कूल को पूरे देश की सुर्खियों में ला सकते हैं। उसके बाद उनका स्कूल भी प्रशासन की रूपांतरण परियोजना का हिस्सा बन गया।
आज इस स्कूल में बच्चों के लिए कंप्यूटर, स्मार्ट क्लास, फर्नीचर, पेयजल, खेलकूद का सामान, प्रोजेक्टर आदि उपलब्ध हो गए हैं। स्कूल भवन की मरम्मत भी करा दी गई है। उन्होंने यहां के बच्चों को शाम को ट्यूशन के लिए भी गांव की ही शिक्षित युवतियों को डेढ़-डेढ़ हजार रुपए मानदेय पर नियुक्त कर रखा है।
वह लगातार स्कूल में नवाचारी प्रयोग करते रहते हैं। बच्चों के लिए वह तरह-तरह के नए-नए कोर्स तैयार करते रहते हैं। उनमें प्रकृति प्रेम और कलात्मक अभिरुचियों को प्रोत्साहित करते हैं। उन्होंने बच्चों के पाठ्यक्रम को अलग-अलग श्रेणियों में सूचीबद्ध कर रखा है, मसलन, भाषा दिवस, प्रतिभा दिवस, नो बैग डे, बाल विज्ञान उद्यान दिवस, हरित कदम दिवस, नशा-मुक्ति अभियान दिवस, सामुदायिक सहभागिता दिवस आदि।
बच्चों को खेल-खेल में विज्ञान का पाठ पढ़ाया जाता है। प्रतिभा के विकास के लिए उनसे कहानियां और कविताएं लिखवाई जाती हैं। अब स्कूल के बच्चे टॉफ़ी के रेपर, पॉलीथिन इकट्ठे कर गुलदस्ते बनाते हैं, पौध रोपण करते हैं, अपना किचन गार्डन सजाते हैं। वह कोशिश कर रहे हैं कि निकट भविष्य में इसी स्कूल परिसर में क्षेत्र के पढ़े-लिखे बेरोजगारों को कंप्यूटर का प्रशिक्षण भी मिले।