विश्व इतिहास की एक महानायक 'मां' निलोवना
भारतीय समाज में आज सर्वश्रेष्ठ परिजन के रूप में प्रतिष्ठित है, हमारे देश में इस मां को प्रायः एक भावुकतापूर्ण आदर-मान देकर काम चला लिया जाता है लेकिन विश्व साहित्य के इतिहास में एक ऐसी 'मां' का प्रतिनिधि चरित्र रेखांकित हुआ है, जो पूरी दुनिया के लिए मिसाल मानी जाती है।
श्रमजीवी समाज को नायकत्व से प्रतिष्ठित करने वाले प्रसिद्ध उपन्यासकार मक्सिम गोर्की के उपन्यास 'मां' के सम्बंध में वैसे तो बहुत कुछ लिखा गया है, लेकिन इसके नायक पावेल व्लासोव की मां एवं रचना की केंद्रीय पात्र निलोवना में जो अभिलाक्षणिकताएँ निरूपित की गई हैं, उनमें से बहुतेरी वास्तविक जीवन के दो चरित्रों से उधार ली गई हैं। वर्ष 1906 में ‘माँ’ सबसे पहले अंग्रेज़ी भाषा में प्रकाशित हुई थी। यह पुस्तक आज भी समूची दुनिया के पाठकों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय है। दुनिया की पचास से अधिक भाषाओं में इसके सैकड़ों संस्करण निकल चुके हैं और करोड़ों पाठकों के जीवन को इसने प्रभावित किया हैइस पुस्तक की आदर्श 'मां' ने पूरी दुनिया को संदेश दिया है कि नारी महापरिवर्तन की जनक बन सकती है। समाज में उसकी सर्वश्रेष्ठ भूमिका होती है। वह बूढ़ी माँ क्रांति का बिगुल फूँकती है, पुलिस और जासूसों को धोखा देती हुई क्रांतिकारियों तक, एक स्थान से दूसरे स्थान तक, संदेशवाहक का काम करती है।
फिलहाल, आइए कुछ ऐसी मांओं से रू-ब-रू होते हैं, जिन्होंने कठिन, विपरीत हालात में सब दुख-संताप झेलते हुए अपनी संतानों को शिखर तक पहुंचाया है।
ऐसी ही एक मां हैं, झज्जर (हरियाणा) के आर्य नगर निवासी 48 वर्षीय मीना देवी, जिनकी शादी के तीन साल बाद ही दिल्ली निवासी पति ज्ञानचंद की मृत्यु हो गई थी। इसके शुरू हुआ मीना के जीवन का अंतहीन संघर्ष। एक बार तो मीना जिंदगी से तंग आकर खुदकुशी करने जा रही थीं लेकिन अपनी एक वर्ष की बिटिया इंदू का चेहरा देखकर ठिठक गईं और तय किया कि नहीं, अब वह खुद इंदू की बेहतर परवरिश में झोक देंगी। उसके बाद उन्होंने इंदू को उच्च शिक्षा ही नहीं दिलाई, उसकी शादी एक संपन्न परिवार में करने के साथ ही उसे जिमनास्ट बनाया। बाद में इंदू जिम्नास्ट की नेशनल प्लेयर बनीं। इसीलिए कहते हैं कि 'मां के आंचल में जन्नत' होती है। ऐसी ही एक अवॉर्डेड, अनोखी मां हैं सिंधुताई, जिनकी परवरिश में डेढ़ हजार अनाथ बच्चे इन दिनो संरक्षण पा रहे हैं।
एक मां हैं, आजमगढ़ (उप्र) की माला गुप्ता, जिन्होंने पति की मौत के बाद ठेले पर पानी-पूरी बेचकर अपनी चार बेटियों खुशबू, सुगंध, ममता, मोनी की कठिन वक्त में भी अच्छी परवरिश दी है। इसी तरह सिंगल मदर लखनऊ (उ.प्र.) आरजे वीरा, जिन्होंने 'चाइल्ड एडॉप्शन सेंटर' से एक एब्नॉर्मल बच्ची गोद लेकर जीवन का पाठ पढ़ाया है। मुरैना और रतलाम (म.प्र.) की दो ऐसी मांएं हैं ममता राठौर और माला अहिरे, जिन्होंने अपनी किडनी देकर बेटे नरसिंह और योगेश को नई जिंदगी दी है। कचरा बीनकर परिवार का पेट पालने वाली इंदौर की देवी कौर ने तो बेटा राहुल डॉक्टर बना दिया है।
इसी तरह जयपुर (राजस्थान) के गांव सारंग का बास की विधवा मां मीरा ने अपनी तीन बेटियों को पढ़ा-लिखाकर अफसर बना दिया तो जयपुर रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करती हुई मां मंजू ने एक बेटी का चिकित्सक बना दिया है। अपनी संतानों की जिंदगियां खूबसूरत बनाने वाली और भी तमाम ऐसी मांएं हैं, जिन्हे हर कोई सलाम करता है। आइए, इस मदर्स डे के मौके पर एक और ऐसी मां को सलाम करते हैं, जिसने मां की भूमिका निभाकर एक नई मिसाल कायम की है। वह हैं नोहर (राजस्थान) की कलावती देवी, जिन्होंने एक साथ उनचालीस परिजनों का पालन-पोषण कर राह दिखाई है। उन्होंने संयुक्त परिवारों के आज बिखरने के दौर में अपने कुटुंब को न केवल एक साथ रहना सिखाया है, बल्कि उनके बेटे, पोते, पड़पोते आज एमबीए, डॉक्टर और इंजीनियर की पढ़ाई कर रहे हैं।
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