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अतुल्य भारत के सभ्य समाज से सम्वाद करता हाथ रिक्शा चालकों की फटी बेवाइयों से रिसता लहू

 हाथ रिक्शा चालकों पर योरस्टोरी की एक विशेष रिपोर्ट... 

1890 के दशक में इन रिक्शों के सड़कों पर उरतने से पहले कोलकाता के संभ्रांत परिवारों और जमींदारों के घर के लोग पालकी से चलते थे। लेकिन यह रिक्शा धीरे-धीरे पालकियों की जगह लेने लगा। इसकी एक वजह तो यह भी थी कि पालकी ढोने के लिए चार लोगों की जरूरत पड़ती थी, जबकि रिक्शे को महज एक व्यक्ति की दरकार पड़ती है।

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घर न होने के कारण अधिकांश रिक्शा चालकों का बसेरा बनता है फुटपाथ। जहां से कभी पुलिस तो कभी अराजक तत्वों के कारण आधी रात को कूच करना पड़ जाता है। कुछ खुशकिस्मत होते हैं जिन्हें खटाल या डेरा में रुकने की जगह मिल जाती है।

किसी गरीब के मजबूत हाथों से थामे गए रिक्शा पर इत्मिनान से बैठी सवारी को मंजिल तक पहुंचाने की जद्दोजहद में भद्रलोक की सड़कों पर दौड़ते क़दमों के साथ धौकनी की तरह चलती सांसों से उत्पन्न होता लाचारी...बेबसी और मजबूरी का फ्यूजन संगीत, २१वीं सदी में तरक्की के दावों को मुंह चिढ़ाता दिखाई पड़ता है। जी हाँ, बात हो रही है कोलकाता के हाथ रिक्शा चालकों की. यह वही हाथ रिक्शा है, जिसे बिमल रॉय की कालजयी फिल्म 'दो बीघा जमीन' में अभिनेता बलराज साहनी खींचते नजर आते हैं।

पसीने से तरबतर भीगी हुई देह पर पैबंद लगी कमीज, मंजिल तक पहुंचाने की जिद का साथ देते भीचें हुए ओठों पर थमी आह, थके कदमों पर पड़ी बेवाइयों की दरार में आसरा पाये दर्द से उपजी बेबसी, पस्त सांसों की थिरकन पर कदमताल करती लाचारी के हाथों से रिक्शा खींचते, हाथ रिक्शा चालक, 21वीं सदी में भी इंसान के गुलाम होने का अहसास करा देते हैं। कंक्रीट के जंगलों में तरक्की की बहुमंजली, बेहया नुमाइशों के दरम्यान काली सड़क पर बैलगाड़ी में जोते हुये बैलों की मानिंद इंसान को ढोता, हाथ रिक्शा चालक दरअसल इंसानियत की नाकामी की सबसे त्रासद तस्वीर है।

विडंबना है यह त्रासद तस्वीर 'सिटी ऑफ जॉय' के नाम से मशहूर कोलकाता की तमाम सड़कों पर दौड़ती हुई नजर आती है। वह कोलकाता, जो रवींद्र के संगीत में ढला है, विवेकानंद के दर्शन में पगा है, जो सर्वहारा के सिंहनाद से जगा है, उस ऐतिहासिक और भद्र शहर कोलकाता के दामन पर हाथ रिक्शा चालकों की फटी बेवाइयों से रिसते खून के धब्बे भी लगे हैं। विडम्बना कहिये या विरोधाभासी अधिनायकवाद का क्रूर अट्टहास कि हाथ रिक्शा को कोलकाता के गौरवशाली विरासत से जोड़ कर देखा जाता है।

जिसे (हाथ रिक्शा) बे-वजूद होना चाहिए था वह कोलकाता आने वाले विदेशी पर्यटकों के लिए विक्टोरिया मेमोरियल और हावड़ा ब्रिज के साथ कोलकाता की पहचान है। वैसे यह हाथ रिक्शा कोलकाता में बतौर परिवहन साधन नहीं बल्कि माल ढोने की मंशा से चीनी व्यापारियों द्वारा १९ वीं सदी के आखिरी दिनों में लाया गया था लेकिन बदलते समय के साथ ब्रिटिश शासकों ने इसे परिवहन के सस्ते साधन के तौर पर विकसित किया। धीरे-धीरे यह रिक्शा, कोलकाता की पहचान से जुड़ गया। ब्रिटिश भारत में यह रिक्शा महिलाओं की सबसे पसंदीदा सवारी थी।

1890 के दशक में इन रिक्शों के सड़कों पर उरतने से पहले कोलकाता के संभ्रांत परिवारों और जमींदारों के घर के लोग पालकी से चलते थे। लेकिन यह रिक्शा धीरे-धीरे पालकियों की जगह लेने लगा। इसकी एक वजह तो यह भी थी कि पालकी ढोने के लिए चार लोगों की जरूरत पड़ती थी, जबकि रिक्शे को महज एक व्यक्ति की दरकार पड़ती है। इसी किफ़ायत ने हाथ रिक्शा को कुलीन लोकप्रियता अर्जित करायी वहीँ अपनी एक विशिष्ट पहचान स्थापित करते हुए कोलकाता की पहचान के रूप में भी दर्ज कराया।

लेकिन अब वक्त बदल चुका है और भारत आज विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। एक ऐसा लोकतंत्र, जिसमे हर ख़ास और आम को बराबर के अधिकार हासिल हैं। एक ऐसा लोकतंत्र, जिसमे सती प्रथा, सिर पर मैला ढोने जैसी अमानवीय रवायतें दम तोड़ चुकी हैं। फिर क्या कारण है कि इंसान को बैल की मानिंद जोतने वाली इस सवारी को अभी तक पश्चिम बंगाल सरकार ने प्रतिबंधित क्यों नहीं किया ? सवाल यह भी है कि आखिर आम कोलकतावासी इस अमानवीय सवारी के विषय में क्या सोचता है ? वह कैसे इठला कर एक मानव के पीठ पर सवार होकर सहज रह सकता है? जिसे सभ्यता का कलंक समझना चाहिए आखिर उसे सिटी ऑफ़ जॉय की पहचान बताने के पीछे क्या है बेबसी ? कुछ ऐसे ही सवालों की तलाश में बहूबाजार की गलियों में भटकते हुए मुलाकात हुई, हाथ रिक्शा चालकों की त्रासदी पर डाक्युमेंट्री फिल्म हेरिटेज ऑफ थ्राल (HERITAGE OF THRALL) बना रहे प्रज्ञेश कुमार से।

कोलकाता की गलियों में फिल्म हेरिटेज आफ थ्राल की शूटिंग के दौरान हुए अनुभवों को साझा करते हुए प्रज्ञेश बताते हैं कि सामान्यतः हाथ रिक्शा चालक कोलकाता के नहीं होते, वो बिहार, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों के रहने वाले होते हैं । अत्यंत मेहनतकश काम होने के बावजूद दशकों से अनवरत उपरोक्त इलाकों से रोजगार की तलाश में हांथ रिक्शा चालकों का आना बदस्तूर जारी है।

चूंकि वह अप्रवासी होते हैं लिहाजा उनके पास का शिनाख्ती कार्ड (पहचान पत्र) अपने मूल स्थान का होता है, इस कारण वह सरकार द्वारा प्रदान की जा रही कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हो जाते हैं। और विडंबना यह भी है कि लंबे समय से अपने घर से दूर रहने के कारण मूल स्थान के पहचान पत्र से भी हाथ धो बैठते हैं। जैसा कि भागलपुर बिहार के मैकू बताते हैं कि पूरी जिंदगी कोलकाता के फुटपाथ पर बीत गई। मेरे दौड़ते पैरों ने न जाने कितने अनगित लोगों को उनके घर-मकान तक पहुंचाया है। लेकिन मेरा कोई मकान नहीं बन पाया। अब तो गांव में भी जो 'कारड' बना था, प्रधान ने यह बता कर खत्म कर दिया कि अब मैकू यहां नहीं रहते।

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घर न होने के कारण अधिकांश रिक्शा चालकों का बसेरा बनता है फुटपाथ। जहां से कभी पुलिस तो कभी अराजक तत्वों के कारण आधी रात को कूच करना पड़ जाता है। कुछ खुशकिस्मत होते हैं जिन्हें खटाल या डेरा में रुकने की जगह मिल जाती है। डेरा यानी गैराज, रिपेयर सेंटर और शयनागार का एक मिलाजुला रूप। जो लोग इन 'विलासिताओं' का खर्च नहीं उठा पाते हैं वे सड़कों पर सोने को मजबूर हैं।

लेकिन यह भी बड़ा कौतुकपूर्ण है कि बसों, ट्रामों, कारों–मोटरों समेत परिवहन के अन्यान्य साधनों की प्रचुर उपलब्धता होने के बावजूद भी हाथ रिक्शा अपनी उपयोगिता कायम रखे हुए हैं. दरअसल इस हाथ रिक्शे की पहुंच कोलकाता की तमाम ऐसी गलियों तक है जहां कोई दूसरी सवारी विकल्प के रूप में उपलब्ध नहीं होती है। बारिश के दिनों में तो 'लाइफ लाइन' की भूमिका निभाते हैं यह रिक्शे । बीमारों, स्कूली बच्चों और बुजुर्गों को बरसात के कहर से बचाने में इनकी उपयोगिता सवालों से परे है। कोलकाता में तो बारिश का आना-जाना लगा ही रहता है।

कल्पना करिये कि जब सड़कें पानी में डूबी हुई हों और नालियां उफान पर हों तो लोग घर से कैसे निकलेंगे? ऐसे हालातों में इंसानी ताकत से खींचे जाने वाले यह रिक्शे सबसे सशक्त विकल्प बनते हैं क्योंकि मशीन के इंजन की तरह न तो इन रिक्शों का इंजन खराब होता है और न यह पानी के बीच में बंद हो सकते हैं। बड़ा बाजार, बहु बाजार, कालेज स्ट्रीट, श्याम बाजार जैसी तंग हाल गलियों वाले इलाकों में इसके अलावा कोई दूसरी सवारी घुस ही नहीं सकती है। मजबूरन ही सही, पेशे को अमानवीय मानने वाली एक बड़ी आबादी भी बरसात में हाथ रिक्शा की सवारी करती है।

झमाझम बरसते पानी में पेट की आग को बुझाने के लिये सरपट दौड़ते, 'लाइफ लाइन' बने गाड़ीवान किसी मेनहोल में गिरकर अपनी 'लाइफ' से कब हांथ धो बैठेंगे, इसे कोई नहीं जानता। अगर वहां बच भी गये तो पुलिस के मजबूत हाथों का शिकार बनने से कोई नहीं बचा सकता। लाइसेंस और ट्रैफिक नियम की आड़ में खुलकर शोषण होता है इनका।

चूंकि 2005 के बाद नये लाइसेंस बनने बंद हो गये थे, लिहाजा अपनी आजीविका सुरक्षित रखने के लिये पुलिस की सरपरस्ती गाड़ीवानों के लिये आवश्यक हो जाती है। रिक्शा चालकों के गाढ़े पसीने की कमाई में ट्रैफिक पुलिस का बड़ा हिस्सा होता है।

यहां यह जानना भी आवश्यक है कि लगभग रिक्शा चालकों के पास अपना रिक्शा नहीं होता है। अधिकतर हाथ रिक्शे किराए पर ही चलाये जाते हैं गाड़ीवानों के द्वारा। किराया भी शिफ्टों के मुताबिक मुकर्रर होता है। मतलब सामान्यत: सुबह छह बजे से रात के 12 बजे के मध्य एक रिक्शे को दो या तीन चालक किराए पर लेते हैं। रिक्शा मालिक हर शिफ्ट के 25 से 30 रुपये किराए के रूप में लेता है। रिक्शे के रख-रखाव के लिये अनेक कानून हैं। प्रत्येक रिक्शे को हर साल फिटनेस प्रमाणपत्र लेना पड़ता है। नगर निगम के ट्रेड कैरेज लाइसेंस, नंबर प्लेट और रोड परमिट समेत अनेक लाइसेंस लेने पड़ते हैं रिक्शा मालिक को । और यह सब प्राप्त करने में 'सुविधा शुल्क ' की चाशनी रिक्शा चालक के खारे पसीने की कमाई से चुकाई जाती है।

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यहां यह समझने की भी जरूरत है कि रिक्शा चालन का कार्य बाई च्वाइस नहीं, बाई फोर्स है। तो वह कौन से हालात होंगे जब एक इंसान, दूसरे इंसान को ढोने के लिये विवश होता है। वह कौन लोग हैं जो हाथ रिक्षा चलाने को मजबूर होते हैं। कमोबेश सभी की दास्तान 'दो बीघा जमीन' के बलराज साहनी अभिनीत किसान 'शंभू महतो' जैसी ही ही है, जिसे अपनी जमीन छुड़ाने के लिए इस रिक्शे को खींचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। कोलकाता की सड़कों पर आपको ऐसे ही कई 'शंभू महतो' मिल जाएंगे जो कभी अपनी जीविका तो कभी किसी मजबूरी की वजह से इन रिक्शों को खींच रहे हैं।

हांफती सांसों में बिखरते जीवन को समेटने की जद्दोजहद में मसरूफ हाथ रिक्शा चालक के हाथों से जिंदगी कब अपना दामन खींचने लगती है, यह वह भी नहीं जान पाता। और एक दिन उसकी मेहनतकश दिनचर्या के मेहनताने के एवज में वक्त उसे नवाजता है दमा, टीबी और फेफड़े से जुड़े तमाम सारे रोगों से, जो लम्हा दर लम्हा उसे जिंदगी से दूर ले जाते हैं ...

ऐसी नहीं है कि सरकार ने हाथ रिक्शा चालन को अमानवीय नहीं माना। बल्कि बुद्धदेब भट्टाचार्य की अगुवाई वाली कम्युनिस्ट सरकार ने इन रिक्शों पर कलकत्ता वाहन विधेयक (संशोधित) के तहत पूरी तरह से प्रतिबंध सुनिश्चित करने की मंशा से वर्ष 2006 में विधानसभा में पेश भी किया गया था। उस समय इस प्रस्ताव को रिक्शा चालकों की ट्रेड यूनियनों की ओर से खासे विरोध का सामना करना पड़ा था। यूनियनें रिक्शा चालकों के पुनर्स्थापना से जुड़े पैकेजों को लेकर आश्वस्त नहीं थीं। सरकार भी उस समय इन रिक्शा चालकों की बेहतर जिंदगी से जुड़े विकल्पों को उनके सामने रखने में असफल रही। और अंत में हाई कोर्ट ने इस पर स्टे लगा दिया। हालांकि, वर्ष 2005 में हाथ से खींचने वाले रिक्शा के लिए लाइसेंस की व्यवस्था खत्म कर दी गई लेकिन रिक्शावाले यूनियनों की ओर से जारी समर्थन की बदौलत अपना काम कर रहे हैं।

वैसे यदि सरकार के पास इच्छाशक्ति होती तो बहुत पहले ही इनका पुनर्वास हो सकता था। चेन्नई नगर निगम की फुर्ती से सरकार सबक ले सकती है। सन 1972 से पहले चेन्नई (उस समय उसका नाम मद्रास था) में हाथ रिक्शे का चलन था। तत्कालीन सरकार ने बहुत ही कम समय में हाथ रिक्शा वालों को तीन चक्के वाला रिक्शा उपलब्ध कराया। वहां एक को-ऑपरेटिव बनाई गई, जिसके सदस्य हाथ रिक्शा चालक ही थे। बंगाल अगर पहले सोचता है और देश बाद में तो इस मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ?

खैर, जिस त्रासदी पर सभ्यता, सियासत और सरकार सभी खामोश हैं उस मुद्दे का किसी युवा फिल्मकार का विषय होना संवेदना के बचे होने का अहसास करता है। प्रज्ञेश कहते हैं डाक्यूमेंट्री फिल्म HERITAGE OF THRALL शूट करते समय जब हम हाथ रिक्शा चालकों से मिल रहे थे, उनके सामाजिक जीवन को समझने की कोशिश कर कर रहे थे, मुझे हैरतजदा ख़ुशी हुई कि एक दर्द, जो सदियों से बेजुबान था। एक ख़याल, जो दशकों गुमनाम था। एक आह, जो कभी गूंजी ही नहीं, वो हक़ जो कभी माना ही नहीं गया, वो कलंक, जो सदियों से विरासत का टीका है, वो गुलामी, जो गौरव का कारण है, को हम २१वीं सदी में आवाज देने जा रहे हैं।

खैर, रिक्शा चालक भी अब शिकायत नहीं करते हैं उन्हें सिर्फ पुनर्वास का इंतजार है। कशमकश उस बात को लेकर है कि सरकार इन्हें साइकिल रिक्शा देगी या ऑटो रिक्शा! अथवा बैटरी से चलने वाले रिक्शे देगी, जिसे चलाने के लिए किसी ड्राइविंग लाइसेंस की जरूरत नहीं होती। पुनर्वास के दौरान उन रिक्शा चालकों का क्या होगा, जिनके पास न लाइसेंस है ओर न ही पहचान पत्र। इसी उधेड़बुन में सवारी को जल्दी मुकाम तक छोडऩे की दौड़ में 'दो बीघा जमीन' का 'शंभू महतो' नंगे पैर दौड़ता जा रहा है...दौड़ता जा रहा है और जिंदगी की जंग हारता जा रहा है।

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