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कितने पाकिस्तान से राजा निरबंसिया तक कमलेश्वर

साहित्य जगत में कमलेश्वर जैसे बहुमुखी और करिश्माई व्यक्तित्व के लोग कम ही हुए हैं। उनके लेखन में कई रंग देखने को मिलते हैं।

कितने पाकिस्तान से राजा निरबंसिया तक कमलेश्वर

Saturday January 06, 2018 , 7 min Read

हिंदी के शीर्ष लेखक-पत्रकार कमलेश्वर का मूल नाम था कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना। वह बहुआयामी रचनाकार थे। उन्होंने सम्पादन क्षेत्र में भी एक प्रतिमान स्थापित किया। 'नई कहानियों' के अलावा 'सारिका', 'कथा यात्रा', 'गंगा' आदि पत्रिकाओं का सम्पादन तो किया ही 'दैनिक भास्कर' के राजस्थान अलंकरणों के प्रधान सम्पादक भी रहे...

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कमलेश्वर ने कई एक फिल्मों के लिए डायलॉग और कथानक भी लिखे।कमलेश्वर का जन्म 6 जनवरी 1932 को मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उन्होंने 1954 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। उनके कई उपन्यासों पर फिल्में भी बन चुकी हैं।

साहित्य जगत में कमलेश्वर जैसे बहुमुखी और करिश्माई व्यक्तित्व के लोग कम ही हुए हैं। उनके लेखन में कई रंग देखने को मिलते हैं। अदीबों की अदालत की बात करता उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा गया। 

बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में एक कमलेश्वर का जन्म 6 जनवरी 1932 को मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उन्होंने 1954 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। उनके कई उपन्यासों पर फिल्में बनीं। साथ ही लोकप्रिय टीवी सीरियल 'चन्द्रकांता', 'दर्पण', 'एक कहानी' जैसे धारावाहिकों की पटकथा लिखी, साथ ही कई वृतचित्रों और कार्यक्रमों का निर्देशन भी किया। उन्होंने दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक का महत्वपूर्ण दायित्व भी निभाया।

उनकी प्रमुख औपन्यासिक कृतिया हैं- एक सड़क सत्तावन गलियाँ, तीसरा आदमी, डाक बंगला, समुद्र में खोया हुआ आदमी, काली आँधी, आगामी अतीत, सुबह..दोपहर...शाम, रेगिस्तान, लौटे हुए मुसाफिर, वही बात, एक और चंद्रकांता, कितने पाकिस्तान, कहानी संग्रह हैं- जॉर्ज पंचम की नाक, मांस का दरिया, इतने अच्छे दिन, कोहरा, कथा-प्रस्थान, मेरी प्रिय कहानियाँ, नाटक हैं- अधूरी आवाज, रेत पर लिखे नाम और संस्मरणात्मक कृतिया हैं- जो मैंने जिया, यादों के चिराग, जलती हुई नदी। कमलेश्वर ने 99 फिल्मों के संवाद, कहानियां और पटकथाएँ भी लिखीं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं - सौतन की बेटी, लैला, यह देश, रंग बिरंगी, सौतन, साजन की सहेली, राम बलराम, मौसम, आंधी आदि। उनको पद्मभूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि से सम्मानित किया गया। 27 जनवरी 2007 को उनका दिल्ली में निधन हो गया। राजेंद्र यादव ने उनके देहावसान पर कहा था कि कमलेश्वर का जाना मेरे लिए हवा-पानी छिन जाने जैसा है। कमलेश्वर की अंतिम अधूरी रचना अंतिम सफर उपन्यास है, जिसे कमलेश्वर की पत्नी गायत्री कमलेश्वर के अनुरोध पर तेजपाल सिंह धामा ने पूरा किया और हिन्द पाकेट बुक्स ने उसे प्रकाशित किया और बेस्ट सेलर रहा।

साहित्य जगत में कमलेश्वर जैसे बहुमुखी और करिश्माई व्यक्तित्व के लोग कम ही हुए हैं। उनके लेखन में कई रंग देखने को मिलते हैं। अदीबों की अदालत की बात करता उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा गया। साहित्य जगत को उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 2006 में पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया। साहित्य अकादमी ने उन्हें उनके उपन्यास, 'कितने पाकिस्तान' के लिए 2003 में अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया था। कहानीकार और उपन्यासकार के अतिरिक्त सम्पादन, पत्रकारिता, अनुवाद और फिल्म पटकथा और संवाद लेखन कमलेश्वर के व्यक्तित्व के बिलकुल अलग-अलग आयाम रहे, जिन्हें एक में मिलाकर नहीं देखा जा सकता।

कमलेश्वर की कलम से निकलने वाले शब्दों का रंग स्याह न होकर पानी जैसा था, जिस भी विधा को वह छूती, उसी के रंग और लहजे में खुद को ढाल भी लेती फिर भी उनका कमलेश्वरी तर्ज उनके हर लिखे में दस्तखत की तरह मौजूद और मौजूं दिखता। यह कमलेश्वर का स्थायी सिग्नेचर टोन है, सामाजिक विषमताओं का अंकन और उसके प्रति एक मूलभूत विद्रोह वाला स्वर।

कमलेश्वर के कुछ ख़ास सृजन में 'काली आंधी', 'लौटे हुए मुसाफ़िर', 'कितने पाकिस्तान', 'तीसरा आदमी', 'कोहरा' और 'माँस का दरिया' शामिल हैं। हिंदी की कई पत्रिकाओं का संपादन किया लेकिन पत्रिका 'सारिका' के संपादन को आज भी मानक के तौर पर देखा जाता है। वह कई समाचार पत्रों के संपादक भी रहे। पुष्पपाल सिंह लिखते हैं- ‘नयी कहानी’ आंदोलन से अनेक कहानी-प्रतिभाएं साहित्य क्षेत्र में आयी थीं जिनमें कमलेश्वर, राजेंद्र यादव और मोहन राकेश की त्रयी का विशिष्ट महत्व है।

राजेंद्र यादव ने एक दौर में अच्छी कहानियां देकर अपने को उपन्यास लेखन में और बाद में पुस्तक व्यवसाय में प्रवृत्त किया, इधर दो-एक जो छिटपुट कहानियां यादव ने लिखीं, वे किसी भी दृष्टि से स्तरीय नहीं रहीं। केवल कामानुभवों के बुढ़भस अनुभव मात्र ‘हासिल’ जैसी कहानियों में आए। मोहन राकेश असमय ही क्रूर काल ने छीन लिये और वैसे भी बाद में उनका ध्यान कहानी से अधिक नाटक पर चला गया। इस त्रयी में एकमात्र कमलेश्वर ही ऐसे कहानीकार रहे, जिनका कहानीकार अंत तक सृजनशील रहा। प्रत्येक आंदोलन के दौर में और उन सबसे अलग कमलेश्वर की कहानी जब-जब आयी, उसने कहानी के प्रति, हिंदी कहानी के प्रति एक नया विश्वास जगाया। उनकी ‘राजा निरबंसिया’ कहानी आज भी पाठकों तथा आलोचकों के लिए उतनी ही आकर्षक बनी हुई है। कमलेश्वर ने स्वयं अपनी कहानियों के तीन दौर माने थे।

‘राजा निरबंसिया’ उनकी प्रथम दौर की दूसरी अत्यंत चर्चित कहानी है। यदि यह कहा जाये कि यही कहानी उन्हें हिंदी कथाकारों की अग्रिम पंक्ति में प्रतिष्ठित करने में सहायक बनी तो अत्युक्ति नहीं होगी। जादू वह जो सिर चढ़कर बोले। कमलेश्वर के विरोधियों, कटु आलोचकों ने भी इस कहानी को सराहा है। वर्ष 2010 में युवा कथाकार पंकज सुबीर ने अपने उपन्यास ‘ये वो सहर तो नहीं’ में समानान्तर कथा-शिल्प का प्रयोग करते हुए कमलेश्वर के प्रति आभार व्यक्त करते हुए ‘राजा निरबंसिया’ का ऋण स्वीकार किया है। वस्तुत: यह कमलेश्वर की अत्यंत सशक्त कथा है। यह कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर प्रभावित करती है और ‘नयी कहानी’ की लगभग समस्त प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व भी करती है।

‘राजा निरबंसिया’ कहानी आर्थिक विवशताओं, निरूपायताओं द्वारा दांपत्य सम्बंधों की मधुरिमा के कड़वाहट में बदलने, उन सम्बंधों के तिड़कने और टूटने की बेबसी तथा संतानहीन दंपति की सामाजिक स्थिति और मानसिक पीड़ा, उस पीड़ा-शमन के निमित्त पुत्र प्राप्ति की ललक आदि का बहुत मार्मिक चित्रण करती है। इस कथ्य को प्रभावी बनाने में लोककथा के समानान्तर-शिल्प का बहुत बड़ा हाथ है। लोककथा के माध्यम से वर्तमान के दु:ख-दर्द को जितनी कुशलता से इस कहानी में उकेरा गया है उतनी सफलता हिंदी की किसी अन्य कहानी को नहीं मिली है। शिल्प दृष्टि से यह कहानी हिंदी कथा के सम्मुख महती संभावनाओं के द्वार खोल देती है।

‘नयी कहानी’ ने बारंबार अपने को प्रेमचंद से जोड़ा था। प्रेमचंद भाषा-स्तर पर जो विरासत हिंदी कहानी की अभिव्यक्ति को दे गये थे, ‘राजा निरबंसिया’ उसका पूर्ण उपयोग करती है। लोककथा की सहज, सरल शैली में कहानी का प्रारंभ हमारे लोकजीवन को बहुत निकट से प्रस्तुत करता है। आटे का पुरा चौक, चौकी पर मिट्टी की छह गौरें, दीपक, मंगल-घट, रोली का सथिया (स्वास्तिक) आदि कहानी का यह वातावरण पाठक के मानस को एक आदिम स्तर पर प्रभावित कर कहानी को बच्चों के समान ही सुनने को उत्सुक कर देता है।

'मांस का दरिया' का प्रथम प्रकाशन हिन्दी कथा-साहित्य की एक विशिष्ट घटना और नयी कहानी की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में आँका गया था। हिन्दी कहानी के पाठक के लिए यह एक नितान्त नया अनुभव है। साथ ही नई हिन्दी कहानी के अध्येताओं के लिए भी 'मांस का दरिया' एक अपरिहार्य कहानी-संग्रह रहा है। इसीलिए कमलेश्वर के कहानी संग्रहों में 'मांस का दरिया' की मांग सर्वाधिक रही। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' भारत-पाकिस्तान के बँटवारे और हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर आधारित है। यह उनके मन के भीतर चलने वाले अंतर्द्वंद्व का सृजन माना जाता है। इस उपन्यास के ये शब्द सृजन की पूरी छवि आंखों के सामने रच जाते हैं- 'कितना लम्बा सफर है!

और यह भी समझ नहीं आता कि यह पाकिस्तान बार-बार आड़े क्यों आता रहा है। सलीमा! मैंने कुछ बिगाड़ा तो नहीं तेरा...तब तूने क्यों अपने को बिगाड़ लिया? तू हंसती है...पर मैं जानता हूं, तेरी इस हंसी में जहर बुझे तीर हैं। यह मेहंदी के फूल नहीं हैं सलीमा, जो सिर्फ हवा के साथ महकते हैं। हवा ! हंसी आती है इस हवा को सोचकर। तूने ही तो कहा था कि मुझे हवा लग गयी है। याद है उन दिनों की? तुम्हें सब याद है। औरतें कुछ नहीं भूलतीं, सिर्फ जाहिर करती हैं कि भूल गयी हैं।' दरअसल, इस उपन्यास में सदियों से चली आ रही विभाजन, हिंसा और प्रतिहिंसा की घटनाओं के मूल में जाने का प्रयास किया गया है। रुचिकर तरीके से ऐतिहासिक पात्रों से गवाही दिलवाई गई है।

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