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25 साल की उम्र में सेरेब्रल थ्रॉम्बोसिस और पैरालिसिस को मात देने वालीं महिमा

25 साल की उम्र में सेरेब्रल थ्रॉम्बोसिस और पैरालिसिस को मात देने वालीं महिमा

Monday November 13, 2017 , 7 min Read

सेरेब्रल थ्रॉम्बोसिस एक असामान्य मस्तिष्क विकार है। वयस्कों में इस स्थिति की शुरूआत की औसत आयु 39 साल है। लेकिन एक लड़की है, महिमा। 25 साल की है। डॉक्टर भी उसका केस देखकर पशोपेश में थे कि इतनी कम उम्र में ऐसी भयनाक बीमारी होना बड़ा ही रेयर केस था। लेकिन महिमा ने अपने जज्बे और जीजिविषा से इस बीमारी को हरा दिया।

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 सेरेब्रल थ्रॉम्बोसिस तब होता है जब मस्तिष्क के वीनस साइनस में खून का थक्का जम जाता है। यह रक्त को मस्तिष्क से बाहर निकलने से रोकता है। शिराओं और रक्त कोशिकाओं पर दबाव बढ़ जाता है, जिससे सूजन और शिराओंमें रक्तस्त्राव होने लगता है। लगभग 25 फीसद मामलों में इस रोग का सबसे आम लक्षण है- सिरदर्द।

आईएमए के अनुसार, लगभग 80 फीसदी रोगियों को पूरी तरह से ठीक करना संभव है। इस रोग की पुनरावृत्ति की दर लगभग 2-4 फीसद है। आंकड़ों के मुताबिक, यह एक लाख की आबादी में किसी एक व्यक्ति को होता है। इस बीमारी से ग्रसित करीब 5 फीसदी लोग बीमारी बिगड़ने पर मर जाते हैं, जबकि 10 फीसदी मरीज की मौत बाद में होती है। पुरुषों की तुलना में यह रोग महिलाओं में अधिक होता है।

सेरेब्रल थ्रॉम्बोसिस एक असामान्य मस्तिष्क विकार है। वयस्कों में इस स्थिति की शुरूआत की औसत आयु 39 साल है। लेकिन एक लड़की है, महिमा। वो 25 साल की है। डॉक्टर भी उसका केस देखकर पशोपेश में थे कि इतनी कम उम्र में ऐसी भयनाक बीमारी होना बड़ा ही रेयर केस था। लेकिन महिमा ने अपने जज्बे और जीजिविषा से इस बीमारी को हरा दिया। सेरेब्रल थ्रॉम्बोसिस तब होता है जब मस्तिष्क के वीनस साइनस में खून का थक्का जम जाता है। यह रक्त को मस्तिष्क से बाहर निकलने से रोकता है। शिराओं और रक्त कोशिकाओं पर दबाव बढ़ जाता है, जिससे सूजन और शिराओंमें रक्तस्त्राव होने लगता है। लगभग 25 फीसद मामलों में इस रोग का सबसे आम लक्षण है- सिरदर्द। आईएमए के अनुसार, लगभग 80 फीसदी रोगियों को पूरी तरह से ठीक करना संभव है। इस रोग की पुनरावृत्ति की दर लगभग 2-4 फीसद है। आंकड़ों के मुताबिक, यह एक लाख की आबादी में किसी एक व्यक्ति को होता है। इस बीमारी से ग्रसित करीब 5 फीसदी लोग बीमारी बिगड़ने पर मर जाते हैं, जबकि 10 फीसदी मरीज की मौत बाद में होती है। पुरुषों की तुलना में यह रोग महिलाओं में अधिक होता है।

महिमा एक पीआर एजेंसी में काम करती थीं। उनकी जिन्दगी काफी सलीके भरे जोश से चल रही थी। लेकिन आज से 6 महीने पहले ऐसा कुछ हुआ, जिसके बारे में उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। महिमा अभी इंडस्ट्री में अपना पैर जमाने की कोशिश में ही थी कि उनके साथ कुछ ऐसा हुआ जिसने उनकी अहमियत का एहसास दिला दिया। हर नौकरी की तरह उनके क्षेत्र में भी नौकरी निभाना चुनौतियों से भरपूर है। कभी क्लाइंट्स के लिए स्ट्रेटेजी अथवा कम्पैन तैयार करना तो कभी पत्रकारों को सटीक सूचना प्रदान करवाना। पत्रकारों और क्लाइंट के बीच इंटरव्यू लाइन उप करवाना हो या फिर पातकारों को किसी भी स्टोरी के लिए उचित आंकड़े दिलवाना हो,इन सबके बीच मानो दिन में खुद क लिए समय निकलना न के बराबर हो जाता है। सुबह 7 बजे उठकर घोड़े की तरह दफ्तर के लिए तैयार होना, मेट्रो के धक्के खाना, क्लाइंट मीटिंग, मीडिया राउंड्स इत्यादि। कब मामूली सा सर दर्द, हर दिन का थकान, नींद की कमी और भूख का मरना, जीवन का हिस्सा बन गया था एहसास ही नहीं हुआ। इसी लापरवाही का खामियाज़ा उन्हें 24 अप्रैल 2017 से लेकर आज तक भुगतना पड़ रहा है।

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जब जिंदगी थम गई-

योरस्टोरी से बातचीत में महिमा ने बताया, हर रोज की तरह उस सोमवार भी मैं जगी और हल्के सिर दर्द को दरकिनार कर जागने का प्रयास किया। पर न जाने क्यों उस सुबह बिस्तर से उठना भी मानो पहाड़ तोड़ने जैसा लग रहा था। खुशकिस्मती से मैं अपने चाचा के साथ रहती थी। उन्होंने इस सिर दर्द और कमजोरी को हीट स्ट्रोक मानकर मुझे राहत प्रदान करने के लिए नींबू पानी, आम पन्ना , सत्तू इत्यादि जैसी चीजों का सेवन करवाया। हैरत और चिंता तब बढ़ गयी जब मैं इन तरल पदार्थों को भी हजम नहीं कर पायी। मुझे अच्छी तरह से याद भी नहीं था कि उस दिन से पहले मैंने कब आखरी बार उलटी की थी। और तो और उलटी करने के लिए बिस्तर से उतरना भी कष्ट से भरा सफर हो चुका था। गिरते-लड़खड़ाते न जाने कहां-कहां चोटें लगी थी। चाचा की सतर्कता ने उन्हें एम्बुलेंस बुलाने का संकेत दिया और उन्होंने ठीक एक घंटे के अंदर मुझे एडमिट कर दिया। 

मुझे बखूबी याद है कि शरीर का बांया हिस्सा लगातार फड़फड़ा रहा था और दायां हिस्सा इतना कमजोर पड़ चुका था कि शरीर अपना संतुलन भी नहीं बना पा रहा था। और इसका असर स्ट्रेचर पर भी दिख रहा था। छटपट छटपट करते हुए कई बार स्ट्रेचर से भी गिरने की नौबत आ जाती थी। वो पूरा दिन मेरा ग्लूकोस के साथ स्ट्रेचर पर रोमांस करते हुए बिता। रात तक पापा भी कोलकाता से दिल्ली आ पहुंचे। कुछ विचार विमर्श के बाद मुझे दूसरे हॉस्पिटल में शिफ्ट कर दिया गया था, और ये सब आधी रात को हुआ था। अब तक पता नहीं कर पाया गया था कि आखिर हुआ क्या क्या था मुझे? तीन दिन ICU में रखने के बाद एवं विभिन्न टेस्ट्स कराने के बाद परिवार वालों को बताया गया कि ये सेरिब्रल थ्रोम्बोसिस का केस है,आम बोल चल में मुझे ब्रैनस्ट्रोक आया था जिसके कारण मेरे शरीर का दाहिना हिस्सा पूरा पैरालाइज्ड हो गया था।

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जिजीविषा और इच्छाशक्ति की मिसाल-

ये केस सिर्फ महिमा के परिवार के लिए ही नहीं, बल्कि डॉक्टर्स के लिए भी नया था क्योंकि उन्होंने भी इतने कम उम्र के किसी मरीज़ को इस तरह की परिस्थति का सामने करते हुए शायद ही देखा था। और शायद यही कारण भी बना महिमा के जल्दी रिकवर करने का। डॉक्टर्स ने कह दिया था इस उम्र में इसका सामना करना आसान है क्योंकि रिकवरी के लिए सबसे जरूरी था, सकारात्मक सोच, इच्छा शक्ति, धैर्य और हिम्मत। महिमा बताती हैं, इन सब से परिचय करवाने में मेरे परिवार वाले और दोस्तों ने कोई कसर नहीं छोड़ा। मम्मी पापा निरंतर मुझे हिम्मत से संभालते और प्रोत्साहित करते। वहीं दोस्तों की रोजाना हॉस्पिटल विजिट से मेरा मनोबल बढ़ता। मैं इस दौरान अपने फिजियोथेरपिस्ट्स और केयर टेकर के धैर्य के अहमियत को बखूबी महसूस कर सकती हूं। जिस हिम्मत से उन दोनों ने मुझे संभाला और फिर से अपने पैरों पर खड़ा होने का एवं अपने हाथों से चीज़ें पकड़ने का साहस प्रदान करवाया। शयद ही वो किसी आम आदमी के बस की बात होती। 

मुझे आज भी याद है वह नजारा याद है जब हॉस्पिटल में है, जब मेरी दाहिने हाथ की उँगलियों ने हल्का सा मूवमेंट देख मम्मी पापा की आंखों में खुशी के आंसू यूं आए मानो मैंने किसी युद्ध में विजय प्राप्त किया हो। उसी हलके से मूवमेंट के आधार पर मुझे हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होने भी दिया गया था। और करीब 31 मई तक मैं वॉकर के सहारे अपने पैरों पर खड़ी हो गयी थी। मुझे अच्छे से याद है घर में जश्न का माहौल बन उठा था।

महिमा की ताजा तस्वीर

महिमा की ताजा तस्वीर


वो दिन था और आज का दिन है, इन 6 महीनों में महिमा ने सीखा है कि जीवन में सिर्फ इच्छा शक्ति सकारात्मक सोच कितनी अहम भूमिका निभाता है। आज यदि महिमा को खुशनुमा माहौल न मिलता तो ये दौर का सामना कुछ महीनों तक करना पड़ता। इन महीनों में उन्होंने सीखा कि कैसे पुरानी चीजों को नयी तरीके से सीखा जा सकता है। 'लर्न टू अनलर्न' वाली व्यावहारिकता, महिमा ने इसी थ्रोम्बोसिस के सौजन्य से सीखा है। महिमा बहादुर दिल हैं। करियर के शुरुआती मकाम पर इतनी बड़ी बीमारी का सामना करना फिर उसे अपनी हिम्मत से हरा देना, ये कहने-सुनने में आसान बात लगती है। लेकिन ऐसी दिलेरी सबके पास नहीं होती। महिमा एक मिसाल हैं। 

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