मंजूषा कला को नई ज़िंदगी दी है उलूपी झा ने
बिहार के भागलपुर में रहने वाली उलूपी कुमारी झा एक दौर में स्कूल में टीचर थी, लेकिन आज वो एक ऐसी कला को बचाने का काम कर रही हैं जो लुप्त हो गई है। ये है मंजूषा कला। आज उलूपी कुमारी झा इस कला को बचाने के लिए ना सिर्फ खुद कोशिश में लगी हुई हैं बल्कि वो अपने साथ ऐसी महिलाओं को भी जोड़ रही हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं। उलूपी की कोशिश है कि मंजूषा कला को बचाने के साथ साथ ऐसी महिलाओं को रोजगार भी मिल सके ताकि वो आत्मनिर्भर बन सके।
बिहार के भागलपुर जिले में रहने वाली उलूपी कुमारी झा फिलहाल भागलपुर यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रही हैं। अपने इस काम को करने से पहले वो भागलपुर के बाल भारती विद्धालय की टीचर रह चुकी हैं। वो बताती है कि साल 2009 में एक बार वो मंजुषा कला की प्रदर्शनी को देखने के लिए गई था जहां उनको जानकारी मिली की ये कला अब लुप्त हो चुकी है ये सुनकर उलूपी को बहुत बुरा लगा। तब उन्होने सोचा कि किसी ने इस कला को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की जो आज ये लुप्त हो गयी है। उसी समय उलूपी ने सोच लिया कि वो इस कला को पुनर्जिवित करेंगी। तब उन्होने मंजषा कला को लेकर गहन अध्ययन किया और उससे जुड़ी जानकारियां जुटाई। उन्होने ये जानने की कोशिश की कि ये कैसी कला थी और कहां कहां पर इसका इस्तेमाल होता था। इसके लिए वो कई लाइब्रेरियों में गई और मंजूषा कला से जुड़ी किताबें इकट्ठा कर इसके बारे में जानकारी इकट्ठा की।
उलूपी ने शुरूआती प्रशिक्षण उसी संस्था से लिया जहां पर उन्होने पहली बार मंजूषा कला की प्रदर्शनी देखी थी। उलूपी को शुरू से ही पेंटिंग का शौक था। यहां उनको पता चला कि मंजुषा कला 7वीं शताब्दी से पहले हमारे देश में काफी प्रचलित थी। साथ ही उन्हें ये भी जानकारी हाथ लगी कि इस कला का धार्मिक महत्व भी है। वो जब इस कला में पारंगत हो गई तो उन्हें दूसरी जगहों से इस कला को सिखाने के लिए लोग बुलाने लगे। कुछ महीने तो उन्होने स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के साथ साथ इस काम को जारी रखा लेकिन जब उन्हें लगा कि स्कूल के साथ इस काम को जारी रखना मुश्किल होगा तो उन्होने अपनी नौकरी छोड़ दी। इसके बाद वो पूरी तरह से इस कला के प्रचार प्रसार में लग गई। इसके लिए उन्होने भागलपुर के कई गांवों का दौरा किया। वहां वो औरतों को इस कला से परिचित करातीं और उन्हें मंजूषा कला से जुड़ी कहानी सुनाकर उन्हें इस कला के प्रति आकर्षित करतीं। उलूपी कहती है कि “जब मैं उन्हें कहती कि आप मंजूषा कला को अपनाइये तो उनमें से बहुत सी महिलाएं पूंछती कि इस कला को उकेरने से हमें कितना पैसा मिलेगा। तब मैं बहुत अच्छा जवाब नहीं दे पाती थीं और उनसे कहती थी कि इससे आपको संतुष्टि और खुशी मिलेगी कि आप एक ऐसी कला को पुनर्जिवित कर रहीं हैं जो कि लुप्त हो चुकी है।” हालांकि अपने इस जवाब से उलूपी भी संतुष्ट नहीं होती थी। तब उन्होंने इस कला को रोजगार से जोड़ने का फैसला किया। उन्होने महिलाओं से कहा कि वो साड़ी, चादर, पेंटिंग, रूमाल और दूसरी जगहों पर इस कला का इस्तेमाल करें। साथ ही हर उस जगह पर इस कला को उकेरें जहां से उन्हें आमदनी हो। उलूपी कहती हैं किसी भी कला को जब तक रोजगार से नहीं जोड़ा जायेगा को उसका हाल मंजूषा कला की तरह ही जाएगा जिस तरह से वो लुप्त हो गई है।
आज उलूपी की कोशिशों का ही नतीजा है कि भागलपुर और उसके आस-पास रहने वाली करीब 300 महिलाएं इसका प्रशिक्षण ले चुकी हैं और सफलतापूर्वक अपना रोजगार चला रहीं हैं। वो कहती हैं कि “बहुत सारी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं प्रशिक्षण देने के बाद ये नहीं देखती कि वो महिलाएं क्या कर रहीं हैं लेकिन मैं उन्हें प्रशिक्षण देने के बाद भी देखती हूं कि वो इस कला के लिए क्या कर रहीं हैं।” हालांकि पहले इस कला को केवल कैनवास और पेपर पर ही उकेरा जाता था लेकिन उलूपी ने इसे रोजगार से जोड़कर हर बड़ी और छोटी चीज पर उकेरना शुरू किया। ये साड़ी से लेकर पेन तक में इस कला को उकेरती हैं। उलूपी को कविता और कहानी लिखने का शौक है उनके इस शौक को देखते हुए एक एनजीओ ने उनसे कॉमिक्स लिखने के लिए कहा। तब उन्होने मंजूषा कला के माध्यम से दैनिक जागरण के बाल जागरण में इसकी सीरीज लिखी। उलूपी ने बहुत कोशिश की कि वो इसकी कॉमिक्स को बाजार में उतारें लेकिन फंड की कमी के कारण उनका ये सपना अब तक पूरा नहीं हो सका है। वो कहती हैं कि जिस उद्देश्य को लेकर उन्होनें ये सीरीज लिखी थी वो उद्देश्य पूरा नहीं हो सका है जिसका उन्हें बहुत अफसोस है।
अपनी इस कला के प्रचार में उन्हें दिशा ग्रामीण विकास मंच और नाबार्ड संस्था के माध्यम से बहुत मदद मिली है। आज भागलपुर के कई इलाकों से उन्हें इस कला के प्रशिक्षण देने के लिए बुलाया जाता है। ऐसी ज्यादातर जगहों में वो अपने द्वारा सिखाई गई महिलाओं को भेजती हैं जिससे कि उन्हें भी इस काम को लेकर आत्मविश्वास आये। अब उनका सपना है कि भागलपुर (अंग प्रदेश) के हर घर में इस कला का प्रचार प्रसार हो और सार्वजनिक जगह को मंजुषा कला के जरिये सजाया जाये जिससे कि कोई भी बाहरी व्यक्ति यहां आये तो उसे पता चल जाये कि वो अंग प्रदेश में आया है।