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स्वदेशी शिक्षा पद्धति के समर्थक व आधुनिक शिक्षा क्रांति के जनक डॉ शांताराम बलवंत मुजुमदार

'ज्ञान दिल्याने ज्ञान वाढते त्या ज्ञानाचे मंदिर हे .. सत्य शिवाहून सुंदर हे। (बांटने से ज्ञान बढ़ता है। उसी ज्ञान का ये मंदिर है। सत्य ही शिव से सुंदर है।)  जगदिश (नाना) खेबूडकर के मराठी गीत की यह पंक्तियाँ मन ही मन मे गुनगुनाते हुए मैं सिंबायोसिस की सिढ़िया उतर रही थी। महाराष्ट्र की शिक्षा परंपरा मे महात्मा फुले, महर्षि शिंदे, गोखले, आगरकर जैसी प्रतिभाशाली हस्तियों के कार्य को इक्कीसवीं सदी में आज आगे बढ़ाने वाले ज्ञान महर्षि के दर्शन कर उनके साथ योर स्टोरी के पाठकों के लिए बातचीत करने का अवसर मुझे मिला इस बात की खुशी मेरे मन में नहीं समा पा रही थी। भारतीय शिक्षा पद्धति के सच्चे समर्थक और अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान सिंबायोसिस के सर्वेसर्वा डॉ एस.बी. मुजुमदार से मिलकर ‘विद्या विनयेन शोभते’ इस संस्कृत उक्ति के जीते जागते उदाहरण की अनुभूति मुझे हो रही थी। सिंबायोसिस के उनके कार्य की जानकारी योर स्टोरी के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।

स्वदेशी शिक्षा पद्धति के समर्थक व आधुनिक शिक्षा क्रांति के जनक डॉ शांताराम बलवंत मुजुमदार

Monday August 29, 2016 , 8 min Read

अंग्रेज़ों ने इस देश की आधुनिक शिक्षा पद्धति की रूपरेखा खींची थी। हालाँकि उससे कई सदियों पहले भी इस देश में नालंदा जैसे शिक्षा प्रतिष्ठानों का योगदान रहा है। इस देश की अध्यात्म की परंपरा सदियों पुरानी है और अत्याधुनिक ज्ञान-विज्ञान टेक्नोलॉजी की विरासत भी। अंग्रेज़ों के शासनकाल में गुलामी के कारण केवल शिक्षा क्षेत्र ही नहीं, बल्कि मानसिक और बौद्धिक क्षेत्र पर भी ग़ुलामी का प्रभाव रहा। 

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 देश आज़ाद होने के कई सालों बाद आज भी हम इस दासता की ज़ंजीरों से पूरी तरह से उबर नही पाये है। इस बात को महसूस कर देश को उसकी अपनी शिक्षा प्रणाली लागू करके खुद की अलग पहचान वापस देने सिंबायोसिस ने सफल प्रयास किये। ऑक्सफर्ड, केंब्रिज, और हॉवर्ड जैसे विदेशी शिक्षा संस्थानों केे समान प्रतिष्ठा और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पद्धति भारतीय परिप्रेक्ष्य मे ज्यादा से ज्यादा ग़रीब मेधावी छात्र-छात्राओं के लिए उपलब्ध कराने वाली सिंबायोसिस ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा देने का कार्य भारत की आधुनिक नालंदा एवं तक्षशिला के रूप में किया है। डॉ मुजुमदार से सिंबायोसिस के उनके कार्यालय मे योर स्टोरी के साथ साक्षात्कार के दौरान इस ज्ञान महर्षि के नम्रतापूर्ण स्वभाव का भी परिचय हुआ। अपनी व्यस्त दिनचर्या मे 81 साल के डॉ. मुजुमदार ने कम से कम समय में सटीक शब्दों में अपनी व्यक्तिगत जानकारी से लेकर सिंबायोसिस की स्थापना तक के सफर की कहानी हमारे सामने रखी।

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कोल्हापुर के निकट गडहिंग्लज गांव में 31 जुलै 1935 को डॉ मुजुमदार का जन्म हुआ। उनके पिता वकील थे और कानूनविद के तौर पर उस ज़माने की जानी मानी हस्ती थे। डॉ मुजूमदार कहते हैं, “ मेरे पिता ने मुझे साहस और आत्मविश्वास से जीना सिखाया, तो माँ ने संस्कार दिये। पिता से धिटाई (साहस) और माता से गिताई’ यही मेरे जीवन का आधार बन गया था”

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डॉ मुजुमदार की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा गडहिंग्लज में ही पूरी हुई। उनकी यह कहानी उन्हींकी ज़ुबानी सुनते वक्त हमारे भी रोंगटे खड़े हो गये। वे बता रहे थे, “ सभी भारतीय विद्यार्थी दीपावली मनाने अपने घर लौट गये थे इसलिए छात्रावास का मेस भी बंद था। छात्रावास के प्रमुख के नाते वहाँ की देखभाल करते हुए मेरे ध्यान में आया की एक स्कर्ट पहनने वाली लड़की हर रोज़ छात्रावास की खिड़की से खाना किसी को देकर जाती थी। मुझे लगा कुछ चक्कर होगा। मैंने उस कमरे का दरवाज़ा खटखटाया, ओर जब वह खुला तो अंदर का दृश्य देख कर मै दंग रह गया। सखाराम नाम का मॉरिशस से आया हुआ छात्र पीलिया से बीमार था। अकेले बेबस पडे हुए इस छात्र को खड़े होकर चलना भी नही आ रहा था। उसकी बहन उसे खाना लाकर खिड़की से दे देती थी, क्यूंकी लड़कों के छात्रावास में लड़कियों को जाने की इजाज़त नही थी। मेरे कंधे पर सिर रखकर वह रोने लगा। यह हालात देखकर मैं भीतर तक हिल गया, मुझे बुरा लगा, वही मेरे जीवन का टर्निंग पॉईंट था”।

उसके बाद डॉ मुजुमदार ने पुणे के विदेशी बेबस अकेले छात्रों की समस्याओं की जानकारी लेने का प्रयास किया और मानवता की दृष्टि से उनकी मदद करना शुरू की। उस कार्य के लिए उन्होंने ‘सिंबायोसिस’ नाम की संस्था का गठन किया। 

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डॉ मुजुमदार कहते है की, “ सिंबायोसिस यह जीवशास्त्रीय संज्ञा है, दो भिन्न जातीय प्राणी सहजीवन मे जीते हैं, उसे सिंबायोसिस कहा जाता है। विदेशों से भारत मे शिक्षा हेतू रहनेवाले अकेले छात्र भी यहाँ के सहपाठी छात्रों के साथ शांति, भाईचारा, समानता और मानवता के धागे के बंधकर रहेंगे तो अपने घर से दूर रहकर भी उन्हें अपनेपन का अहसास होगा। सिंबायोसिस की स्थापना का मुख्य उद्देश यही था। त्योहार-उत्सवों में कार्यक्रमों का आयोजन कर विदेशी छात्रों को स्थानीय छात्रों तथा लोगों के साथ मिलजुलकर रहने का अवसर देने का प्रयास शुरू हुआ। स्थानीय लोगों को जोड़कर विदेशी छात्रों को अपनेपन का अहसास देने का यह प्रयास कुछ समय के लिए अच्छा साबित हुआ, लेकिन त्योहार खत्म होने के बाद उनमें वापस वही अकेलापन रहता था। इसके लिए उन्हें हमेशा के लिए जोड़े रखने का प्रयास करने की दिशा मे सिंबायोसिस का कार्य शुरू हुआ। शिक्षा देने का प्रयास करते हुए अनेक संस्थाओं की शुरुआत हो गई, सिंबायोसिस में उन्हें स्थानीय छात्रों के साथ रहकर शिक्षा देने की और नई पद्धति से शिक्षा पाने की सुविधा उपलब्ध करायी गयी। इसी प्रयास मे 1970 में विधि महाविद्यालय और अन्य संस्थाओं का निर्माण किया गया। सिंबायोसिस मे विदेशी और भारतीय छात्रों को साथ रहकर शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था का प्रारंभ हुआ।

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फर्ग्यूसन महाविद्यालय की नौकरी की सेवा से रिटायर्ड होने के लिए सोलह साल बाकी थे मात्र सिंबायोसिस के कार्य विस्तार करने के लिए डॉ. मुजुमदार ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने का निर्णय लिया। उस वक्त अपनी पेंशन और बंगला बेचकर डॉ मुजुमदार ने सिंबायोसिस के कार्य के लिए पैसा इकठ्ठा किया। जी जान से इसी काम मे जुट गये। उन यादों को ताज़ा करते हुए मुजुमदार कहते हैं,

“ मेरे जीवन का मकसद सिंबायोसिस था। मैंने उसी को फोकस करने का प्रण किया। उस वक्त राजनिती जैसे अन्य क्षेत्रों में जाने का अवसर भी विकल्प के रूप मे सामने था, मगर मैंने शिक्षा के कार्य मे जाना ही उचित समझा, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पद्धति का विकास होना चाहिये और ग़रीब से ग़रीब छात्रों को भी वाजिब खर्च पर अच्छी शिक्षा प्राप्त होनी चाहिये। इसपर काम करने का संकल्प किया।

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सिंबायोसिस की इस शिक्षा क्रांति को आखिरकार सफलता मिलनी ही थी और सन 2001 मे केंद्र तथा राज्य सरकार ने इसे डिम्ड युनिवर्सिटी का दर्जा दिया। उसके बाद सिंबायोसिस की प्रगति की दिशा मे चार चाँद लग गये, खुद के विचार से शिक्षा पद्धति की रूप रेखा बनाने तथा उसे वास्तविकता में ढालने का यह सुनहरा अवसर था। अलग तरह की शिक्षा पद्धति, परिक्षा के अलग तौर तरीके और सिलेबस तैयार किया गया और देखते ही देखते बैगलूर, हैदराबाद, नोएडा, नाशिक समेत पाँच राज्यों के चालीस शहरों में संस्था का विस्तार होने लगा। आज देशभर मे संस्था की 45 शाखायें हैं। यहाँ देशी विदेशी छात्र अंतर्राष्ट्रीय मानकों द्वारा तैयार की गई शिक्षा तथा प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं।

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यह शिक्षा पद्धति पारंपारिक तथा अत्याधुनिक शिक्षा पद्धति का मिलाप है। स्वदेशी शिक्षा पद्धति का यह पैटर्न भारतीय संस्कारों के साथ पाश्चात्य ज्ञान एवं टेक्नोलॉजी से परिपूर्ण है। ‘वसुधैव कुटूंबकम’ के सिद्धां‍त को ध्यान में रख कर तैयार की जाने वाली यह शिक्षा पद्धति विदेशों की केंब्रीज, हॉवर्ड और ऑक्सफर्ड की बराबरी करने का प्रयास कर रही है।

डॉ मुजुमदार की इन सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उन्हे 2005 में पद्मश्री, 2012 में पद्मभूषण पुरस्कार से नवाज़ा है। दूसरी ओर महाराष्ट्र सरकार ने भी पुण्यभूषण और महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार देकर सम्मानित किया है। 27 जुलै 2015 को दिवंगत राष्ट्रपती अब्दुल कलाम के नाम से दिया गया पहला डॉ कलाम पुरस्कार भी डॉ मुजुमदार को दिया गया है।

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शिक्षा क्रांति के इस महायज्ञ में सफलता का रहस्य क्या रहा है? पुछे जाने पर डॉ मुजुमदार ने कहा, “नैतिक मुल्यों का जतन कर ईमानदारी से किया गया प्रयास यही इस कामयाबी का रहस्य है, क्वालिटी के साथ हमने कभी समझौता नहीं किया, गुणवत्तापूर्ण शिक्षक और छात्रों का चयन करते वक्त जातिधर्म का विचार भी नहीं किया जाता है। केवल गुणवत्ता का आधार मानकर काम किया जाता है। इस लिए देश के शीर्ष दस शिक्षा संस्थाओं में सिंबायोसिस का नाम लिया जाता है।”

पारंपारिक शिक्षा को दूरस्थ शिक्षा प्रणाली (Distance Education) के साथ जोड़ते हुए सिंबायोसिस ने देश के दूर-दराज़ इलाके से दो लाख छात्रों के लिए कम खर्च में अच्छी शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराये। उसी दिशा मे आगे बढ़ते हुए कौशल विकास प्रशिक्षण को बढ़ावा देने के लिए इंदौर और पुणे मे शिक्षा सिलेबस तैयार कर अपनाया गया है। इसकी जानकारी देते हुए डॉ मुजुमदार कहते हैं, “ पारंपारिक शिक्षा के साथ दूरस्थ शिक्षा पद्धति और कौशल विकास की शिक्षा देना आज के समय की मांग है, यह तीनों भी मैं समानांतर धाराएँ मानता हू।”

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डॉ मुजुमदार 80 साल की उम्र पार कर चुके हैं, ऐसे में सिंबायोसिस की भावी रणनीतियों के बारे मे उन्होंने कहा, “ मेरी दो बेटियाँ स्वाति और विद्या सिंबायोसिस की ज़िम्मेदारी निभा रही है, विश्व की सबसे अव्वल सौ शिक्षा संस्थाओं में सिंबायोसिस को स्थान देने में वह कामयाब हो जायेंगी यह मेरा विश्वास है”। ज्ञानदान की अखंड धारा का प्रेरणास्त्रोत क्या रहा है? इस सवाल के जवाब में डॉ मुजुमदार कहते हैं, “ इश्वर ही सबका प्रेरणास्त्रोत है, किसी व्यक्ती विशेष को प्रेरणास्त्रोत कहते हुए जो मर्यादाएँ आती हैं, उससे अच्छा है ईश्वर का भरोसा रख कर नेक काम करना चाहिये, खुद की प्रेरणा खुद ही को बना के काम करोगे तो सफलता मिलना तय है, सिंबायोसिस यही मेरा लक्ष्य रहा है, ‘वर्क इज वर्शिप’ की भावनासे मैने काम किया यही मेरी प्रेरणा थी। इस दरम्यान बहुतसी बाधाएँ आयी ज़रूर, परंतू संकटों से मैं कभी हारा नहीं, बल्कि उसी को अवसर समझकर मैंने अपना रास्ता निकाल लिया और यही मेरी आदत बन गयी।”

सिंबायोसिस के भविष्य के बारे मे डॉ मुजुमदार कहते हैं, “ ऑक्सफर्ड, केंब्रिज और हॉवर्ड इनकी शिक्षा पद्धति की सभी सराहना करते है, परंतू हमे भारत की अलग पहचान बनानेवाली शिक्षा पद्धति विकसीत करना क्यों नही आता? सिंबायोसिस ऐसा मॉडल दुनिया के सामने रखने का प्रयास कर रहा है, जो भारतीय है। जहाँ अध्यात्म और विज्ञान दोनों का संगम होगा, एक ऐसी शिक्षा पद्धति जो संस्कारों के साथ गुणवत्ता और आधुनिकता से ओतप्रोत होगी। विश्व में हॉर्स पॉवर है तो हमे ऑक्सपॉवर का निर्माण करना क्यो नहीं आयेगा? जो हमारी अलग पहचान बनेगी। देश मे शुरू हुए स्टार्टअप इंडिया, स्टैन्डअप इंडिया अभियान की डॉ मुजुमदार सराहना करते हैं। वह कहते है, “ इसको अमली जामा पहनाना भी आवश्यक है, हमारे देश के गुणवान नौजवान को अगर अच्छी शिक्षा और कौशल के विकास करने का अवसर इसी देश मे मिलता है तो यह देश वापस सोने की चिड़िया बनाने मे कोई देर नहीं लगेगी। उसके लिए देश का स्क्रैप कल्चर भी सुधारना चाहिए।