Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

अमृता शेरगिल की याद में: एक लड़की जो गलत देश-काल में पैदा हो गई थी

उन्‍मुक्‍त, आजाद और निर्बंध अमृता शेरगिल. आधुनिक चित्रकला की नींव रखने वाली 20वीं सदी की अवांगार्द आर्टिस्‍ट अमृता.

अमृता शेरगिल की याद में: एक लड़की जो गलत देश-काल में पैदा हो गई थी

Monday December 05, 2022 , 8 min Read

अमृता शेरगिल को गए 81 साल हो चुके हैं. आज ही के दिन 1941 में लाहौर में (जो तब हिंदुस्‍तान का हिस्‍सा हुआ करता था) लंबी बीमारी के बाद अमृता शेरगिल का निधन हो गया. वह महज 28 साल की थी. अमृता यानी हिंदुस्‍तान की हमारी अपनी फ्रीडा काल्‍हो. सिर्फ अपने ब्रश और रंगों से कैनवास पर जीवन का जादू रचने वाली फ्रीडा नहीं, बल्कि उन्‍मुक्‍त, आजाद, निर्बंध जीने वाली फ्रीडा.

वैसी ही उन्‍मुक्‍त, आजाद और निर्बंध थीं अमृता शेरगिल. आधुनिक चित्रकला की नींव रखने वाली अमृता, 20वीं सदी की अवांगार्द आर्टिस्‍ट अमृता. सिर्फ 19 साल की उम्र में अपनी पहली ऑइल कलर पेंटिंग “यंग गर्ल्‍स” से दुनिया भर में कला जगत का ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित करने वाली अमृता. सिर्फ 9 साल के कॅरियर में ऐसी पेंटिंग्‍स बनाने वाली अमृता, जो आज भी करोड़ों में बिक रही हैं.    

बर्फ को चीरकर निकली धूप और अमृता का जन्‍म

बुडापेस्‍ट के शहर हंगरी में पिछले कई दिनों से लगातार बर्फीली सर्दी पड़ रही थी. कुछ दिनों पहले तक बर्फ गिर रही थी. उस दिन अचानक सुबह तेज सूरज निकला. 30 जनवरी का दिन था, साल 1913. पिता उमराव सिंह के पास संदेश आया- “बधाई हो, बिटिया हुई है.”

पिता ने बेटी को गोद में उठाया. मानो कोई नन्‍हा फरिश्‍ता खुद आसमान से उतर आया हो. पूरे सिर पर काले, चमकीले, रेशमी बालों की टोपी थी. चौड़ा माथा, बड़ी-बड़ी आंखें. पहली ही मुलाकात में पिता की आंखों में देखती हुई नन्‍ही बच्‍ची. न डरी, न रोई.

माता- पिता ने बड़े लाड़ से नाम रखा था-अमृता. अृमता के पिता उमराव सिंह शेरगिल हिंदुस्‍तान के एक कुलीन घराने से थे और मां एंतोनियो गॉतेसमान हंगेरियन मूल की यहूदी महिला थीं. वो एक ऑपेरा सिंगर और खुद भी हंगरी के एक समृद्ध कुलीन खानदान से ताल्‍लुक रखती थीं.

शुरुआती जीवन

दिमाग तो अमृता का तेज था ही, उंगलियों में भी बला का हुनर था. 5 साल की उम्र से उन्‍होंने चित्र बनाना शुरू कर दिया था. वो अपने नन्‍हे-नन्‍हे हाथों से पेंसिल से कागज पर अपने खिलौनों, चिडि़या, बत्‍तख, बिल्‍ली, कुत्‍ता और घर के छोटे-छोटे सामानों के हूबहू चित्र उतार देतीं. भाषाएं सीखने का तो उसे मानो कोई वरदान मिला हुआ था. छह बरस की उमर तक अमृता को औपचारिक रूप से अंग्रेजी सिखाने की शुरुआत नहीं हुई थी. घर में सब बच्‍चों से हंगेरियन में बात करते. माता-पिता कई बार आपस में अंग्रेजी में बात करते थे. एक दिन वो आपस में कुछ बात कर रहे थे. तभी अमृता ने कहा कि उसे पता है कि वो दोनों क्‍या बात कर रहे हैं. 

amrita sher-gil the greatest avant-garde women artists of early 20th century

पेरिस के ग्रां सैलों में प्रदर्शित पहली पेंटिंग ‘यंग गर्ल्‍स’

मां चौंक गईं. इसे कैसे पता. इसे तो अंग्रेजी आती नहीं. अमृता ने तुरंत मां के कहे वाक्‍य का हंगेरियन में अनुवाद कर दिया. अमृता ने बिलकुल सही अनुवाद किया था.

मां-पिता भौंचक रह गए. ये बिना सिखाए कब उसने अंग्रेजी भी सीख ली.

परिवार के साथ हिंदुस्‍तान वापसी

1921 में कुछ आर्थिक दिक्‍कतों के चलते अमृता और उनकी छोटी बहन इंदिरा को लेकर माता-पिता हिंदुस्‍तान लौट आए और शिमला में रहने लगे. यहां आने के बाद अमृता ने पियानो और वॉयलिन सीखना शुरू किया. जल्‍द ही दोनों बहनें शिमला के गेइटी थिएटर में परफॉर्मेंस भी कर रही थीं.

यही वक्‍त था, जब अमृता ने औपचारिक रूप से चित्रकला का प्रशिक्षण लेना शुरू किया. अमृता में एक विद्रोही और अवांगार्द तेवर तब भी था, जब वो छोटी बच्‍ची थीं. शिमला के कॉन्‍वेंट स्‍कूल से अमृता को इसलिए निकाल दिया गया क्‍योंकि एक दिन स्‍कूल में भरे हॉल में अमृता ने सबके सामने घोषणा कर दी कि वो जीजस को नहीं मानतीं. वो तो नास्तिक हैं. तब उनकी उम्र सिर्फ 9 साल थी.

पेरिस के ग्रां सैलों में ‘यंग गर्ल्‍स’  

19 साल की उम्र में पेरिस के ग्रां सैलों में उनकी पहली पेंटिंग प्रदर्शित हुई. नाम था- ‘यंग गर्ल्‍स.’ बेहद शांत, धूमिल और धूसर से रंगों में बनाई गई इस पेंटिंग को देखकर पेरिस में उस जमाने के नामी आर्टिस्‍ट, कला के जानकार और प्रोफेसर पियेर वेलां भी अचंभित रह गए. ये कुछ ऐसा ही लम्‍हा रहा होगा, जब 20 साल की फ्रीडा काल्‍हो एक दिन अपनी पेंटिंग्‍स लेकर अपने शहर और देश के सबसे बड़े कलाकार डिएगो रिवेएरा से मिलने पहुंच गई थी और अपने अक्‍खड़, मुंहफट मिजाज के बावजूद डिएगो उन तस्‍वीरों से नजर नहीं हटा पाए.

पेरिस के ग्रां सैलों में लगी उस प्रदर्शनी को देखने के बाद एक ज्‍यूरी मेंबर को जिज्ञासा हुई कि ये पेंटिंग बनाने वाली शख्‍स कौन है. उन्‍हें उम्‍मीद थी कि हिंदुस्‍तान से आई किसी उम्रदराज सफेद बालों वाली महिला से उनका सामना होगा. लेकिन उनके सामने खड़ी थी बमुश्किल 40 किलो वजन और सुनहरे रेशमी बालों वाली 19 साल की एक लड़की. ज्‍यूरी मेंबर की आंखों में शुबहा था, “ये चित्र तुमने बनाया है? आखिर कैसे? क्‍या तुम पालने में ही पेंटिंग सीख चुकी थी.”

अमृता सामने खड़ी बस मुस्‍कुराती रहीं.

25 की उम्र में विवाह और हिंदुस्‍तान वापसी  

1938 में 25 साल की उम्र में अमृता ने बुडापेस्‍ट में अपने ममेरे भाई विक्‍टर एगोन से विवाह किया, जो पेशे से डॉक्‍टर थे. वे उनके साथ हिंदुस्‍तान लौट आईं और उत्‍तर प्रदेश के गोरखपुर शहर से कुछ 30 किलोमीटर दूर सराया नाम की जगह पर रहने लगीं, जहां उनके पिता की पुश्‍तैनी जागीर थी. यह जागीर उन्‍हें अंग्रेजों से मिली थी. सरदार उमराव सिंह शेरगिल के परिवार ने वहां एक शक्‍कर मिल बनवाई थी और एक पूरा का पूरा शहर ही बसा दिया था.

कुछ साल वहां रहने के बाद 1940 की गर्मियों में वो अपने पति के साथ लाहौर चली गईं.

लाहौर में अमृता की जिंदगी बहुत लंबी नहीं रही. वहां पहुंचने के कुछ ही समय बाद वो बीमार पड़ गईं. कोई समझ नहीं पाया कि बीमारी आखिर थी क्‍या. अमृता के डॉक्‍टर पति भी नहीं.

आजाद अमृता हिंदुस्‍तान के लिए नहीं बनी थी

भारत के निहायत संकीर्ण और मर्दवादी माहौल में अमृता शुरू से ही अनफिट थीं. विवाहित होने के बावजूद उनका बहुत सारे लोगों के साथ प्रेम रहा, जिन्‍हें वे लंबे-लंबे खत लिखा करती थीं. अमृता का मन, जीवन ऐसा नहीं था, जिसे किसी समाज का नियम और रिश्‍ते की दीवार बांध सके. पिता उमराव सिंह ये बात जानते थे, इसलिए वे अमृता के हिंदुस्‍तान लौटने के पक्ष में नहीं थे. उन्‍होंने बेटी से कहा, “ये देश तुम्‍हारे लिए नहीं है. तुम यहां घुट जाओगी.”

amrita sher-gil the greatest avant-garde women artists of early 20th century

और यही हुआ भी. जहां यूरोप में उनकी निजी जिंदगी से ज्‍यादा बड़ी उनकी कला, रूमानियत, आजादी और निर्बंधता थी, वहीं हिंदुस्‍तान के संकीर्ण और जजमेंटल माहौल ने उन्‍हें बांधकर रख दिया था. महफिलों में चर्चे उनके व्‍यक्तित्‍व और कला से ज्‍यादा उनके सौंदर्य, देह और प्रेम संबंधों के होते. 

 

लाहौर में उनके पड़ोसी रहे खुशवंत सिंह अमृता के निधन के बाद अपने एक संस्‍मरण में उन्‍हें कुछ यूं याद करते हैं-

“अमृता शेरगिल से मिलने से बहुत पहले ही मैं उसके बारे में बहुत कुछ सुन चुका था. लाहौर में उसकी प्रदर्शन देखकर लगा कि कला तो है ही, लेकिन कला से ज्‍यादा उसके व्‍यक्तित्‍व का सौंदर्य लोगों को बांधे हुए है. सुंदर तो वो थी ही, लेकिन उससे ज्‍यादा सुंदरता को लेकर सतर्क थी. उसका यौवनाभिमान उसे परंपरा से हटकर जीवन जीने को लालायित करते थे. उसके जीवन में फंसी हुई असामान्‍यता, जीने की ललक और उन्‍मुक्‍तता, जीने की खुली छूट मेरे मन में उसके प्रति जागे आकर्षण के सबसे बड़े केंद्र बिंदु थे.” 

मृत्‍यु से पहले अमृता के खत

लाहौर पहुंचने के बाद अमृता अकसर बीमार सी रहने लगी थीं. मार्च, 1941 में अपनी मृत्‍यु से कुछ महीने पहले अपनी बहन को भेजे एक खत में वो लिखती हैं,

“मैं बहुत पहले तुम्‍हें लिखना चाहती थी, लेकिन मैं ऐसे मानसिक तनाव से गुजरती रही, जिससे अब तक उबर नहीं पाई हूं. मानो एक गहरी लाचारगी, असंतोष और दुख मन में पैठ गया है. लगता है कुछ ऐसी ताकतें काम कर रही हैं, जो सारा संतुलन बिगाड़ने पर आमादा हैं.”

ये खत उन्‍होंने मृत्‍यु से चार महीने पहले हेलन चमनलाल को लिखा था. वह लिखती हैं,

“मैंने पिछले चार महीने से न तो ब्रश को हाथ लगाया है, न किसी कैनवास के पास फटकी हूं. जब भी काम करने की सोचती हूं, डर से मेरा दिल बैठने लगता है.”  

और चार महीने बाद 5 दिसंबर, 1941 को अमृता शेरगिल का निधन हो गया. उनके निधन पर महात्‍मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू समेत तमाम लोगों ने उमराव सिंह को खत लिखकर शोक प्रकट किया था. लेकिन फिर कभी किसी ने इस बारे में बात नहीं की कि इतनी सुंदर, काबिल और अपने समय से 100 साल आगे की स्‍त्री को इतना छोटा सा जीवन क्‍यों नसीब हुआ.

अमृता की देह में कोई बीमारी नहीं थी. उसका मन बीमार था. “यंग गर्ल्‍स” की उदास, ठहरी हुई उन दो लड़कियों की तरह और अपने चित्रों में रची अनगिनत लड़कियों की तरह, जो गलती से गलत देश-काल में पैदा हो गई थीं.   

अमृता शेरगिल के लिए कभी मकबूल फिदा हुसैन ने लिखा था-

“गहरी कत्‍थई धरती

और चंद लोगों के झुंड के बीच

एक भटकती हुई आत्‍मा, जिसके अंकित चेहरे

प्रतिच्‍छाया बनकर उभरते हैं गुमसुम वीरानियों के

पृष्‍ठभूमि में दृश्‍य फलक

ठहरा रहता है भौंचक्‍का सा

आकृतियों और चेहरों की संक्षिप्‍त सी उपस्थिति

जन्‍म देती है निरंतरता के कोरस को

नियति कम कर देती है दूरियां उसकी यात्राओं की

शुरू ही हुआ था अभी संवाद

आदमी और उसकी आत्‍मा का

दृश्‍य फलक और रूपाकारों का

भारतीय कला के इतिहास के आंगन में.”