Apple को एपल बनाया परफेक्शन के दीवाने Steve Jobs ने; सिर्फ़ 56 साल जीकर अमर हो गए
Apple के को फाउंडर स्टीव जॉब्स ने स्टीव वोजनिएक के साथ मिलकर 1976 में एपल कम्प्यूटर नाम से कंपनी शुरू की. महज चार सालों में ही एपल शेयर बाजार में भी लिस्ट हो गई और ट्रेडिंग के पहले दिन इसका वैल्यूएशन 1.2 अरब डॉलर पर जाकर बंद हुआ.
टेक्नॉलजी की बात हो और एपल का नाम न लिया जाए ऐसा हो सकता है क्या भला. एपल को इंडस्ट्री लीडर बनाने का काम किया है स्टीव जॉब्स ने. आज एपल के प्रॉडक्ट जितना स्मूद चलने के लिए जाने जाते हैं उसका सफर उतना ही खुरदुरा रहा है. इस सफर में स्टीव को एक बार अपनी ही कंपनी छोड़नी भी पड़ी तो दोबारा जॉइन भी किया. उनके संघर्ष का नतीजा ही है कि आज एपल के सभी प्रॉडक्ट उस कैटिगरी के बादशाह माने जाते हैं. आईफोन से लेकर आईपॉड, आईपैड, मैकबुकएयर और स्मार्टवॉच तक. कंपनी के जो भी प्रॉडक्ट आए उस कैटिगरी के लिए एक मिसाल बन माने गए.
स्टीव को अब तक के सबसे महान आंत्रप्रेन्योर्स में गिना जाता है. स्टीव उस एपल कंप्यूटर्स के को फाउंडर, चीफ एग्जिक्यूटिव और चेयरमैन थे जो बाद में टेक्नलॉजी क्षेत्र में एक बड़ा नाम बन गया. एपल के प्रॉडक्ट्स ने मॉडर्न टेक्नॉलजी के विकास को दिशा दी है. स्टीव 1995 में पैदा हुए थे जो बचपन से ही तेज दिमाग के थे मगर उन्हें मालूम नहीं था कि उन्हें जिंदगी में आगे करना क्या है. उन्होंने कॉलेज से ड्रॉपआउट ले लिया. अलग अलग सेक्टर्स में जाकर एक्सपेरिमेंट करने लगे. इसी तिगड़मबाजी में उन्होंने 1976 में स्टीव वोजनिएक के साथ मिलकर एपल की शुरुआत की. आइए जानते हैं कंपनी को इस मुकाम पर पहुंचाने वाले स्टीव जॉब्स के बारे में और कंपनी के अब तक के सफर के बारे में.
कैसे रहे स्टीव के शुरुआती दिन
स्टीव 24 फरवरी, 1955 को सैन फ्रांसिस्को, कैलिफोर्निया में पैदा हुए थे. कैलिफोर्निया में माउंट व्यू नाम की जगह पर वो रहते थे उसका ही नाम बाद में बदलकर सिलिकन वैली कर दिया गया. स्टीव जब छोटे थे तब वो और उनके पापा इलेक्ट्रॉनिक सामानों पर काम किया करते थे. उनके पिता पहले हर इलेक्ट्रॉनिक सामान के कल पुर्जे अलग करते फिर बाद में उसे जोड़ देते. इस प्रैक्टिस से जॉब्स के अंदर एक अलग तरह का कॉन्फिडेंस पैदा हुआ. ये कहना गलत नहीं होगा कि स्टीव ने अपने फैमिली गराज से ही आंत्रप्रेन्योरियल जर्नी की शुरुआत कर दी थी.
स्टीव बचपन से ही एक तेज तर्रार और इनोवेटिव थिंकर थे. उनके टीचर उनके टैलेंट से इतना इंप्रेस हो चुके थे कि वो चाहते थे कि स्टीव हाई स्कूल क्लास को जंप करके अगले क्लास में एडमिशन ले लें. मगर उनके पैरेंट्स इस बात पर राजी नहीं हुए. हाई स्कूल खत्म करने के बाद स्टीव ने पोर्टलैंड के रीड कॉलेज में एडमिशन लिया. मगर एक बार फिर कॉलेज में उनका मन नहीं लगा और उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया. अगले एक डेढ़ साल उन्होंने क्रिएटिव क्लासेज को दिया. इस उतार चढ़ाव भरे समय में उन्होंने टाइपोग्राफी से काफी लगाव हो गया. 1974 में जॉब्स ने अटारी के साथ विडियो गेम डिजाइनर की नौकरी ले ली. कुछ महीनों बाद उन्होंने वो कंपनी भी छोड़ दी. इस बीच वो इंडिया भी घूमने आ गए, जहां उन्हें अलग तरह का साइकीडेलिक अनुभव मिला.
एपल का आइडिया कैसे आया
अपने हाईस्कूल के समय ही स्टीव की मुलाकात स्टीव वोजनिएक से हुई थी. बाद में इन्हों दोनों ने मिलकर एपल की शुरुआत की. वोजनिएक एक इंटरव्यू में कहते हैं कि दोनों को इलेक्ट्रॉनिक्स में बेहद गहरी दिलचस्पी थी इसलिए उन दोनों की पार्टनरशिप काफी लंबे समय तक चली. दोनों डिजिटल चिप के साथ घंटो बिताते थे जबकि उस समय गिने चुने लोगों की ही चिप के बारे में कुछ खास आइडिया था. हालांकि वोजनिएक जॉब्स से पहले भी कई कम्प्यूटर डिजाइन कर चुके थे. 1976 में दोनों ने मिलकर एक कंपनी शुरू की जिसका नाम रखा गया एपल कम्प्यूटर. इसका पहला हेडक्वार्टर स्टीव का फैमिली गराज ही था.
जॉब्स ने अपनी पसंदीदा बस और वोजनिएक ने साइंटिफिक कैलकुलेटर बेचकर एपल के लिए शुरुआती फंडिंग जुटाई. इस वेंचर को शुरू किए हुए ज्यादा समय नहीं हुआ और दोनों के जूनन ने टेक्नॉलजी इंडस्ट्री की किस्मत ही बदल दी. दोनों ने न सिर्फ टेक्नॉलजी को डेमोक्रेटाइज किया बल्कि उन्हें छोटी, सस्ती और हर दिन के इस्तेमाल के लिए तैयार किया.
वोजनिएक ने एक यूजर फ्रेंडली पर्सनल कम्प्यूटर्स की सीरीज पहले ही मन में बना रखी थी. वोजनिएक ने डिजाइन वाला हिस्सा देखा जबकि स्टीव ने मार्केटिंग का काम संभाला. उन्होंने हर कम्प्यूटर को शुरू में 666.66 डॉलर में बेचा. एपल के दूसरे मॉडल के आने के बाद कंपनी की सेल्स 700 पर्सेंट बढ़कर 139 मिलियन डॉलर पर पहुंच गई. 1980 में एपल शेयर बाजार में लिस्ट हुई और एक पब्लिक कंपनी बन गई. ट्रेडिंग के पहले ही दिन इसका वैल्यूएशन 1.2 अरब डॉलर पर पहुंच गया.
जब IBM से मिली टक्कर
बाद में स्टीव ने पेप्सी कोला के मार्केटिंग एक्सपर्ट डॉन स्कूले को एपल का सीईओ बनने का ऑफर दिया और वो मान गए. हालांकि एपल के अगले कुछ प्रॉडक्ट्स को कुछ खामियों के कारण काफी निगेटिव फीडबैक मिला. इस बीच IBM ने एपल को पछाड़ कर पर्सनल कम्प्यूटर के सेगमेंट में अपना दबदबना बना लिया. एपल ने जब शुरुआत की थी तब तो उसका कोई कॉम्पिटीटर नहीं था. मगर अब उसे पीसी सेगमेंट में लीडर IBM के साथ मुकाबला करना था.
1984 में एपल ने मैकिंटोश रिलीज किया. ये देखने में तो सुंदर था ही काम में भी एक नंबर. हालांकि एक बार फिर पॉजिटिव सेल्स और IBM के PC के मुकाबले शानदार परफॉर्मेंस के बाद भी मैकिंटोश IBM के सामने टिक नहीं पाई. इसका असर जॉब्स की पोजिशन पर पड़ा और उन्हें कंपनी में साइडलाइन कर दिया गया. 1985 में स्टीव ने एपल से इस्तीफा दे दिया.
एपल छोड़ा और वापसी भी हो गई
एपल छोड़ने के बाद जॉब्स ने NeXT नाम की एक हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर कंपनी शुरू की. यह ब्रैंड ऑपरेटिंग सिस्टम बनाकर लोगों को बेच रही थी. मगर एक बड़ी मजेदार चीज हुई. जिस एपल से स्टीव ने इस्तीफा दिया था उसने ही 1966 में NeXT को 429 मिलियन डॉलर में खरीद लिया और 1997 में स्टीव एक बार फिर एपल लौट आए मगर एक नए मैनेजमेंट टीम के साथ. स्टीव के साथ जो टीम आई उसने भुगतान के नाम पर हर साल 1 डॉलर की सैलरी और स्टॉक ऑप्शन मांगा.
स्टीव के वापस आते ही दौड़ पड़ी एपल
स्टीव के मोर्चा संभालते ही कंपनी एक बार फिर ट्रैक पर लौटने लगी. उनके आईमैक, को लोगों से काफी पॉजिटिव रेस्पॉन्स मिला. आने वाले सालों में एपल ने मैकबुक एयर, आईपॉड और आईफोन जैसे कई शानदार प्रॉडक्ट्स की रेंज ऑफर की. इन प्रॉडक्ट्स में ऐसी दोतरफा टेक्नॉलजी का इस्तेमाल किया गया था कि कॉम्पिटिटर्स वैसी टेक्नॉलजी बनाने के लिए जान झोंक चुके थे मगर हासिल कुछ नहीं कर सके. इसका नतीजा ये हुआ कि एपल आने वाले दिनों में टेक्नॉलजी का चेहरा बन गई.
एनिमेशन स्टूडियो की शुरुआत
1986 में स्टीव ने एक जॉर्ज लुकास नाम से एक एनिमेशन कंपनी खरीद ली. जिसका नाम पिक्सार एनिमेशन स्टूडियो था. जॉब्स ने इस कंपनी ने अपनी जेब से 50 मिलियन डॉलर का निवेश किया. बाद में यह कंपनी एनिमेशन जगत के लिए एक जाना माना नाम बन गई. टॉय स्टोरी, फाइंडिंग नीम और दी इनक्रेडिबल जैसी फिल्में इसी स्टूडियो की देन हैं. पिक्सर्स में बनाई गई फिल्मों के हिट होने की वजह से कंपनी को 4 अरब डॉलर का फायदा हुआ. फिर 2006 में इसका डिज्नी के साथ मर्जर कर दिया गया जिसमें स्टीव मेजर शेयरहोल्डर थे.
परफेक्शन था स्टीव का मंत्रा
अपने करियर में एपल शुरू करना हो या पिक्सार को, स्टीव ने अपने हर काम में हमेशा परफेक्शन को जगह दी है. स्टीव जॉब्स को परफेक्शन से इतना लगाव था कि इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. आज की तारीख में एपल के प्रॉडक्ट करने वाले लोग इस बात को बखूबी समझ सकते होंगे की एपल के प्रॉडक्ट्स में हर छोटी से छोटी चीजों पर कितना काम और ध्यान दिया गया है. जॉब्स की ये आदत सिर्फ उनके काम तक ही सीमित नहीं थी.
उनकी पत्नी एक इंटरव्यू के दौरान बताती हैं कि जॉब्स अपने पर्सनल लाइफ में हर एक चीज को लेकर इतने ही ऑब्सेसिव थे. अपने घर के लिए सोफा खरीदने में उन्होंने 8 साल लगा दिए. मिसाल के तौर पर मान लेते हैं हम या आप कोई चीज बना रहे हैं, आमतौर पर हम उस हिस्से की नक्काशी पर ज्यादा ध्यान देंगे जो आंखों के सामने पहले पड़ता है. उस हिस्से को अमूमन हम इग्नोर कर देते हैं जिस पर नजर नहीं जाती. मगर स्टीव के साथ ऐसा नहीं था. उनका कहना था कि जो भी काम करो वो गुड नहीं ग्रेट होना चाहिए. जितना हो सके उतना बेहतर करो.
कभी कभी उनके इसी आदत की वजह से उनके कई साथियों ने उन्हें एक ऐसा शख्स बताया है जिसके साथ काम करना काफी मुश्किल है. मगर एपल के मौजूदा सीईओ टीम कुक 2015 में एक इंटरव्यू में स्टीव को लेकर कहते हैं कि परफेक्शन के लिए शायद ही किसी के अंदर उनके जैसी भूख हो. ज्यादातर समय एपल के प्रॉडक्ट मार्केट में लाने लायक हैं या इस बात का फैसला स्टीव के फैसले पर ही होता था. अगर उन्हें वो प्रॉडक्ट इस्तेमाल करके लगा कि हां इसने वो बात है जो यूजर को एपल का फील देगी तभी वो उसे ग्रीन सिग्नल देते थे.
बुराइयों के भी काफी चर्चे थे
स्टीव जॉब्स को एपल की कामयाबी के नाम पर जितना जाना जाता है उतना ही उनकी खामियों के चर्चे भी हैं. ऑथर वॉल्टर आईजैकसंस ने जॉब्स पर लिखी बेस्ट सेलिंग बायोग्राफी में स्टीव को गुड स्टीव और बैड स्टीव में बांटा है. वॉल्टर के मुताबिक गुड स्टीव जहां तेर तर्रार, करिश्माई, एक्सिलेंस के उस्ताद थे तो बैड स्टीव चिड़चिड़े, असभ्य, जलन से भरे और कंट्रोलिंग नेचर के थे. ऐसा कहा जाता है कि स्टीव पब्लिक के बीच में एंप्लॉयीज की बेज्जती करते थे, दूसरों के काम के बदले खुद क्रेडिट लेना, उनके मुताबिक काम न हो तो पूरे ऑफिस को सिर पर उठाने जैसी चीजें उनके नाम हैं. अगर एक शब्द में उन्हें कोई उपाधि देनी हो तो सनकी शब्द उनके लिए सही फिट बैठ सकता है.
उन्होंने एपल को जिस मुकाम पर पहुंचाया उससे लोगों के बीच ये संदेश जा रहा था कि एक महान कंपनी खड़ी करने के लिए आप थोड़े अकड़ू, घमंडी बन जाएं, अपने से नीचे के लोगों की बेजज्जती भी कर दें तो सब चल जाता है. मगर ऐसा बिल्कुल नहीं, कई ऐसी कंपनियां हैं जिनके बॉस बहुत दिलदार और सभ्य रहे हैं और उनकी कंपनी भी उतनी ही सफल रही है. कुल मिलाकर एपल के सफल होने में स्टीव के बैड बिहेवियर का कोई रोल नहीं है जिसे लोगों ने सर पर चढ़ा रखा था.
गूगल से लेकर वर्जिन अटलांटिक, पीएंडजी और साउथवेस्ट एयरलाइन उन कंपनियों का उदाहरण हैं जो बताती हैं अच्छे बॉस बनकर भी कंपनी को ऊपर पहुंचाया जा सकता है. कुलमिलाकर अगर स्टीव से सीखने वाली ऐसी कई चीजें जो आप अपना सकते हैं तो उतनी ही निगेटिव चीजें भी हैं जिनसे आप दूरी बना सकते हैं.
कैंसर से जूझते वक्त खुद को लिखा एक लेटर
एपल सफलता की सीढ़ियां चढ़ रही थी मगर स्टीव की जिंदगी के दिन कम हो रहे थे. 5 अक्टूबर 2011 को कैंसर के चलते उनकी मौत हो गई. मगर 2 सितंबर, 2010 को उन्होंने इलाज के दौरान ही अपने नाम एक लेटर लिखा था. जो उनकी मौत के बाद उनकी पत्नी ने पब्लिक किया है.
उस लेटर में स्टीव लिखते हैं, आज मैं जो खाना खा रहा हूं, वो जिस बीज से तैयार होकर मुझतक पहुंचा है उसे किसी और शख्स ने बनाया है. मैं जो कपड़े पहनता हूं, वो भी किसी और शख्स ने बनाए हैं. जो मैं बोलता हूं, जो मैथ्स हम इस्तेमाल करता हूं वो भी किसी और की देन हैं. जिस कानून और विधायिका ने मुझे आजादी दी है वो भी किसी और के बनाए हैं. जिस म्यूजिक को आज में इतना एंजॉय करता हूं वो भी किसी और की क्रिएटिविटी हैं.
इतना ही नहीं आज मुझे अपने इलाज के लिए मेडिकल केयर की जरूरत है वो भी मैंने नहीं बनाए हैं. मैं ज्यादातर समय जिस टेक्नॉलजी में मैं काम करता हूं उसमें लगने वाले माइक्रोप्रोसेसर से लेकर हर एक चीज किसी और के बनाए हैं. आज मैं जिंदा रहने से लेकर ठीक रहने तक के लिए इन चीजों पर निर्भर हूं. सबसे खास बात कि ये सभी चीजें बनाई आदमी ने ही हैं और इसलिए मुझे इस स्पीसीज से हमेशा लगाव रहेगा.