वो राजनेता जो आज ही के दिन हुए थे कश्मीर के लिए सबसे पहले शहीद
अखंड भारत के नवोन्मेषी चितेरे डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान दिवस पर विशेष...
आज की अधिकांश युवा और किशोर पीढ़ी जिसने कश्मीर के नाम पर सिर्फ अटूट और अभिन्न अंग होने की भावुक लोरियां ही सुनी हैं, उनके लिये डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक अपरिचित, अनजाना, अनसुना, अनपढ़ा और अबूझ नाम हो सकता हैं, किंतु तारीख की निगाहों में कश्मीर में लहराता हुआ तिरंगा, सार्वजनिक प्रेक्षागृहों और कार्यालयों में लगी भारतीय प्रधानमंत्री की तस्वीरें और आम भारतीय की बगैर परमिट वादी में चहलकदमी, उन्हें हिंद के इतिहास में वह मुकाम और वकार आता करता है, जो भारत में हैदराबाद विलय प्रसंग में सरदार पटेल को दिया जाता है।
डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ही आजाद भारत के वह पहले राजनेता थे जिनकी निर्णायक पहल, संघर्षों और अंतत: बलिदान के बाद कश्मीर की दो विकृतियां (प्रधान और निशान) दूर हुईं।
गौरतलब है कि आज फिर उसी अटूट-अभिन्न अंग की विकृति के जिम्मेदार सड़े दुर्गंध युक्त फोड़े धारा 370 से रिसते अलगाव और आतंक के मवाद में बजबजाते कीटाणु 'बुरहान' जैसों को मौकापरस्त सियासत के नाले में पुनर्जीवन प्राप्त हो रहा है, लिहाजा मौजूदा संक्रमित काल खंड में ऐसे दिव्य पुरुष की गौरवमयी गाथा को जन-जन तक पहुंचाना परम आवश्यक है, ताकि भारत की युवा पीढ़ी डॉ. मुखर्जी के जीवन से प्रेरणा लेकर मां भारती को परम वैभव तक ले जाने की राह में आगे बढ़ती रहे।
कश्मीर हमारा अटूट-अभिन्न अंग है। कानों में उतरता यह नारा आजादी के बाद पैदा हुए हर हिंदुस्तानी ने राजनीतिक लोरी की तरह सुना है। इनमे से तमाम ने इतिहास के पन्नों पर घुटनों के बल सरकते हुए यह भी जाना कि पचास के दशक तक उसी अटूट-अभिन्न अंग में एक आम हिंदुस्तानी परमिट लेकर जाने की हैसियत रखता था। उसी अटूट-अभिन्न अंग का मालिक कोई दूसरा भी था, कश्मीर का प्रधान यानी अपना प्रधानमंत्री। उसके अटूट-अभिन्न अंग का रंग भी उसके बाकी शरीर जैसा तिरंगा न होकर कुछ और था, यानी कश्मीर का अलग झंडा और निशान। ये वो वायरस थे जो कल्हड़ ऋषि के कश्मीर को शेख अबदुल्ला के कश्मीर में तब्दील करने को आमादा थे।
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इस व्यवस्था के विरोध में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बिना अनुमति के ही जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने का निश्चय किया। वे 8 मई 1953 को सायंकाल जम्मू के लिए रवाना हुए। उनके साथ वैद्य गुरुदत्त, श्री टेकचन्द, डा. बर्मन और अटल बिहारी वाजपेयी आदि भी थे। 13 मई 1953 को रावी पुल पर पहुंचते ही शेख अब्दुल्ला की सरकार ने डा. मुखर्जी, वैद्य गुरुदत्त, पं. प्रेमनाथ डोगरा और श्री टेकचन्द को बंदी बना लिया। शेष लोग वापस लौट आये। डा. मुखर्जी ने 40 दिन तक जेल जीवन की यातनायें सहन कीं। वहीं वे अस्वस्थ हो गये या कर दिये गये। 22 जून को प्रात: 4 बजे उनको दिल का दौरा पड़ा। उन्हें उचित समय पर उचित चिकित्सा नहीं दी गयी। इसके परिणामस्वरूप अगले ही दिन 23 जून 1953 को रहस्यमयी परिस्थितियों में प्रात: 3:40 पर डा. मुखर्जी का देहान्त हो गया।
डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरू के शेख अब्दुल्ला प्रेम पर बलिदान हो गये, लेकिन इसके बाद जो तूफान उठा, उससे देश में से दो निशान, दो विधान और दो प्रधान समाप्त हो गये, जम्मू-कश्मीर में प्रवेश की अनुमति लेने की व्यवस्था भी समाप्त हुई और जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया गया। जम्मू कश्मीर को भारतीय संविधान के तहत लाया गया और शेख अब्दुल्ला को वजीरे आजम का पद गंवाना पड़ा।
शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा आतिशे चीनार में स्वीकार किया है कि उनके पूर्वज हिन्दू थे। स्वयं शेख अब्दुल्ला के परदादा का नाम बालमुकंद कौल था।
डॉ.मुखर्जी का बलिदान राजनीति में प्रखर राष्ट्रवाद की मिसाल है। राजनीतिक इतिहास में देश प्रेम, राष्ट्रवाद और स्वाधीनता प्रेम शब्दों को समानार्थी समझने की गलतफहमी दूर किये बिना डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी के भारतीय राजनीति में योगदान और राष्ट्रवाद के प्रवर्तन को समझना कठिन है। प्रखर राष्ट्रवाद की भावना समझे बिना डॉ. मुखर्जी और भारतीय जनसंघ के मूलदर्शन को नहीं समझा जा सकता है। राष्ट्रवाद, देशभक्ति और स्वतंत्रता की चेतना से अधिक श्रेष्ठ है। राष्ट्रवाद, देश प्रेम की वह प्रखर भावना है, जो देश की अखण्डता, देश की जनता के प्रति समर्पित करने की प्रेरणा देता है।
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी नवभारत के निर्माताओं में से एक महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। उन्हें किसी दल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता क्योंकि उन्होंने जो कुछ किया देश के लिए किया और इसी भारतभूमि के लिए अपना बलिदान तक दे दिया।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है -'हे भारतीयों! तुम जन्म से ही माता (भारत माता) के लिए बलिस्वरूप रखे गये हो।' डॉ मुखर्जी ने इसे चरितार्थ किया। डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी और हजारों देशभक्तों के बलिदानों के पश्चात जम्मू-कश्मीर और शेष भारत के बीच अलगाव की दीवारें कुछ सीमा तक गिर गई हैं, परमिट व्यवस्था खत्म हो गई है और राज्य के लिए अलग प्रधान अर्थात् सदर-ए-रियासत के स्थान पर केंद्र की ओर से राज्यपाल की नियुक्ति होती है। लोकसभा के लिए इस राज्य से संसद सदस्यों के चुनाव होने लगे हैं। कई केंद्रीय कानून यहां लागू किए गए हैं। किंतु डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जिन उद्देश्यों को लेकर बलिदान दिया था वे आज भी पूरे नहीं हुए हैं।
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58 वर्ष पूर्व भारत के संविधान में रखी गई अस्थाई धारा 370 अब भी यहां मौजूद है। राज्य का अपना एक अलग झंडा रखा गया है और एक अलग संविधान बनाकर गैर कश्मीरियों को वहां बसने से रोका गया है। कश्मीरियों के भी लोकतांत्रिक अधिकार सीमित किए गए हैं। विधानसभा की अवधि 5 वर्ष के बजाय 6 वर्ष रखी गयी है। कितनी ही ऐसी अलोकतांत्रिक चीजें राज्य के साथ जुड़ी हुई हैं, जिनका भारतीय संविधान में कोई प्रावधान नहीं। डा.मुखर्जी का मिशन इतने वर्षों के पश्चात न केवल आज भी अधूरा है, बल्कि कई नए-नए खतरे उभरकर सामने आ रहे हैं। एक ओर 1953 से पूर्व की स्थिति बहाल करने के लिए स्वायत्तता के नारे लगाए जा रहे हैं तो दूसरी ओर स्वप्रशासन और पाकिस्तान की मुद्रा जैसी बातें भी उभर रही हैं। वास्तविकता यह है कि बलिदानों के पश्चात भी लक्ष्य पूरे नहीं हुए हैं। आज फिर उसी अटूट-अभिन्न अंग की विकृति के जिम्मेदार सड़े दुर्गंध युक्त फोड़े धारा 370 से रिसते अलगाव और आतंक के मवाद में बजबजाते कीटाणु 'बुरहान' जैसों को मौकापरस्त सियासत के नाले में पुनर्जीवन प्राप्त हो रहा है, लिहाजा मौजूदा संक्रमित काल खंड में ऐसे दिव्य पुरुष की गौरवमयी गाथा को जन-जन तक पहुंचाना परम आवश्यक है, ताकि भारत की युवा पीढ़ी डॉ. मुखर्जी के जीवन से प्रेरणा लेकर मां भारती को परम वैभव तक ले जाने की राह में आगे बढ़ती रहे।
आज भी रहस्य है डॉ. मुखर्जी की मौत
डॉ. मुखर्जी की रहस्यमयी मौत की सच्चाई से आज तक पर्दा नहीं उठ पाया है। डॉ.मुखर्जी की मृत्यु के बाद उनकी मां योगमाया ने पंडित नेहरु को एक पत्र लिखकर अपने बेटे की मृत्यु की जांच करवाने की मांग की थी। तब नेहरू ने उसे लिखा था- 'मैं इसी सच्चे और स्पष्ट निर्णय पर पहुंचा हूं कि इस घटना में कोई रहस्य नहीं है।' इसके बाद उनकी मां ने लिखा, 'मैं तुम्हारी सफाई नहीं चाहती, जांच चाहती हूं। तुम्हारी दलीलें थोथी हैं और तुम सत्य का सामना करने से डरते हो। याद रखो तुम्हें जनता के और ईश्वर के सामने जवाब देना होगा। मैं अपने पुत्र की मृत्यु के लिए कश्मीर सरकार को ही जिम्मेदार समझती हूं और उस पर आरोप लगाती हूं कि उसने ही मेरे पुत्र की जान ली। मैं तुम्हारी सरकार पर यह आरोप लगाती हूं कि इस मामले को छुपाने और उसमेें सांठ-गांठ करने का प्रयत्न किया गया है।' यहां तक की पश्चिमी बंगाल की कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री डॉ. विधानचंद राय ने मुखर्जी की हत्या की जांच सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश से करवाने की मांग की थी। कांग्रेस के ही पुरुषोत्तम दास टण्डन ने भी डॉ. मुखर्जी हत्या की जांच की मांग की।
कई रहस्य हैं अभी भी
डॉ मुखर्जी को जिस जेल में रखा गया था, वह उस समय एक उजाड़ स्थान पर थी। मौत से पहले डॉ. मुखर्जी को 10 मील दूर के अस्पताल में जिस गाड़ी में ले जाया गया, उसमें उनके किसी और साथी को बैठने नहीं दिया गया। डॉ. मुखर्जी की व्यक्तिगत डायरी गायब कर दी गई। इलाज के कागजात भी गायब कर दिए गए। इन्हीं समस्त साक्ष्यों को देखते हुए भारतीय जनसंघ समेत देश भर में डॉ.मुखर्जी की हत्या की जांच की मांग की।
शेख अब्दुल्ला की सरकार पर मुखर्जी की हत्या में मिलीभगत होने का शक इतना गहरा रहा था कि कुछ समय बाद ही अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन मुखर्जी की हत्या की जांच के लिए किसी भी सरकार ने पहल नहीं की।