सात साल में कितना बदला देश में पहले हैबिटेट राइट्स वाला बैगाचक?
देश में पहली बार 2015 में मध्यप्रदेश के बैगाचक के सात गांवों में वन अधिकार क़ानून के अंतर्गत पर्यावास अधिकार यानी हैबिटेट राइट्स दिए गये थे. लेकिन इस इलाके के लोगों को अब भी इसका ठीक-ठीक मतलब नहीं पता है. जिन सात गांवों को हैबिटेट राइट्स दिए गए थे, आज तक उनका एक प्रामाणिक नक्शा तक नहीं बन पाया है.
घुमावदार रास्तों से सिलपिड़ी गांव में पहुंचने के बाद हमें चर्रा सिंह रठूरिया का घर तलाशने में थोड़ी मुश्किल इसलिए हुई कि पिछली बार की हमारी मुलाकात गांव के एक दूसरे आदिवासी के घर में हुई थी. 2015 में मध्य प्रदेश के डिंडौरी ज़िले का यह इलाका इसलिए चर्चा में था क्योंकि देश में पहली बार किसी गांव को वन अधिकार क़ानून के तहत पर्यावास अधिकार यानी हैबिटेट राइट्स दिया गया था. चर्रा सिंह रठूरिया उन थोड़े से लोगों में थे, जो इस हैबिटेट राइट्स को लेकर आदिवासियों में जागरुकता फैलाने का काम कर रहे थे.
गांव के स्कूल के सामने एक नौजवान ने हाथ से नीचे ढ़लान की ओर इशारा किया. गाड़ी में उनके घर तक जाना मुश्किल था. हमने छह साल पहले खिंची गई उनकी ढेर सारी तस्वीरों के प्रिंट, अपना कैमरा और रिकार्डर संभाला और उनके घर की ओर चल पड़े.
घर में घुसते ही पता चला कि चर्रा सिंह रठूरिया अब नहीं रहे. 2020 में उनका निधन हो गया.
उनकी पत्नी सोनी बाई को मैंने चर्रा सिंह रठूरिया की पुरानी तस्वीरें सौंपी तो जैसे उन्हें काठ मार गया. वे उन तस्वीरों में अपने पति के मुस्कुराते चेहरे को उंगलियों से स्पर्श करती रहीं. बहुत देर बाद उन्होंने खुद को संभाला, “मेरे पास तो तस्वीर भी नहीं थी उनकी. वे हैबिटेट राइट्स के लिए ख़ूब काम करते थे. गांव-गांव घूमते रहते थे. लेकिन उनके निधन के बाद सब कुछ ख़त्म हो गया.”
चर्रा सिंह रठूरिया के बेटे मन्नू सिंह पांचवीं की पढ़ाई करने के बाद अब खेती-मज़दूरी करते हैं. मन्नू सिंह को भी शिकायत है कि जिन संस्थाओं के साथ उनके पिता काम करते थे, उन्होंने कभी परिवार की सुध नहीं ली. मन्नू सिंह को हैबिटेट राइट्स की अधिक जानकारी नहीं है. उन्हें इतना भर पता है कि छः साल पहले एक बड़ा आयोजन किया गया था और कोई प्रमाण पत्र दिया गया था. किस बात का प्रमाण पत्र था, उन्हें इसकी जानकारी नहीं है.
सिलपिड़ी गांव के ही बिजली दैहान टोला के रहने वाले ज्ञान सिंह मरावी को भी नहीं पता कि हैबिटेट राइट्स क्या बला है? उसी गांव के रहने वाले 25 साल के शिक्षक कालेश्वर मांडले ने ज़िला मुख्यालय डिंडौरी के सीवी कॉलेज से अर्थशास्त्र में एमए किया है. लेकिन वे भी हैबिटेट राइट्स को लेकर अनभिज्ञता दर्शाते हैं.
देश में पहला हैबिटेट राइट्स
वर्ष 2012 में वनाधिकार कानून में एक संशोधन हुआ और हैबिटेट राइट्स को इसमें शामिल किया गया था. इसके तीन साल बाद मध्य प्रदेश के डिंडोरी ज़िले के बैगाचक के 23 हज़ार एकड़ इलाके में फैले सात गांवों को 29 दिसंबर 2015 को तत्कालीन प्रभारी मंत्री शरद जैन के हाथों, गौराकन्हारी गांव में हैबिटेट राइट्स का प्रमाण पत्र दिया गया था. इससे पहले देश में किसी भी समुदाय को वन अधिकार क़ानून के अंतर्गत हैबिटेट राइट्स नहीं दिए गए थे.
वन अधिकार क़ानूनके नाम से चर्चित 2006 के अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) क़ानून की धारा 3 (1) के अंतर्गत सुनिश्चित किया गया कि वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के सभी वनभूमि पर वन अधिकार होंगे, जो व्यक्तिगत या सामुदायिक भूधृति यानी भूमि पर अधिकार की व्यवस्था दोनों को सुरक्षित करते हैं. इस क़ानून की धारा 3 (1) (ई) में उन अधिकारों को शामिल किया गया, जिनके अंतर्गत आदिम जनजाति समूहों और कृषि पूर्व समुदायों के लिए गृह और आवास की सामुदायिक भूमि अधिकार की व्यवस्था भी हैं. आदिम जनजाति समूह यानी विशेष पिछड़ी जनजाति समूह उपवर्ग में भारत की 75 जनजातियां शामिल हैं.
इस क़ानून की धारा-2 (ज) में हैबिटेट यानी आवास को परिभाषित करते हुए कहा गया कि ‘आवास’ के अंतर्गत ऐसा क्षेत्र भी हैं, जिसमें आदिम जनजाति समूहों और कृषि पूर्व समुदायों और अन्य वन निवासी, अनुसूचित जनजातियों के आरक्षित वनों और संरक्षित वनों में परंपरागत आवास और ऐसे अन्य आवास सम्मिलित हैं.
सरल शब्दों में कहें तो किसी विशेष पिछड़ी जनजाति समूह द्वारा पारंपरिक रूप से आजीविका, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व आत्मिक कार्यों के लिए जिस भू-भाग का उपयोग किया जाता रहा है, उस पर उस समुदाय को अधिकार देने का प्रावधान इस क़ानून में शामिल किया गया.
हैबिटेट राइट्स को वन अधिकार में शामिल किए जाने के बाद भी इसके हिंदी अनुवाद ‘आवास’ के कारण देश भर में उलझन हुई. कई इलाकों में मान लिया गया कि यह इंदिरा आवास या इसी तरह की मिलती-जुलती आवास योजना से जुड़ा मामला है. हालत ये हुई कि इस बारे में केंद्र सरकार को एक स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा. इन्हीं उलझनों के बीच डिंडौरी ज़िले के बैगाचक में हैबिटेट राइट्स देने की प्रक्रिया शुरु की गई.
1890 में ब्रिटिश सरकार ने तत्कालीन मंडला ज़िले के बैगा जनजाति बहुल गांवों को स्वतंत्र रूप से रहवास का अधिकार दिया था, जिसे बाद में बैगाचक कहा गया. इसी बैगाचक के सात गांव- सिलपिड़ी, ढाबा, रजनी सराई, धुरकुटा, लिमौटी, जिलांग और अजगर को राज्य सरकार ने दिसंबर 2015 में हैबिटेट राइट्स का प्रमाणपत्र दिया. माना जा रहा था कि हैबिटेट राइट्स मिलने के बाद सात गांवों के विशेष पिछड़ी जनजाति समूह के बैगा आदिवासियों का परंपरागत अधिकार और सुरक्षित हो जाएगा. लेकिन सच तो ये है कि इन सात गांवों में अधिकांश लोगों को पता ही नहीं है कि हैबिटेट राइट्स का मतलब क्या है?
बैगाचक के सात गांवों में हैबिटेट राइट्स की पहल करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता नरेश विश्वास मानते हैं कि देश में भले पहली बार बैगाचक में हैबिटेट राइट्स दिये जाने को उपलब्धि माना जा सकता है लेकिन जिन सात गांवों को यह अधिकार मिला है, उनके अधिकारों की स्थिति अब तक स्पष्ट नहीं है.
अधिकार और सीमा के पेंच
नरेश विश्वास बताते हैं कि छह साल से अधिक गुजर जाने के बाद भी अब तक इन गांवों और उनके दूसरे भूभाग का नक़्शा तक नहीं बन पाया है. इसी तरह केंद्र सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने 2020 में हैबिटेट राइट्स को लेकर दिशा-निर्देश बनाये जाने के लिए एक विशेषज्ञ कमेटी बनाई थी. नरेश विश्वास भी इस कमेटी में शामिल थे. लेकिन अब तक इस कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई. ज़ाहिर है, हैबिटेट राइट्स को ठीक-ठीक समझना और उसे पालन करने में अभी भी कई अड़चने हैं.
नरेश विश्वास ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “जिन सात गांवों को हैबिटेट राइट्स मिले थे, उनमें से एक सिलपिड़ी को छोड़ कर किसी भी गांव में हैबिटेट राइट्स को लेकर कोई जागरुकता नहीं है. 2018 में घोंघिछापर और केवारमाड़ा में वन विभाग जंगल साफ़ करने वाला था. बैगा आदिवासियों को प्रलोभन भी दिया गया और दबाव भी बनाया गया लेकिन हैबिटेट राइट्स के कागज दिखा कर सिलपिड़ी के बैगाआदिवासियों ने वन विभाग को वापस लौटने पर मजबूर किया. हालांकि दूसरे गांवों में लोग अपने अधिकार को लेकर जागरुक नहीं हैं. एक संकट ये भी है कि हैबिटेट राइट्स में विस्तार से क्षेत्रफल और अधिकार का उल्लेख होना था लेकिन यहां बांटा गया हैबिटेट राइट्स का प्रमाणपत्र महज कागज का एक औपचारिक पन्ना भर बन कर रह गया है.”
नरेश विश्वास का कहना है कि डिंडौरी के बाद मंडला ज़िले के सात गांवों में भी हैबिटेट राइट्स दिए गये हैं. इनमें उन ग़लतियों से बचा गया है, जो गलतियां बैगाचक में की गई थीं. यहां दिए गए प्रमाण पत्र में विस्तार से हैबिटेट राइट्स की सीमा और अधिकारों का उल्लेख है. इसके अलावा पातालकोट में भी हैबिटेट राइट्स की प्रक्रिया चल रही है. छत्तीसगढ़ के कुछ ज़िलों में भी लोग इसकी कोशिश कर रहे हैं. नरेश विश्वास इसे ही उपलब्धि की तरह देखते हैं.
वे कहते हैं कि यह किसी एक गांव के सामुदायिक वन अधिकार की तरह नहीं है, यह एक पूरी जनजाति के रहवास इलाके के अधिकार का मामला है, लेकिन इसे परिभाषित करना और समझाना, अभी भी बहुत मुश्किल है. धरातल पर इसके कई पेंच हैं, जिसे सुलझाने में अभी भी वक्त लगेगा.
डिंडौरी के डीएफओ साहिल गर्ग भी मानते हैं कि हैबिटेट राइट्स का ठीक-ठीक मतलब क्या है, इसकी सीमाएं क्या हैं, यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पाया है. ऐसे में शिक्षा से वंचित बैगा आदिवासियों से यह उम्मीद करना कि वे इसे समझ गये होंगे, सच्चाई से आंख बंद कर लेने की तरह है.
साहिल गर्ग ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “हैबिटेट राइट्स के अधिकार और कर्तव्य को समझना ज़रुरी है. जंगल की बेहतरी के लिए कूप कटाई का वैज्ञानिक प्रावधान है लेकिन एक गांव में बैगा आदिवासियों ने कूप कटाई से इंकार कर दिया और कहा कि हैबिटेट राइट्स उनके पास है, इसलिए जंगल में वन विभाग कूप कटाई नहीं कर सकता.”
हालांकि सिलपिड़ी गांव को छोड़ कर सभी दूसरे गांवों से लगे जंगल में कटाई जारी है. सिलपिड़ी में भी गांव के लोगों की अपनी मुश्किलें हैं. अधिकांश लोगों को हैबिटेट राइट्स का तो पता नहीं ही है, वे वन अधिकार के व्यक्तिगत पट्टे में भी अभी तक उलझे हुए हैं. सिलपिड़ी के एक खेत में काम कर रहे धनसराम की शिकायत है कि उन्हें जो व्यक्तिगत पट्टा मिला है, उसमें उनके केवल एक खेत का विवरण है. दोनों जवान बेटों के नाम तो कुछ भी नहीं है. इसी तरह फागु सिंह रठुरिया का कहना है कि वे 2005 से जिस ज़मीन पर काबिज हैं, उसका अधिकार पत्र उन्हें आज तक नहीं मिला. फागु सिंह रठुरिया को हैबिटेट राइट्स के बारे में कुछ जानकारियां हैं. लेकिन उनका कहना है कि हैबिटेट राइट्स में उस इलाके को भी शामिल किया जाना चाहिए था, जिस इलाके में बैगा आदिवासियों का आना-जाना, खेती-बाड़ी, कंद-मूल लगाना जैसे काम होते थे. लेकिन ऐसा नहीं किया गया.
हालांकि ये संकट अकेले डिंडौरी या मध्य प्रदेश भर का नहीं है. भारत सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा विशेष पिछड़ी जनजाति समूह के लिए गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबंधित समिति के सदस्य वाई गिरी राव का कहना है कि हैबिटेट राइट्स का मामला उतना आसान नहीं है, जितना व्यक्तिगत या सामुदायिक वन अधिकार का होता है. विशेष पिछड़ी जनजाति समूह की पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही परंपरागत व्यवस्थाओं को, उनकी प्राकृतिक और पारंपरिक सीमा को समझना सबसे जरुरी है.
पिछले कई सालों से विशेष पिछड़ी जनजाति समूह से संबंधित विषयों पर काम कर रहे वाई गिरी राव कहते हैं, “हैबिटेट एक गांव का नहीं, पूरे समुदाय का होता है. ओडिशा में जुआंग जनजाति के 165 गांवों को हैबिटेट राइट्स के लिए साथ लाया गया. अगर किसी जनजाति का विस्तार तीन ज़िले में है तो हैबिटेट राइट्स के लिए तीनों ज़िलों के जितने गांव हैं, उनकी सहमति के साथ, उन तीनों ज़िलों को मिला कर हैबिटेट राइट्स देना होगा. अन्यथा किसी भी आपत्ति के बाद यह मामला और उलझ कर रह जाएगा.”
मतलब साफ़ है कि दस साल बाद भी हैबिटेट राइट्स के घुमावदार और भूल-भुलैया से भरे रास्ते से बाहर निकल कर अधिकार को पा लेना एक बड़ी चुनौती है और कम से कम डिंडौरी के बैगाचक इलाके के आदिवासियों की राह अभी उतनी आसान तो नहीं है.
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: जंगल जाती एक बैगा महिला. तस्वीर - आलोक प्रकाश पुतुल