आईएफएस अधिकारी विपुल पांडेय की नर्सरी में ईको फ्रेंडली बांस के गमले
बिगड़ते पर्यावरण की मार से बेजार दुनिया में जो तमाम नाम एक अलग तरह की पॉजिटिव कोशिश के नाते सुर्खियों में हैं, उनमें ही एक हैं अंडमान के ईको-फ्रेंडली आईएफएस ऑफिसर विपुल पांडेय, जो वन विभाग की नर्सरी में पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से प्लॉस्टिक की जगह बांस के गमलों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित कर रहे हैं।
दरअसल, शख्सियत वही नहीं होती, जिसे मीडिया हीरो बना देता है। असली शख्सियत तो वह होती है, जो सिर्फ समाज के नफा-नुकसान को ध्यान में रहते हुए चुपचाप किसी ऐसे काम को अंजाम देने में जुट जाती है, जो अकेले उसके फायदे का होने की बजाय सोसाइटी के हजारों, लाखों लोगों की जिंदगियों को अपने हुनर और ईमानदारी से आसान बना देती है। वह दक्षिण अंडमान डिवीज़न में तैनात विपुल पांडे हों या बांग्लादेशी वैज्ञानिक मुबारक अहमद खान या नौकरी से रिटायर हो जाने के बाद मुंबई की सड़कों पर गुमनाम शख्सियत की तरह ट्रैफिक कंट्रोल कर रहे एक 'अनाम' 69 वर्षीय बुजुर्ग अथवा औरंगाबाद के संबाजी भाऊ साहेब निर्मल। आइए, सबसे पहले विपुल पांडेय की प्रेरक कामयाबी से रू-ब-रू होते हैं।
विपुल मई, 2018 से दक्षिणी अंडमान डिवीज़न में एक आईएफएस ऑफिसर के रूप में सिर्फ अपनी नौकरी ही नहीं कर रहे, बल्कि अपने एक अतिरिक्त काम से अपने डिवीज़न में पर्यावरण के अनुकूल तरीके अपनाने की लोगों को प्रेरणा दे रहे हैं।
विपुल पांडेय ने सिर्फ इतना किया है कि अपने डिवीज़न के गाँव जिर्कातंग की एक नर्सरी में सैपलिंग उगाने के लिए प्लास्टिक की जगह बांस के गमलों का इस्तेमाल कर रहे हैं। प्लास्टिक गमलों को रिप्लेस करने के लिए उन्होंने सात महीने तक अपना पहला एक्सपेरिमेंट नारियल के खोल पर किया, जो असफल रहा। इसके बाद उन्होंने फॉरेस्ट गार्ड तनवीर की मदद से काटकर फेंक दिए गए कुल पांच सौ बांस के तने जुटाए, उनके गमले तैयार कराए और ये इको-फ्रेंडली एक्सपेरिमेंट कामयाब हो चला। अब उन बांस के गमलों में नर्सरी के पौधे तैयार किए जा रहे हैं।
इन गमलों की खासियत है कि एक साल के बाद वे मिट्टी में स्वतः खुल जाते हैं और पौधों की जड़े नेचुरल तरीके से फैलने लगती हैं। साथ ही, उन बांस के गमलों का दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। इस सक्सेज के साथ ही विपुल पांडेय अपनी टीम के साथ ‘प्लास्टिक पॉल्यूशन चैलेंज’ अभियान भी चलाते हुए प्लास्टिक-मुक्त और भी कई तरह के एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं।
एक और ऐसी ही शख्सियत हैं, बांग्लादेश की सरकारी जूट मिल्स कॉर्पोरेशन (बीजेएमसी) के वैज्ञानिक सलाहकार और जूट के नए बैग बनाने वाली टीम के मुखिया मुबारक अहमद खान, जिन्होंने हाल ही में जूट वाले प्लास्टिक की खोज की है, जिससे उनके देश में एक बड़े मुनाफे वाले कारोबार की संभावना पैदा हो गई है। भारत के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा जूट बांग्लादेश में पैदा होता है। साठ वर्षीय मुबारक अहमद खान ने सिर्फ इतना किया है कि उन्होंने जूट के रेशों को कम कीमत में जैविक रूप से अपघटित होने वाले सेल्यूलोज की शीट में बदलने का तरीका ढूंढ निकाला है। इसका फायदा यह है कि दिखने में यह प्लास्टिक जैसा होने के साथ ही पर्यावरण के अनुकूल आसानी से नष्ट हो जाता है।
मुबारक अहद खान बताते हैं कि इसके भौतिक गुण लगभग एक जैसे ही हैं। ये थैले तीन महीने मिट्टी में दबा कर रखने के बाद पूरी तरह से अपघटित हो जाते हैं और इन्हें रिसाइकिल भी किया जा सकता है। अब सरकार ने भी बांग्लादेश के क्लाइमेट चेंज ट्रस्ट फंड से नौ लाख डॉलर मुहैया कराए हैं ताकि इन थैलों का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हो सके।
गौरतलब है कि बांग्लादेश दुनिया के उन पहले देशों में एक है, जिन्होंने आज से सत्रह साल पहले से प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल पर रोक लगा रखी है। अब मुबारक अहमद खान को रोजाना दुनिया के अलग-अलग देशों ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा, मेक्सिको, जापान, फ्रांस आदि के जूट वाले बैग के खरीदारों से तमाम ईमेल और फोन कॉल आ रहे हैं। फिलहाल, उनका देश निर्यात के लिए राजधानी के डेमरा इलाके की लतीफ बावनी जूट मिल्स में हर महीने कम से कम एक करोड़ थैलों के प्रोडक्शन में जुटा हुआ है।
'सोनाली बैग' नाम के ये जूट बहुलक थैले बायोडिग्रेडेबल हैं और इन्हे पॉलीथिन की तरह ही इस्तेमाल किया जा सकता है। इनके इस्तेमाल से पर्यावरण की अपूरणीय क्षति को तेजी से कंट्रोल किया जा सकता है। यह छह महीने में मिट्टी में सड़ जाता है, जलने पर राख में बदल जाता है। साथ ही यह पॉलीथिन के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक मजबूत होता है।