खड़ी बोली के प्रथम विश्व-कवि 'हरिऔध'
हिन्दी कविता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की पुण्यतिथि पर विशेष...
ठेठ हिंदी का ठाट, प्रियप्रवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई, अधखिला फूल, रुक्मिणी परिणय, संदर्भ सर्वस्व, हिंदी भाषा और साहित्य का विकास आदि कृतियों के श्रेष्ठ साहित्यकार अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की आज (16 मार्च) पुण्यतिथि है। खड़ी बोली को काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले कवियों में उनका शीर्ष स्थान रहा है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के शब्दों में 'हरिऔधजी की यह एक सबसे बड़ी विशेषता है कि वह हिन्दी के सार्वभौम कवि हैं। उन्होंने खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन-सरल सब प्रकार की कविताओं की रचना की।'
आज जिस हिंदी भाषा को तीस करोड़ लोग बोल रहे हैं, उसकी खड़ी बोली के उद्भव और विकास में हरिऔध जी का ऐतिहासिक योगदान रहा है। एक महाकाव्य के रूप में सबसे पहले हरिऔध के प्रिय प्रवास ने ही खड़ी बोली की दुंदभी बजाई।
हिन्दी कविता के विकास में अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की भूमिका नींव के पत्थर की तरह है। उन्होंने संस्कृत छंदों का हिन्दी में सफल प्रयोग किया। 'प्रियप्रवास' की रचना संस्कृत वर्णवृत्त में करके खड़ी बोली को पहला महाकाव्य दिया, वहीं आम हिन्दुस्तानी बोलचाल में 'चोखे चौपदे', तथा 'चुभते चौपदे' रचकर उर्दू जुबान की मुहावरेदारी को मुखर किया। कवि रूप में उनको सर्वाधिक प्रसिद्धि प्रबन्ध काव्य 'प्रियप्रवास' से मिली। इस समय विश्व में लगभग 2800 भाषाएँ हैं, जिनमें 13 भाषाएं बोलने वालों की संख्या साठ करोड़ से अधिक है। इनमें हिन्दी को तीसरा स्थान प्राप्त है। हिंदी भाषियों की संख्या तीस करोड़ से अधिक है।
आज जिस हिंदी भाषा को तीस करोड़ लोग बोल रहे हैं, उसकी खड़ी बोली के उद्भव और विकास में हरिऔध जी का ऐतिहासिक योगदान रहा है। एक महाकाव्य के रूप में सबसे पहले हरिऔध के प्रिय प्रवास ने ही खड़ी बोली की दुंदभी बजाई। 'प्रियप्रवास' की रचना से पूर्व की काव्य कृतियाँ कविता की दिशा में रचनात्मक सरोकार जैसी मानी जाती हैं। इन कृतियों में प्रेम और श्रृंगार के विभिन्न पक्षों को लेकर काव्य रचना के लिए किए गए अभ्यास की झलक मिलती है। 'प्रियप्रवास' को इसी क्रम में लिया जाता है। 'प्रियप्रवास' के बाद की कृतियों में 'चोखे चौपदे' तथा 'वैदेही बनवास' उल्लेखनीय हैं। 'चोखे चौपदे' लोकभाषा के प्रयोग की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
'प्रियप्रवास' की रचना संस्कृत की कोमल कान्त पदावली में हुई है और उसमें तत्सम शब्दों का बाहुल्य है। 'चोखे चौपदे' में मुहावरों के बाहुल्य तथा लोकभाषा के समावेश द्वारा कवि ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह अपनी सीधी सादी जबान को भूला नहीं है। 'वैदेही बनवास' उनकी एक और प्रबन्ध सृष्टि है। आकार की दृष्टि से यह ग्रन्थ छोटा नहीं है, किन्तु इसमें 'प्रियप्रवास' जैसी ताज़गी और काव्यत्व का अभाव पाया जाता है। एक अमेरिकन 'एनसाइक्लोपीडिया' ने उनके परिचय में उन्हें विश्व साहित्य का श्रेष्ठ कवि रेखांकित किया है। यदि 'प्रियप्रवास' खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है तो 'हरिऔध' खड़ी बोली के प्रथम महाकवि।
हरिऔध जी ने सबसे पहले ब्रजभाषा में कविताएं लिखनी शुरू कीं। 'रसकलश' की कविताओं से पता चलता है कि ब्रजभाषा पर उनका पूरा अधिकार था, किन्तु उन्होंने समय की गति शीघ्र ही पहचान ली और खड़ी बोली में काव्य रचने लगे। छन्दों की दृष्टि से उन्होंने संस्कृत, हिन्दी तथा उर्दू सभी प्रकार के छन्दों का धड़ल्ले से प्रयोग किया। वह प्रतिभासम्पन्न मानववादी कवि थे। उन्होंने 'प्रियप्रवास' में श्रीकृष्ण को लोकरक्षक के रूप में उनके जिस मानवीय स्वरूप की प्रतिष्ठा की, उससे उनके आधुनिक दृष्टिकोण का पता चलता है। 76 वर्ष की आयु में 16 मार्च, 1947 को उनका देहावसान हो गया। उनकी एक लोकख्यात कविता है 'कर्मवीर' -
देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नही
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।।
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी है सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।।
जो कभी अपने समय को यों बिताते है नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते है नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये।।
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल राशि की उठती हुई ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।
हरिऔध जी को कवि सम्राट कहा जाता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पंडित रामचंद्र शुक्ल, श्रीधर पाठक आदि में वह सर्वाधिक प्रशंसित रहे। द्विवेदी युग के प्रमुख कवि हरिऔध जी का जन्म ज़िला आजमगढ़ (उ.प्र.)के निज़ामाबाद में सन् 1865 में हुआ था। अस्वस्थता के कारण उनका स्कूली पठन-पाठन नहीं हो सका। उनन्होंने घर पर ही उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी, बांग्ला एवं अंग्रेज़ी का अध्ययन किया। 1883 में वह निज़ामाबाद के मिडिल स्कूल के हेडमास्टर हो गए। 1890 में क़ानूनगो की परीक्षा पास करने के बाद क़ानून गो बन गए। सन् 1923 में पद से अवकाश लेने पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में प्राध्यापन करने लगे। इसी दौरान उन्होंने 'कबीर वचनावली' का सम्पादन किया।
'वचनावली' की भूमिका में कबीर पर लिखे गए लेखों से उनकी आलोचना दृष्टि का पता चलता है। उनके ब्रजभाषा काव्य संग्रह 'रसकलश' को विस्मृत नहीं किया जा सकता है। इसमें उनकी आरम्भिक स्फुट कविताएँ संकलित हैं। ये कविताएँ श्रृंगारिक हैं और काव्य-सिद्धान्त निरूपण की दृष्टि से लिखी गयी हैं। उन्होंने गद्य और आलोचना की ओर भी कुछ-कुछ ध्यान दिया। 'हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास' शीर्षक एक इतिहास ग्रन्थ भी प्रस्तुत किया, जो बहुत ही लोकप्रिय हुआ। हरिऔध जी की एक बड़ी विशेषता रही कि उन्होंने हिन्दी के सार्वभौम कवि के रूप में खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन-सरल सब प्रकार की कविताओं की रचना की।
दुर्भाग्य से हरिऔध जी को उनके जीवनकाल में हिंदी साहित्य जगत से यथोचित सम्मान नहीं मिला। सन् 1924 में उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधान पद को सुशोभित किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने उनकी साहित्य सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए उन्हें हिन्दी के अवैतनिक अध्यापक का पद प्रदान किया। खड़ी बोली काव्य के विकास में इनका योगदान निश्चित रूप से उल्लेखनीय रहा है। उनकी एक चर्चित रचना है - 'आँख का आँसू' -
आँख का आँसू ढुलकता देखकर जी तड़प कर के हमारा रह गया।
क्या गया मोती किसी का है बिखर या हुआ पैदा रतन कोई नया।
ओस की बूँदें कमल से है कहीं या उगलती बूँद है दो मछलियाँ,
या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी, खेलती है खंजनों की लड़कियाँ,
या` जिगर पर जो फफोला था पड़ा, फूट कर के वह अचानक बह गया,
हाय` था अरमान, जो इतना बड़ा, आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया।।
पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ, यों किसी का है निरालापन भया,
दर्द से मेरे कलेजे का लहू, देखता हूँ आज पानी बन गया,
प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी, वह नहीं इसको सका कोई पिला,
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी, वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला,
ठीक कर लो जाँच लो धोखा न हो, वह समझते हैं सफर करना इसे,
आँख के आँसू निकल करके कहो, चाहते हो प्यार जतलाना किसे,
आँख के आँसू समझ लो बात यह, आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े,
क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह, जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े,
हो गया कैसा निराला यह सितम, भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया,
यों किसी का है नही खोते भरम, आँसुओं तुमने कहो यह क्या किया।।
हरिऔध जी ने सन् 1909 से 1913 के बीच अपनी सबसे लोकप्रिय कृति 'प्रियप्रवास' की रचना की। यह एक विरह-काव्य है। कृष्ण-काव्य की परंपरा में होते हुए भी, उससे भिन्न है। हरिऔध जी लिखते हैं कि 'मैंने श्री कृष्णचंद्र को इस ग्रंथ में एक महापुरुष की भाँति अंकित किया है, ब्रह्म के रूप में नहीं। कृष्णचरित को इस तरह रेखांकित किया है जिससे आधुनिक लोग भी सहमत हो सकें। प्रियप्रवास के कृष्ण में वही अलौकिक स्फूर्ति है, जो अवतारी ब्रह्मपुरुष में। कवि ने कृष्ण का चरित्र चित्रण मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किया है।
इसकी कथावस्तु का मूलाधार श्रीमद्भागवत का दशम स्कंध है, जिसमे श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनके यौवन, कृष्ण का ब्रज से मथुरा को प्रवास और लौट आना वर्णित है। इस महाकाव्य में लोक मंगल की कामना कूट-कूट कर भरी है। इसमें श्रीकृष्ण और राधा के अनूठे प्रेम को अलग तरह से परिभाषित करते हुए उसमें विश्वबंधुत्व का स्वर मुखरित किया गया है। महाकवि ने कुल 52 ग्रंथ लिखे, जिनमें प्रिय प्रवास का ऐतिहासिक महत्व है। उन्होंने कहा कि इस महाकाव्य में श्रीकृष्ण, यशोदा, नंद व राधा के चरित्र को लौकिक धरातल पर रखने का प्रयास किया गया है।
नारी पीड़ा को हिंदी साहित्य में अनेक कवियों ने बड़े अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया है, जायसी का ‘नागमती विरह वर्णन’ तो हिंदी की थाती मानी जाती है, मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ में उर्मिला के विरह वर्णन में एक पूरा सर्ग ही लिख डाला, जो प्रबंध काव्य की मुख्य धारा में एक प्रक्षेप सा लगता है लेकिन उस अतिरंजित वर्णन में भी नारी के हृदय की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई हरिऔध जी के ‘प्रिय प्रवास’ में। मालिनी छंद में यशोदा का प्रलाप ‘प्रिय पति मेरा वह प्राण प्यार कहाँ है, दु:ख जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है’ में भी नारी पीड़ा अभिव्यक्त है परंतु यहाँ स्थायी भाव ममता या वत्सलता है। प्रिय प्रवास को पढ़ते समय एक साथ गद्य-पद्य दोनों का मानो एक समान सुख मिलता है -
दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु-शिखा पर थी अब राजती, कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा।
विपिन बीच विहंगम वृंद का, कलनिनाद विवर्द्धित था हुआ,
ध्वनिमयी-विविधा विहगावली, उड़ रही नभ-मंडल मध्य थी।
अधिक और हुई नभ-लालिमा, दश-दिशा अनुरंजित हो गई,
सकल-पादप-पुंज हरीतिमा, अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई।
झलकने पुलिनों पर भी लगी, गगन के तल की यह लालिमा,
सरि सरोवर के जल में पड़ी, अरुणता अति ही रमणीय थी।
अचल के शिखरों पर जा चढ़ी, किरण पादप-शीश-विहारिणी,
तरणि-बिम्ब तिरोहित हो चला, गगन-मंडल मध्य शनैः शनैः।
ध्वनि-मयी कर के गिरि-कंदरा, कलित कानन केलि निकुंज को,
बज उठी मुरली इस काल ही, तरणिजा तट राजित कुंज में।
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