मेरा घर, मेरा अभयारण्य: डॉ शांति सुमन
देश की जानी-मानी कवयित्री डॉ शांति सुमन अपने अतीत के पन्ने पलटती हुई कहती हैं कि उन दिनों समाज में बेटियों की अपेक्षा बेटों का मान अधिक था पर मेरे घर में यह अद्भुत बात थी कि मेरी जगह सबसे ऊपर थी। मेरे मन के विरुद्ध कोई मुझसे कोई भी काम नहीं करा सकता था। मैं चाहे जिसको मारूं पर कोई मुझको नहीं मारता था। दादी ने घर में मेरे लिए अभयारण्य बना रखा था। आज जो भी हूं, उसमें मेरे बचपन का अनुदान ही अधिक है। सामाजिक सरोकार की संवेदनाएं मुझमें उन्हीं दिनों जगीं...
मैं जिस वातावरण में पल रही थी, उसमें कविता की अशेष संभावनाएं भरी थीं। गरीबी, अशिक्षा, एक ओर और फूल, तितली, पोखर में खिलते उजले-लाल कमल और साथ में चलती मछलियां: डॉ. शांति सुमन
देश की प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ शांति सुमन की जिंदगी में कविता कैसे-कैसे आई, किस तरह बचपन से ही उनके मन पर शब्द तैरने लगे थे, वह बताती हैं - जिंदगी में कविता किसी व्यक्ति के आने की तरह नहीं आती है, वरना वह संवेदना के रूप में जन्म से ही साथ चली आती है। इसलिए ऐसे लोगों को विशेष की पंक्ति दी जाती है। मैं जिस वातावरण में पल रही थी, उसमें कविता की अशेष संभावनाएं भरी थीं। गरीबी, अशिक्षा, एक ओर और फूल, तितली, पोखर में खिलते उजले-लाल कमल और साथ में चलती मछलियां।
हर व्यक्ति जहां रास्ता अपने साथ लेकर आता-जाता था, क्योंकि कोई बना-बनाया रास्ता नहीं था। मेरी पहली कविता, जो गीत के ही शिल्प में थी, 'रश्मि' पत्रिका में छपी। घर-परिवार के, संबंध के लोग उसकी चर्चा करने लगे। उसकी प्रशंसा की तो मुझको लगा कि मैं कविता लिख सकती हूं और इस तरह मेरी कविता-यात्रा चल पड़ी। अपने व्यक्तित्व के बारे में मैंने बहुत बार लिखा है और लोगों ने भी अपने विचार साझा किये हैं। जीवन के इस मोड़ पर खड़ी होकर जब अपना अतीत, अपने बचपन को देखती हूं तो वह किसी मूर्तिकार की उस अनगढ़ मूर्ति की तरह दिखता है, जिसको जगह-जगह से तराश कर छोड़ दिया गया हो। सह और अचिंतित सुंदरता ही जिसका वैभव हो।
अपने अतीत को चीन्हते हुए डॉ सुमन कहती हैं - उन दिनों के निम्न मध्यवर्गीय परिवार के बच्चों से कई अर्थों में समानता के बावजूद मेरे बचपन में कुछ वैसा था, जो मुझको दूसरे बच्चों से अलग करता था। संगीत की किसी आहट और गहरे आर्त्तनाद की तरह आज भी उसकी अनुगूंज सुनाई पड़ती है। मिट्टी की भीत पर फूस की छानों से बने छोटे-बड़े घरों वाला मेरा गांव तब जितना सुंदर लगता था, आज नहीं लगता। तब एक सीधी पगडंडी भी मेरे गांव से होकर नहीं गुजरती थी। मेड़-मेड़ या बीच खेत से होकर लोग जाते थे, स्टेशन या बाजार या विवाह के अवसर पर बाराती लेकर भी। तब बैलगाड़ी के सिवा आवागमन की कोई दूसरी सुविधा नहीं थी। उन्हीं दिनों गांव में 'लीक' बनना शुरू हुआ था।
मेरे दादा स्वर्गीय बलदेव लाल दास धार्मिक प्रवृत्ति के एक गंभीर व्यक्ति थे। मेरे पिता भवनंदन लाल दास, जिनको लोग कुंवरजी कहते रहे, और जो अब कुंवर बाबा के नाम से जाने जाते हैं, के अतिरिक्त एक पुत्री फूल देवी के जन्म के बाद अल्पायु में ही दिवंगत हो गए। इसलिये मेरे पिता का लालन-पालन और शिक्षा कार्य सभी उनके चाचा स्वर्गीय प्रीतमलाल दास की छत्र-छाया में हुआ। उनको ही हमलोग दादा के रूप में जानते रहे और भरपूर ममत्व पाते रहे। उन्होंने अपने अंत समय में मेरे पिता को ही घर का स्वामित्व दिया और मेरे बचपन के शुरू के दिनों में एक अवलंब भी।
वह बताती हैं कि मेरे जन्म के पूर्व मेरी मां ने एक पुत्र को जन्म दिया। तब मेरे पिता डिफेंस में नौकरी करते थे। वैसे भी मेरा घर गांव में 'मालिक' का घर था और अब तो पैसे की भी कोई कमी नहीं थी। दादाजी ने उस शिशु के जन्म पर उत्सव मनाया। घर से निकलकर खुशियां पूरे गांव तक गईं, पर दुर्भाग्यवश वह शिशु जीवित नहीं रहा। उसके बाद एक लंबा सन्नाटा मेरे परिवार में फैल गया। खुशियों की गवाही देते क्षण दुखों से भर गए। दो वर्ष बीत जाने के बाद जब मेरी मां को दूसरी संतान नहीं हुई तो मेरी दादी ने वे सब उपाय करने शुरू कर दिये, जो उन दिनों गांव में संतान प्राप्ति के लिए प्रचलित थे।
मेरी दादी जिनका दो बच्चों के बाद ही सुहाग का सुख खो गया था, एक अत्यंत संत स्वभाव की धर्मप्राण स्त्री थीं। अपने गांव के मंदिर के अतिरिक्त निकट के गांवों में जा-जाकर उन्होंने पूजा-अर्चना की, पीर के मजारों पर भी मन्नत मांगने गईं। उन्होंने घर की कुलदेवी भद्रकाली और बाहर के काली मंदिरों में बलि देने को भी कबूला। यहां तक कि उन्होंने गंगाजी में धान की 'जूटी' और अन्य पूजन सामग्रियों को समर्पित करने का भी संकल्प लिया।
इन सारी घटनाओं और स्थितियों को मैंने अपने जीवन में घटित होते हुए देखा। मेरी दादी ने न जाने कितने तीर्थ-व्रत किए। मैंने अपनी छोटी आयु से ही लोगों के मुंह से उनकी बेचैनियों की कथाएं सुनीं। इतने देवी-देवताओं को मनाने के बाद मेरा जन्म हुआ था। इसलिए घर में मुझको बहुत लाड़-प्यार मिला। मेरे जरा भी रोने पर दादी घर को सिर पर उठा लेती थीं। बुआ ने मुझको बताया कि जन्म के बाद कितने ही दिनों तक उन्होंने मुझको गोद से नीचे नहीं उतारा। उनको लगता था कि नीचे उतार देने पर पहले शिशु की तरह यह भी नहीं बचेगी। मेरे पिता ने अपनी डायरी में लिखा था - 'माई वाइफ गेभ बर्थ टू ए ब्यूटीफूल डॉटर'। उन्होंने प्रकट में मुझको गोद में लेकर दुलार नहीं किया, परंतु अपनी डायरी में मेरे लिए अपने मन का प्यार लिख दिया था।
बड़े होने पर मैंने डायरी का वह पन्ना पढ़ा था। मेरे जन्म के बाद मेरी मां को एक-एक कर तीन पुत्रों को जन्म देने का सौभाग्य मिला। इससे पूरे घर में लाड़-प्यार के साथ मेरे लिए मान-सम्मान भी बढ़ गया था। माना जाता था कि मेरा आना इतना शुभ हुआ कि मां को तीन बेटे प्राप्त हुए। दादी मुझको अपने घर की लक्ष्मी मानती थीं। डेढ़-दो साल के अंतरों पर ही मां को अन्य बच्चे हुए थे। ऐसा होता था कि किसी एक क्षण में अपने-अपने कारणों से बच्चे रोते थे तो दादी सबसे पहले मुझको उठाकर गले से लगाती थीं। मुझको चुप कराती हुई वह कभी-कभी आंगन से दालान पर भी चली जाती थीं और मेरे भाई उसी तरह रोते रह जाते थे। फिर मां काम समाप्त कर या बीच में छोड़कर ही बच्चों को चुप कराती थीं। मेरी दादी खुशियों से भर जाती थीं कि मैं मान गई हूं या चुप हो गई हूं।
उन दिनों समाज में बेटियों की अपेक्षा बेटों का मान अधिक था पर मेरे घर में यह अद्भुत बात थी कि मेरी जगह सबसे ऊपर थी। मेरे मन के विरुद्ध कोई मुझसे कोई भी काम नहीं करा सकता था। मैं चाहे जिसको मारूं पर कोई मुझको नहीं मारता था। दादी ने घर में मेरे लिए अभयारण्य बना रखा था। मेरी किसी शिकायत पर वह दूसरे बच्चों को बहुत डांट देती थीं। इस तरह मेरे भीतर स्वाभिमान के साथ जिद भी शामिल हो गई थी। एक बार मां ने कहा था - 'चल बेरहट खा लें।' उन्होंने मुझको भुने हुए चूड़े और हरे मटर के दाने दिए। मैंने चूड़ा और मटर से भरी कटोरी को पलक झपकते हुए आंगन में फेंक दिया और जोर-जोर से रोने लगी। मां ने तो बेरहट खाने के लिए कहा था - फिर चूड़ा और मटर क्यों दिया। मैं घंटा भर रोती रही। सारे बच्चे मेरे लिए रुआंसे होते रहे। फिर दादी ने मुझको समझाया कि अबेर के जलपान को मैथिली में बेरहट कहते हैं। जो खाने को दिया जाए, वही 'बेरहट' है। मुझको आज भी लगता है कि मैं उस समय उस उत्तर से सहमत नहीं हुई थी।
हमारा घर निम्न मध्यवर्गीय किसान परिवार का घर था। काफी अन्न उपजता था। मैं देखती थी कि तेल-नमक आदि घरेलू चीजें लोग अनाज देकर ही खरीदते थे और आम के मौसम में आम देकर। एक बार कान का इयरिंग मैंने 'बकोलिया' से एक आम देकर लिया था। कांच का नहीं था वह, पता नहीं शायद प्लास्टिक का था। सरस्वती पूजा के लिए मुझको अपने एक भाई के साथ भट्ठा छुआया गया। मास्टर जी को पीली धोती और दक्षिणा दी गई थी। उन्होंने उसके बाद ओ ना मासी लिखकर दिया और अभ्यास करने के लिए कहा था। फिर तो बांस के फट्ठे से बनी बेंच वाले अपने गांव के स्कूल में ही मैंने पढ़ने जाना शुरू किया। मास्टर जी बहुत गुस्से वाले थे, पर मुझको डांटने की हिम्मत उनको कभी नहीं हुई। बीच में वे किसी बच्चे को वर्ग से निकलने नहीं देते थे, पर मैं जब चाहूं, निकल जाती थी। एक बार मेरी दोस्त सुधा का कान उन्होंने ऐंठ दिया था और एक लड़के को बांस की 'करची' से मारा था। मैंने घर आकर कह दिया था कि यह मास्टर जब तक रहेगा, मैं स्कूल नहीं जाऊंगी, और मास्टर बदल गए थे।
डॉ सुमन बताती हैं कि गांव में जब पहली बार मेरे घर 'सनलाइट' साबुन आया था, बाबूजी ने मंगाया था, मैंने जिज्ञासा में चुपचाप उसको पानी भरी बाल्टी में डाल दिया। कुछ घंटे बाद वह आधा से अधिक गल गया। बाबूजी ने जब पूछा कि साबुन कहां है तो मेरे भीतर का भय जागा। मैं चुपचाप निर्दोष की मुद्रा में दादी के साथ उनके आगे-पीछे करने लगी। सबने कहा - किसी बच्चे का काम है और फिर सारे बच्चों को कसकर डांट पड़ी, कितने को थप्पड़ भी जड़ दिए गए। रात में दादी ने पूछा - 'बाबू तू फेकले रही?' मैं कसकर उनकी देह से लग गई। मैं बच्चों की लीडर थी। मेरा कोई बस्ता ढोता था, कोई मेरी नयी कॉपी माथे पर लेकर चलता था। कीचड़ में चलने पर पांव को धोने के लिए कोई दौड़कर पानी लाता था। इसके बदलने में मैं उनको रक्षात्मक सहयोग देती थी। कोई 'लिखना' (हैंडराइटिंग) लिखकर नहीं ले जाता था और मास्टर जी की छड़ी उठ जाती तो मैं बोल देती कि इसकी कॉपी मेरे पास रह गई थी। मैं पढ़ने में बहुत तेज थी मगर मास्टर जी की क्रूरता से सदैव दूर रहना चाहती थी। शाम को मेरे बाबूजी के फुफेरे भाई जो हमारे यहां ही रहते थे, हमलोगों को पढ़ाते थे। उनका भी हाथ चलता रहता था। कोई बात हुई नहीं कि गाल पर थप्पड़ लगा देते थे।
दादी जब पांव दबाने के लिए उनको किसी बच्चे को भेजने के लिए कहती थीं तो मैं उस काम को करने के बहाने वहां से भाग आती थी। वैसे दादी नहीं चाहती थी कि मैं पैर दबाऊं क्योंकि उनकी दृष्टि में मैं कोमल थी और मुझको वह काम करने नहीं आता था। जमालपुर से मेरे पिता की बदली इलाहाबाद हो गई। दादी ने मुझको मां-बाबूजी के साथ नहीं जाने दिया। मैं गांव में उनके साथ रही। उन दिनों मेरा परिवार संयुक्त था। मेरे गांव के गरीब लोग मेरे घर से बहुत सहयोग पाते थे। शायद इसलिए मेरे घर को वे बड़ी हवेली कहते थे।
बहुत छोटी उम्र में ही मैंने संयुक्त परिवार के गुण-दोषों को देखना और समझना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे पहले के प्रेम और सौमनस्य का टूटना-बिखरना शुरू हो गया था। मेरे दादा के मुंशी या उनके काम-काज में सहयोग करने वाले दीवानजी के देहांत के बाद उनकी पत्नी अपने दो बेटों के साथ हमारे यहां ही रहती थी। उस पूरे परिवार का जलपान-भोजन बनाने से लेकर सारे टहल-टिकोरे वही करती थीं। अपनी उस छोटी उम्र में ही मैंने उनके दुख और शोषण को महसूस किया था। वह सदैव सूर्यास्त के समय नहाकर सूर्य को जल देती थीं।
मैंने अपने अबोधपन में उनसे एक दिन पूछा कि ये शाम के समय किसको पानी देती हैं? उन्होंने बताया कि उनके 'करम' में यही लिखा है कि वे डूबते हुए सूर्य को ही पानी दें तो वो क्या करें! मैंने उनकी आंखों से बहते हुए आंसुओं को भी देखा। मैं समझ नहीं पाई कि मुझसे क्या गलती हुई। आज उसका पूरा संदर्भ और अर्थ जान गई हूं। मेरे बाबूजी ने अपनी हैसियत बढ़ाने के लिए गांव और आसपास की बिकती हुई जमीन को खरीदना शुरू किया। उस क्रम में उन्होंने मेरी मां के सारे गहने भी ले लिए। घर में किसी से कुछ नहीं लिया। मेरी मां बहुत कम बोलती थीं। उनका बाबूजी से कभी विरोध नहीं हुआ।
एक बार तो उन्होंने मेरे पांव से रुनझुन बोलते चांदी के कड़े भी उतार लिए। बीघा भर के अपने आंगन में मैं लोट-लोटकर रोई। दादी ने मुझको कितना मनाया। मां ने मुझको कुछ नहीं कहा। मैं उसका दुख तब नहीं जान पाई। आज बेहतर जान रही हूं। दादी ने इतना कहा कि पत्नी-बच्ची को सूनाकर जमीन खरीद रहे हो। क्या होगा उसका? घर का जब बंटवारा हुआ तो उनमें से कोई जमीन बाबूजी को नहीं मिली। मेरे मन पर आज भी उस और उस जैसी अनेक घटनाओं के निशान बाकी हैं।
बच्चा काका ने मेरी जन्मतिथि शरत पूर्णिमा 1942 लिखा दी थी। मेरी बुआ ने बाद में मुझको बताया कि मेरा जन्म अनंत चतुर्दशी को हुआ था। घर में अनंत भगवान की पूजा हुई थी। सबकी बांह पर डोरे बंधे थे। वह 1944 का सितंबर महीना रहा होगा। तब देश में आजादी के संघर्ष चल रहे थे। काफी उथल-पुथल थी। हुआ यह कि शिक्षा और आजीविका में मेरी जन्मतिथि सितंबर 1944 रही और रचना-कर्म में वह शरत पूर्णिमा 1942 हो गई। यह बचपन की भावुकता है, जिससे मैं अलग नहीं हो सकी। बचपन कभी समाप्त नहीं होता। आज जो भी हूं, उसमें मेरे बचपन का अनुदान ही अधिक है। सामाजिक सरोकार की संवेदनाएं मुझमें उन्हीं दिनों जगीं। मैं जितनी सुविधाओं में पली, मेरा मन असुविधाओं का उतना ही साक्षी बना।
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