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ऐनी आपा ने जब लिखा 'आग का दरिया', तहलका मच गया

पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित उर्दू की विख्यात लेखिका मरहूम मुसन्निफ़ा क़ुर्रतुल ऐन हैदर उर्फ़ ऐनी आपा...

ऐनी आपा ने जब लिखा 'आग का दरिया', तहलका मच गया

Saturday January 20, 2018 , 8 min Read

'एक विशेष माहौल और परिवेश में मेरा जन्म हुआ और परवरिश हुई। यह लोग मुझसे ऐसी आशा क्यों करते हैं कि मैं उस जीवन का चित्रण करूँ जिससे मैं परिचित नहीं? गाँव की ज़िन्दगी से कुछ हद तो मैं वाक़िफ़ हूँ क्योंकि उसका मुझे अनुभव था लेकिन वह अनुभव एक बड़े फ़ासले का था। तरक़्क़ी पसन्द लोगों ने मुझको बहुत बुरा-भला कहा और इस तरह मज़ाक़ उड़ाया मानो मैं लोक-आन्दोलन की विरोधी हूँ।' ये शब्द हैं पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित उर्दू की विख्यात लेखिका मरहूम मुसन्निफ़ा क़ुर्रतुल ऐन हैदर उर्फ़ ऐनी आपा के, जिनका आज (20 जनवरी) जन्मदिन है।

कुर्रतुल ऐन हैदर

कुर्रतुल ऐन हैदर


ऐनी आपा को उर्दू के मशहूर, लोकप्रिय कथाकारों में शुमार किया जाता हैं। मंटो, कृष्णचन्दर, बेदी और इस्मत चुगश्ताई के बाद उभरने वाली नस्ल में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

क़ुर्रतुल ऐन हैदर न केवल उर्दू साहित्य, बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य धारा में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनके समृद्ध लेखन ने धुनिक उर्दू साहित्य की एक नई दिशा दी। उनकी कहानियों के विस्तृत फलक में भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास एवं संस्कृति की समग्रता में पृष्ठभूमि निहित है। 

उर्दू की जानी-मानी लेखिका मुसन्निफ़ा क़ुर्रतुल ऐन हैदर उर्फ़ ऐनी आपा सन् 2007 में जिस दिन इस दुनिया को अलविदा कह गई थीं, प्रमोद सिंह ने लिखा - 'क़ुर्रतुल-ऐन हैदर गईं। बयासी वर्ष की ज़ि‍न्‍दगी कम नहीं होती मगर ऐसी ज़्यादह भी नहीं होती। अपन इस गफलत में पड़े रहे कि कभी टहलते हुए नोयेडा पहुंचेंगे और आपा की पहुंची हुई ऊंची, उलझी शख्सियत की एक झलक लेकर जीवन को धन्‍य करेंगे, आपा ऐसी आसानी से निकलनेवाली पार्टी थोड़ी हैं, मगर देखिए, हम यहां हें-हें, ठी-ठी करते रहे और वह चुप्‍पे-चुप्‍पे निकल गईं! क़ुर्रतुल-ऐन हैदर उर्दू की थीं मगर सबसे पहले इस मुल्‍क़ की थीं।

हिन्‍दुस्‍तान में रहकर, उपन्‍यासों में दिलचस्‍पी रखनेवाले किसी ने अगर ‘आग का दरिया’ नहीं पढ़ा, तो कोई बहुत ही अज़ीज़, तरंगोंवाली, बहुआयामी कथरस से वंचित बना रहा! कथा-साहित्‍य रचने से अलग आपा ने अंग्रेज़ी में पत्रकारिता की, काफ़ी घूमना-फिरना किया, और आज भी- जबकि एक हिन्‍दुस्‍तानी औरत के लिए इस तरह का जीवन बेहद मुश्किल है- अपने वक़्त में अविवाहित, अकेली रहीं। साहित्‍य अकादमी, सोवियत लैण्‍ड नेहरू सम्‍मान, ग़ालिब सम्‍मान, ज्ञानपीठ, पद्मश्री से सम्‍मानित मालूम नहीं क़ुर्रतुल अपने आख़ि‍री वक़्त में समय व समाज से कितना खुश थीं, अलबत्‍ता यह वे हमेशा जानती रही होंगी कि लगभग बारह उपन्‍यास, उपन्‍यासिकाएं रचकर इस देश के रसिक पढ़वैयों को उन्‍होंने कितना धन्‍य किया!'

प्रमोद सिंह के इस अभिमत ऐनी आपा के सम्बंध में उनका पूरा व्यक्तित्व हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। वह जिस तरह अपनी अथाह कृतियों से मशहूर हुईं, उसी बेबाक क्रांतिदर्शी अंदाज में जम्हूरियत और सियासत पर भी पैनी नजर रखती थीं। एक दिन उन्होंने लिखा- 'सारी दुनिया की तरफ से इस्लाम का ठेका इस वक़्त पाकिस्तान सरकार ने ले रखा है। इस्लाम कभी एक बढ़ती हुई नदी की तरह अनगिनत सहायक नदी-नालों को अपने धारे में समेट कर शान के साथ एक बड़े भारी जल-प्रपात के रूप में बहा था, पर अब वही सिमट-सिमटा कर एक मटियाले नाले में बदला जा रहा है। मज़ा यह है की इस्लाम का नारा लगाने वालों को धर्म, दर्शन से कोई मतलब नहीं। उनको सिर्फ इतना मालूम है कि मुसलमानों ने आठ सौ साल ईसाई स्पेन पर हुकूमत की, एक हज़ार साल हिन्दू भारत पर और चार सौ साल पुर्वी यूरोप पर।' तो इस तरह की थीं ऐनी आपा और इतने बेलाग थे उनके शब्द।

क़ुर्रतुल ऐन हैदर न केवल उर्दू साहित्य, बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य धारा में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनके समृद्ध लेखन ने धुनिक उर्दू साहित्य की एक नई दिशा दी। उनकी कहानियों के विस्तृत फलक में भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास एवं संस्कृति की समग्रता में पृष्ठभूमि निहित है। वह आज़ादी के बाद भारतीय फ़िक्शन का एक स्तंभ मानी जाती थीं। उन्होंने बहुत कम आयु में लिखना शुरू किया। सन 1945 में जब वह सत्रह-अठारह साल की थीं, उनकी कहानी का संकलन ‘शीशे का घर’ पाठकों तक पहुंचा।

उनका पहला उपन्यास है ‘मेरे भी सनमख़ाने’। वह 20 जनवरी 1927 को अलीगढ़ (उ.प्र.) में जन्मीं और 21 अगस्त 2007 को दुनिया छोड़ गईं। जब 1947 में देश का बंटवारा हुआ तो वह अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चली गईं लेकिन जल्द ही उन्होंने भारत वापस आने का फ़ैसला कर लिया और तब से वह यहीं रहीं। उन्होंने अपना करियर एक पत्रकार से शुरू किया, साथ-साथ साहित्य में रमी रहीं। उनकी कहानियां, उपन्यास, अनुवाद, रिपोर्ताज़ प्रकाशित होते रहे। सन् 1967 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और उनके उपन्यास ‘आख़िरी शब के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया।

उनके साहित्यिक योगदान के लिए उन्हें पदमश्री से भी सम्मानित किया गया। उनका प्रसिद्ध उपन्यास ‘आग का दरिया’ आज़ादी के बाद लिखा जाने वाला सबसे बड़ा उपन्यास है। ‘आग का दरिया’ समेत उनके कई एक उपन्यासों का अनुवाद अंग्रेज़ी और हिंदी भाषा में भी हो चुका है। उनकी अन्य औपन्यासिक कृतियों में ‘सफ़ीन-ए-ग़मे दिल’, ‘आख़िरे-शब के हमसफ़र’, ‘गर्दिशे-रंगे-चमन’, ‘मेरे भी सनम-ख़ाने’ और ‘चांदनी बेगम’ आदि हैं। उनके जीवनी-उपन्यासों में ‘कारे जहां दराज़ है’ (दो भाग), ‘चार नावेलेट’, ‘कोहे-दमावंद’, ‘गुलगश्ते जहां’, ‘दकन सा नहीं ठार संसार में’, ‘क़ैदख़ाने में तलातुम है कि हिंद आती है’ आदि रिपोर्ताज भी लिखे। इसके अलावा उन्होंने हेनरी जेम्स के उपन्यास ‘पोर्ट्रेट ऑफ़ ए लेडी’ का अनुवाद ‘हमीं चराग़, हमी परवाने’ के नाम से, ‘मर्डर इन द कैथेड्रल’ का अनुवाद ‘कलीसा में क़त्ल’ के नाम से किया साथ ही ‘आदमी का मुक़द्दर’, ‘आल्पस के गीत’, ‘तलाश’ आदि उनकी अन्य अनूदित कृतियां रहीं।

ऐनी आपा को उर्दू के मशहूर, लोकप्रिय कथाकारों में शुमार किया जाता हैं। मंटो, कृष्णचन्दर, बेदी और इस्मत चुगश्ताई के बाद उभरने वाली नस्ल में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी कहानियाँ अपनी विषय-वस्तु, चरित्र-चित्रण, तकनीक, भाषा और शैली हर तरह से उर्दू कहानी साहित्य में उल्लेखनीय इज़ाफा मानी जाती हैं। इन्सान और इन्सानियत पर गहरा विश्वास उनकी कहानी-कला और चिन्तन में केन्द्र-बिन्दु की हैसियत रखता है। उनकी किसी भी कहानी को भारत की विशेष गौरवशाली संस्कृति, उसकी चिन्तन-परम्परा, उसके इतिहास, उसके भूगोल या एक शब्द में कहना चाहिए कि उसके जीवन से पृथक करके सही तौर पर नहीं समझा जा सकता।

उनके पिता 'सज्जाद हैदर यलदरम' उर्दू के जाने-माने लेखक होने के साथ-साथ ब्रिटिश शासन के राजदूत की हैसियत से अफगानिस्तान, तुर्की इत्यादि देशों में तैनात रहे थे और उनकी मां 'नजर' बिन्ते-बाकिर भी उर्दू की लेखिका थीं। वो बचपन से रईसी व पाश्चात्य संस्कृति में पली-बढ़ीं। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा लालबाग, लखनऊ, उत्तर प्रदेश स्थित गाँधी स्कूल में प्राप्त की और अलीगढ़ से हाईस्कूल पास किया। लखनऊ के आईटी कालेज से बीए और लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए किया। फिर लन्दन के हीदरलेस आर्ट्स स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। विभाजन के समय उनके भाई-बहन, रिश्तेदार पाकिस्तान पलायन कर गए।

लखनऊ में अपने पिता की मौत के बाद कुर्रतुल ऐन हैदर भी अपने बड़े भाई मुस्तफा हैदर के साथ पाकिस्तान चली गयीं लेकिन 1951 में वह लन्दन जाकर स्वतंत्र लेखक-पत्रकार के रूप में बीबीसी लन्दन से जुड़ गईं। बाद में द टेलीग्राफ की रिपोर्टर और इम्प्रिंट पत्रिका की प्रबन्ध सम्पादक भी रहीं। वह इलेस्ट्रेड वीकली की सम्पादकीय टीम में भी रहीं। सन 1956 में जब वह भारत भ्रमण पर आईं तो उनके पिताजी के अभिन्न मित्र मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने उनसे पूछा कि क्या वे भारत में बसना चाहेंगी? हामी भरने पर उन्होंने इस दिशा में कोशिश करने की बात कही और अन्ततः वह लन्दन से आकर मुम्बई में रहने लगीं और तब से भारत में ही रहीं। उन्होंने विवाह नहीं किया। उन्होंने बहुत कम आयु में लिखना शुरू किया था। उन्होंने अपनी पहली कहानी मात्र छः वर्ष की अल्पायु में ही लिखी थी- 'बी चुहिया'।

साहित्य अकादमी में उर्दू सलाहकार बोर्ड की वह दो बार सदस्य रहीं। विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में वह जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और अतिथि प्रोफेसर के रूप में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से भी जुड़ी रहीं। ऐनी आपा ने जीवन भर लिखा और जमकर लिखा। सन् 1959 में जब उनका उपन्यास 'आग का दरिया' प्रकाशित हुआ, भारत और पाकिस्तान के अदबी हल्कों में तहलका मच गया। भारत विभाजन पर तुरन्त प्रतिक्रिया के रूप में हिंसा, रक्तपात और बर्बरता की कहानियाँ तो बहुत छपीं लेकिन अनगिनत लोगों की निजी एवं एक सांस्कृतिक-ऐतिहासिक त्रासदी को एकदम बेबाकी से ऐनी आपा ने ही प्रस्तुत किया।

इस लोकप्रिय कृति में उन्होंने आहत मनुष्यता और मनोवैज्ञानिक अलगाव के मर्म को अंदर तक बड़ी बारीकी से छुआ। जो प्रसिद्धि और लोकप्रियता 'आग का दरिया' को मिली, वह किसी अन्य उर्दू साहित्यिक कृति को शायद ही नसीब हुई हो। इस उपन्यास में लगभग ढाई हजार वर्ष के लम्बे वक्त की पृष्ठभूमि को विस्तृत कैनवस पर फैलाकर उपमहाद्वीप की हजारों वर्ष की सभ्यता-संस्कृति, इतिहास, दर्शन और रीति-रिवाज के विभिन्न रंगों की एक ऐसी तस्वीर खींची गई, जिसने अपने पढ़ने वालों को पूरी तरह अपने आगोश में समेट कर रख लिया।

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