बिहार के कृषि महाविद्यालय ने ऑनलाइन शुरू किया मृत कीट-पतंगों का कारोबार
विश्व में इस समय मृत तितलियों और कीट-पतंगों का बाज़ार 5.5 करोड़ डॉलर से बढ़कर, जहां 71 करोड़ डॉलर हो जाने की ओर है, बिहार का वीर कुंवर सिंह कृषि महाविद्यालय, बाकायदा इनके शोकेस का ऑनलाइन कारोबार शुरू कर दिया है, जिसका रेट पांच सौ रुपए से लेकर दो हजार रुपए तक तक रखा गया है।
पिछले दो दशकों में कीड़ों के बारे में विज्ञान की रुचि बहुत बढ़ी है। पिछले दो साल में इसमें और तेज़ बदलाव आया है। कीड़ों के बारे में विज्ञान की रुचि बढ़ने का मुख्य कारण है पर्यावरणीय स्थिरता। कीड़े पालने का एक और फ़ायदा यह है कि वे बायो कचरे पर भी पल सकते हैं।
अमरीकी ग्लोबल मार्केट इनसाइट्स की रिपोर्ट के मुताबिक़,
“टिड्डे, झींगुर आदि कीड़ों का बाज़ार 5.5 करोड़ डॉलर से बढ़कर अब 71 करोड़ डॉलर हो जाने की ओर है।’’
फिलहाल, हम बात कर रहे हैं, डुमरांव (बिहार) के वीर कुंवर सिंह कृषि महाविद्यालय की, जिसने तितलियों और कीटों की ऑनलाइन बिक्री शुरू कर दी है। इसे शोकेस में सजाकर लोगों को जागरूक किया जा रहा है। इसका रेट 500 से 2000 रुपये तक तक रखा गया है।
शोधकर्ता डॉ. चन्द्रशेखर प्रभाकर बताते हैं,
“तितलियां और कीट-पतंग जो हमारे खेतों में मंडराते देखे जाते थे, अब हमारे घरों की शोभा बढ़ाएंगे। यह पूरे भारत का इकलौता प्रोजेक्ट है। तितली और अन्य कीट की मौत के बाद पता नहीं चलता, वह कहां खो गए लेकिन अब मरने के बाद भी तितलियां 20 से 25 सालों तक घरों की दीवारों पर खूबसूरती बिखेरेंगी। अब तक इनकी 500 से अधिक प्रजातियों को बिहार के विभिन्न हिस्सों में चिन्हित किया जा चुका है।’’
डुमरांव कॉलेज के संग्रहालय में रेशम के एक दुर्लभ किस्म के कीट को भी रखा गया है। इस कीट में अपेक्षाकृत तसर रेशम उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं। डुमरांव के कृषि महाविद्यालय में रिसर्च के बाद इसका उपयोग शुरू कर दिया गया है। कॉलेज ने इसे बिहार म्यूजियम में भी लगाने का प्रस्ताव सरकार को भेजा है।
कृषि कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. अजय कुमार बताते हैं,
“महाविद्यालय की तरफ से इसकी ऑनलाइन बिक्री शुरू कर दी गई है। इसकी मद्रास, ऊटी आदि कई इलाकों से डिमांड है, जो पूरी की जा रही है।’’
वैसे भी आजकल दुनिया में कीड़ों का कारोबार करोड़ों में है। जानकार बताते हैं कि ये तुलनात्मक रूप से सीमित संसाधनों पर पलते-बढ़ते हैं और ये कृषि क्षेत्र का और बड़ा कारोबार बन सकते हैं। पश्चिमी देशों के लोग इन कीट-पतंगों को संपूर्ण प्रोटीन के स्थायी स्रोत के रूप में देखने लगे हैं, दूसरे कीटपालन पर्यावरण का भी अनुकूलन करता है।
ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी बहुत कम होता है। कृषि क्षेत्र में इससे बड़ा बदलाव आ सकता है, क्योंकि यह क्षेत्र न सिर्फ़ सबसे ज्यादा ज़मीन और पानी का इस्तेमाल करता है बल्कि यह ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक भी है। बाज़ार से मिल रहे संकेत नई उम्मीद जगाते हैं।
कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि
“एक अन्य क्षेत्र भी है जिसमें कीटपालन से क्रांति आ सकती है, वह है पशु चारे का उत्पादन। कीटपालन बेहद पौष्टिक चारा उपलब्ध करा सकता है जबकि सोया, मक्का और दूसरे मोटे अनाज वाले चारे को उगाने की तुलना में इसमें बहुत कम संसाधनों की ज़रूरत होती है।’’
इस उद्योग की संभावनाओं को देखते हुए ही अमरीका के नए व्यापारिक संगठन 'द अमरीकन कोलिशन फ़ॉर इंसेक्ट एग्रीकल्चर' ने लॉबिंग शुरू कर दी है। यूरोपीय संघ तो इसके लिए एक क़ानूनी ढांचा बना रहा है।
थाईलैंड पश्चिमी देशों को कीड़ों का निर्यात करने की तैयारी कर रहा है। थाईलैंड के अधिकांश कीट फार्म छोटे हैं, लेकिन शोधकर्ता और निवेशक उत्पादन बढ़ाने के तरीक़े तलाश रहे हैं। चियांग माई के झींगुर लैब में स्वचालित प्रक्रियाओं पर शोध हो रहा है। अब तो दुनिया में कई वैज्ञानिकों ने कीट कल्याण पर शोध शुरू कर दिए हैं।