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आज फ़ैज़ का जन्मदिन है, जानें उनकी नज़्म 'मुझसे पहली सी मोहब्बत...' का पूरा मतलब

आज फ़ैज़ का जन्मदिन है, जानें उनकी नज़्म 'मुझसे पहली सी मोहब्बत...' का पूरा मतलब

Thursday February 13, 2020 , 3 min Read

हिंदुस्तान में जन्मे फ़ैज़ आज़ादी के बाद पाकिस्तान चले गए। फ़ैज़ की कविताएं आज भी दोनों देशों में उतने ही उत्साह के साथ गाई जाती हैं।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़



13 फरवरी 1911 को पंजाब के सियालकोट (विभाजन से पहले) में पैदा हुए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ आधुनिक उर्दू को एक नए मुकाम तक लेकर गए। फ़ैज़ की लिखी नज़्में आज भी हर जगह गुनगुनाई जाती हैं, वहीं फ़ैज़ की कुछ नज़्मों में तो आम इंसान अपनी आवाज़ को पाता है।


गौरतलब है कि 5 सालों तक ब्रिटिश सेना में कर्नल पद पर अपनी सेवाएँ देने वाले फ़ैज़ ने ब्रिटिश महिला से विवाह भी किया। आज़ादी के बाद पाकिस्तान जाकर बसने वाले फ़ैज़ वहाँ भी इंकलाबी शायरी लिखते रहे। पाक में सरकार का तख़्ता पलट की कोशिश के जुर्म में फ़ैज़ को कैद भी हुई, इस दौरान लिखी गई कविताएं बाद में खूब चर्चित रहीं।


फ़ैज़ की एक नज़्म को हमेशा गाई जाती है, वो है मुझसे पहली सी मोहब्बत... यहाँ हम आपको फ़ैज़ की उसी नज़्म को मतलब के साथ समझा रहे हैं...


मुझसे पहली-सी मुहब्बत मिरी महबूब न मांग

मैनें समझा था कि तू है तो दरख़शां है हयात


मेरे महबूब अब तुम मुझसे पहले जैसा प्यार मत मांगो,

मुझे लगता था कि तुम्हारे होने से ये जिंदगी रोशन होती है


तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात


तुम्हारा गम है तो दुनिया का गम इसके सामने कुछ भी नहीं है

तुम्हारे चेहरे से दुनिया में बहार बनी हुई है


तेरी आखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूं हो जाये


तुम्हारी आँखों के अलावा दुनिया में कुछ भी नहीं है

अगर तुम मिल जाओ तो किस्मत मेरे सामने झुक जाए


यूं न था मैनें फ़कत चाहा था यूं हो जाये

और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

लेकिन मैंने ये नहीं चाहा था कि ये हो जाए

दुनिया में प्यार के अलावा और भी दुख हैं

मिलन के अलावा और भी राहतें हैं


अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिसम

रेशम ओ अतलस ओ कमख्वाब में बुनवाए हुए


अनगिनत सदियों के ये जो अंधकारमय वहशी मायाजाल हैं

रेशम और जरी में बुनवाए हुए


जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म

ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाये हुए


जगह-जगह बाज़ारों में जिस्म बिक रहे हैं

मिट्टी में लिपटे हुए और खून से नहलाए हुए


जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से

पीप बहती हुयी गलते हुए नासूरों से


ये जिस्म रोगों की भट्ठियों से निकले हुए हैं

इनके गलते हुए घावों से मवाद बह रहा है


लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे

अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे


लेकिन क्या करें नज़र भी उधर मुड़ जाती है

अब भी तुम्हारा हुस्न दिलकश है मगर क्या करें  

और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वसल की राहत के सिवा

मुझसे पहली-सी मुहब्बत मिरे महबूब न मांग


दुनिया में प्यार के अलावा और भी दुख हैं

मिलन के अलावा और भी राहतें हैं

मेरे महबूब अब तुम मुझसे पहले जैसा प्यार मत मांगो।