जब ‘Bata’ के मालिक ने भारतीयों को नंगे पांव देखा और झट से लगा डाली जूता फैक्ट्री
YourStory हिंदी की सीरीज़ ब्रांड बिदेसिया (Brand Bidesiya) में हम उन विदेशी ब्रांड्स की कहानी बताएंगे जो भारत आने के बाद इतने भारतीय हो गए कि जाने कितनी पीढ़ियों का भरोसा बन गए. आज पढ़िए कहानी 'बाटा' (Bata) की.
प्रथम विश्व युद्ध के बाद का यूरोप. युद्ध के खर्चों के चलते लगभग सभी देशों की इकॉनमी खस्ताहाल थी. सभी कारोबार ठप पड़ चुके थे. यूरोपियन देश चेकोस्लोवाकिया की भी हालत बुरी थी. करेंसी 75% तक डीवैल्यू हो चुकी थी. देश में हर तरह का प्रोडक्शन रुक चुका था और बेरोज़गारी पसरी हुई थी. लेकिन एक प्रोडक्ट था जिसका प्रोडक्शन नहीं रुक रहा था. बल्कि लोग उसे हाथोंहाथ खरीद रहे थे. क्या था ये प्रोडक्ट? ये था जूता.
एक मरी हुई इकॉनमी में भी कैसे चल रहा था इस जूता कारोबारी का व्यापार? चेकोस्लोवाकिया का ये जूता यूरोपवासियों को अपनी आदत लगाकर किस तरह इंडिया आया और यहीं का होकर रह गया... जानिए यहां...
YourStory हिंदी की सीरीज़ ब्रांड बिदेसिया (Brand Bidesiya) में हम उन विदेशी ब्रांड्स की कहानी बताएंगे जो भारत आने के बाद इतने भारतीय हो गए कि जाने कितनी पीढ़ियों का भरोसा बन गए. आज पढ़िए कहानी 'बाटा' (Bata) की.
शुरुआत
बाटा कंपनी की शुरुआत 1894 में ज्लिन शहर में हुई थी. उस वक़्त ये ऑस्ट्रिया-हंगरी का हिस्सा था, बाद में चेकोस्लोवाकिया कहलाया. और आज इस देश को चेक रिपब्लिक कहते हैं. टोमास बाटा नाम के एक मोची ने इसे अपने भाई एंटोनिन और बहन ऐना के साथ शुरू किया. इस तरह कंपनी का नाम रखा गया टी एंड ए बाटा शू कंपनी. टोमास का परिवार कई पीढ़ियों से जूते सिलने के पेशे में था. शुरुआत 10 एम्प्लाइज के साथ की गई.
उस समय लोग चमड़े के जूते ही पहना करते थे. लेकिन बाटा परिवार के पास इतने पैसे ही नहीं थे कि वे इसकी लागत सह पाते. तो उन्होंने कैनवस के जूते बनाने शुरू किए. देखते ही देखते कैनवस के जूते खूब बिकने लगे. ये सस्ते तो थे ही, साथ ही आरामदायक भी थे. डिमांड बढ़ने लगी तो टोमास अमेरिका गए और नयी टेक्नोलॉजी लेकर आए. भाप से चलने वाली इन मशीनों से अब ज्यादा जूते बनाए जा सकते थे.
पहला विश्व युद्ध आते-आते बाटा पूरे यूरोप के साथ मिडिल ईस्ट में जूते बेच रहा था और इनकी फैक्ट्रीज में हज़ारों मजदूर काम करने लगे थे.
विश्व युद्ध के बाद जब यूरोप की इकॉनमी लड़खड़ाई, बाटा ने अपने जूतों के दाम आधे कर दिए. बाटा के कर्मचारियों ने कंपनी के साथ वफादारी बरतते हुए 40% कम वेतन पर काम करना शुरू कर दिया. बदले में बाटा ने उन्हें रहने खाने की व्यवस्था, कपड़े और अन्य सुविधाएं आधे दामों पर देनी शुरू कर दीं. साथ ही अपने मजदूरों को कंपनी के प्रॉफिट में हिस्सेदार बनाया.
बाटा के इस कदम से जो उनके इक्के दुक्के कंपेटिटर्स थे, वे बिजनेस से बाहर हो गए. और बाटा फुटवियर की दुनिया का बेताज बादशाह बन गया.
टोमास बाटा कहा करते थे कि एक सक्सेसफुल कारोबारी वही हो सकता है जो ग्राहक के साथ साथ अपने कर्मचारियों का भी ध्यान रखे.
बिज़नस की दुनिया में बाटा ने न सिर्फ प्रॉफिट शेयरिंग का कॉन्सेप्ट इंट्रोड्यूस किया, बल्कि मार्केटिंग के लिए 99 पर ख़त्म होने वाले दामों की शुरुआत की. यानी किसी चीज़ को 200 की न बेचकर 199 में बेचा जाए तो ग्राहक उस ओर ज्यादा आकर्षित होगा.
ये तो थी बाटा की शुरुआती कहानी. अब सवाल ये कि इस ब्रांड का इंडिया कैसे आना हुआ?
कैसे इंडिया आया 'बाटा'
फोर्ब्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक टोमास बाटा का 1920 के दशक में इंडिया आना हुआ. वजह ये थी कि इंडिया में रबर और लेदर, जो उनके जूतों में इस्तेमाल होता था, सस्ते में मिल जाता था. तब उन्होंने देखा कि यहां लोग जूते-चप्पल पहनने में ज्यादा यकीन नहीं रखते और कई लोग नंगे पांव ही रहते हैं. उन्हें महसूस हुआ कि उनके फुटवियर के लिए यहां एक बड़ा मार्केट बन सकता है.
मेरी एक बंगाली प्रोफेसर अक्सर मज़ाक में कहा करती थीं कि एक सच्चा बंगाली कभी बिना छतरी और अपनी बाटा चप्पल घर से नहीं निकलता, चाहे वो विदेश भी चला जाए. दरअसल इंडिया में बाटा की फैक्ट्री 1931 में कलकत्ते के पास कोंनगर में लगाई गई. और बाटा ने इंडिया में कैनवस और रबर के जूते बनाने शुरू कर दिए. 2 साल के भीतर प्रोडक्शन इतना बढ़ा कि फैक्ट्री का साइज़ दोगुना हो गया और बाटा की टाउनशिप बन गई. जिसे आज भी बाटानगर के नाम से जाना जाता है. 1936 में बाटा ने लेदर शूज बनाने शुरू किये. आज भी ये फैक्ट्री दुनिया की सबसे पुरानी और बड़ी बाटा फैक्ट्रीज में से एक है. बाटा आज़ादी के पहले ही हर हफ्ते साढ़े 3 हजार जोड़ी जूते बेच रहा था.
जब बाटा इंडिया में आया, यहां जितने भी जूते बिकते, वो जापान से इम्पोर्टेड होते. लेकिन अगले 10 साल में बाटा ने ऐसा विस्तार किया कि 1940 का दशक आते आते वे 4000 लोगों को रोज़गार दे रहे थे और 86 दुकानें खोल चुके थे. 40 के ही दशक में बाटा इंडिया में जूते बनाने की देसी मशीन बना चुका था और प्रोडक्शन आसामन छू रहा था. बाटा ने इंडिया के टेम्परेचर और मौसम को समझा, जो यूरोप से बेहद अलग था. और ऐसे जूते बनाए जो हवादार थे. कमाल की बात तो ये है कि इंडिया में जन्मे हलके टेनिस शूज, जिन्हें हम सबने पीटी करते हुए स्कूल में पहना है, यूरोप में मशहूर हो गए. 'अर्बन आई' से हुई बातचीत में बाटा के चौथी पीढ़ी के मालिक चार्ल्स पिंगल बताते हैं कि यूरोपियन कस्टमर्स को पता ही नहीं था कि ये जूते इंडिया की ईजाद हैं.
तगड़ी मार्केटिंग ने डलवाई जूते-चप्पलों की आदत
आज़ाद भारत में बाटा एक देसी ब्रांड बनकर उभरा. अखबारों और मैगजीन्स में बाटा के इश्तेहार छपते जो कहते, "टिटनेस से बचें, आपके पांव में एक छोटी सी चोट भी बड़ा नुकसान कर सकती है. इसलिए जूते ज़रूर पहनें." शुरुआती दशकों में बाटा का मुख्य काम लोगों को जूते-चप्पलों की आदत डलवाना और उन्हें रोज़मर्रा का हिस्सा बनाना था.
2020 में द प्रिंट से बातचीत करते हुए बाटा के ब्रांड स्ट्रेटेजिस्ट हरीश बिजूर बताते हैं कि बाटा का नाम ऐसा था कि भारतीय इसे आसानी से बोल सकते थे. ये सुनने में विदेशी नहीं लगता था. इसलिए लोग यकीन कर पाते थे कि ये तो इंडिया का ही ब्रांड होगा.
70 और 80 के दशक में जहां बाटा स्कूल शूज का एक ब्रांड बनकर उभरा वहीं खादिम और पैरागॉन जैसे देसी ब्रांड्स से उसे कम्पटीशन मिला. इसी बीच 1973 में बाटा का इंडिया डिवीज़न अलग हो गया और बाटा इंडिया लिमिटेड कहलाने लगा. साथ ही कंपनी भी पब्लिक हो गई.
90 के दशक में उदारीकरण के बाद बाटा का कम्पटीशन बढ़ता गया. लेकिन बाटा की ग्रोथ इंडिया में रुकती नहीं दिखी. 21वीं सदी में बाटा ने अपने प्रीमियम ब्रांड हश पपीज को इंट्रोड्यूस किया. आज शायद ही कोई ऐसा मॉल हो जहां बाटा का चमचमाता शोरूम न हो. बाटा इंडिया की वेबसाइट के मुताबिक फिलहाल देश में बाटा के 1357 एक्सक्लूसिव शोरूम हैं जो किसी भी ब्रांड से ज्यादा हैं. बाटा की रीच मेट्रो, मिनी मेट्रो और टियर 3 शहरों तक है. इसके अलावा बाटा के जूते-चप्पल लगभग 30,000 अन्य रिटेल जूते की दुकाओं में सप्लाई होते हैं. यानी अगर आपके घर के पास बाटा का शोरूम नहीं है तो मुमकिन है कि पास की छोटी जूते की दुकान पर आपको बाटा के जूते आसानी से मिल जाएं.
बाटा के पोर्टफोलियो में 20 से ज्यादा ब्रांड्स और लेबल्स शामिल हैं जिनमें हश पपीज के अलावा नॉर्थ स्टार, पावर, बबलगमर्स और देश के सबसे पुराने संदक सैंडल्स शामिल हैं.