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इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं

इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं

Wednesday July 26, 2017 , 6 min Read

देश के लोकप्रिय जनकवि मुकुट बिहारी सरोज का आज जन्मदिन है। उनके गीतों में आजादी के बाद की राजनीति से जनता के मोहभंग का स्वर मुखर होता है। मुकुट बिहारी सरोज और किशन सरोज, इन दोनो लोकप्रिय कवियों के नाम को लेकर मुझे आज भी अक्सर भ्रम हो जाता है। लगे वक्त निवारण भी हो जाता है। सीधा सा पैमाना काम आता है कविता का। वैसे तो दोनों ही महाकवियों की रचनाएं मन को रोमांच से भर देती हैं लेकिन दोनों का स्वाद अलग-अलग होता है।

मुकुट बिहारी सरोज

मुकुट बिहारी सरोज


 कवि सम्मेलनों के पतनशील दौर में जब सारे मंच को चुटकुलेबाज़ों ने हथिया लिया हो तथा सारे गम्भीर कवि मंच त्याग कर भाग गये हों, तब अपने कथ्य तेवर और विचारों से बिना कोई समझौता किये मुकुट बिहारी सरोज मंचों के माध्यम से जनता के साथ सीधा सम्पर्क बनाने वाले कवि हैं।

मुकुट बिहारी सरोज जन-गण-मन के विद्रोही गीतकार हैं। उनके एक एक शब्द जन-गण के अनुशासन में रहते हैं, जबकि किशन सरोज की रसिया पंक्तियां अपनी सुस्वादु तरलता से मन हरा भरा कर देती हैं। मुकुट बिहारी सरोज की दो कृतियां 'किनारे के पेड़' और 'पानी के बीज' बड़ी लोकप्रिय रही हैं। एक वक्त में उनकी यह कविता देश के हर साहित्य प्रेमी की जुबान पर थी। इसकी पहली पंक्ति तो कहावत ही बन गई....

इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं !

प्रभुता के घर जन्मे, समारोह ने पाले हैं

इनके ग्रह मुंह में, चांदी की चम्मच वाले हैं

उदघाटन में दिन काटें रातें अखबारों में

ये ,शुमार होकर ही मानेंगे, अवतारों में

ये तो बड़ी कृपा है, जो ये दीखते भर इंसान हैं !

इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं !

दंतकथाओं के उद्गम का पानी रखते हैं

पूंजीवादी तन में, मन भूदानी रखते हैं,

होगा एक,तुम्हारे इनके लाख-लाख चेहरे

इनको क्या नामुमकिन है, ये जादूगर ठहरे

इनके जितने भी मकान थे,वे सब आज दूकान हैं!

इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं !

ये जो कहें प्रमाण, करें जो कुछ प्रतिमान बने,

इन ने जब-जब चाहा तब-तब नए विधान बने

कोई क्या सीमा नापे इनके अधिकारों की

ये खुद जन्म पत्रियां लिखते हैं सरकारों की

तुम होगे सामान्य, यहां तो पैदायशी प्रधान हैं!

इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं !

वरिष्ठ लेखक वीरेन्द्र जैन लिखते हैं - '26 जुलाई 1926 को जन्मे मुकुट बिहारी सरोज ने स्वतंत्रता के बाद ही गीत रचना के क्षेत्र में पदार्पण किया और शीघ्र ही लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच गये। सन 1959 में प्रकाशित उनके प्रथम काव्य संग्रह में उनके परिचय में लिखा हुआ है कि इकतीस वर्षीय सरोज दस बारह वर्षों से लिख रहे हैं और साथ के लोगों की लिखनेवाली पंक्ति में काफी दूर से दिखते हैं। यह वह दौर था जब नई कविता की घुसपैठ के बावजूद गीत ही जनमानस की काव्य रुचि में प्रमुख स्थान बनाये हुए था। जगह-जगह होने वाले कवि सम्मेलन ही रचना के परीक्षण व उसके खरी खोटी होने के निर्णय स्थल होते थे। यद्यपि इस परीक्षा में कुछ अंक मधुर गायन वाले ग्रेस में ले जाते थे पर रचना को उसके भावों, विचारों, शब्दों और सम्प्रेषणीयता की कसौटी पर कसा जाकर ही किसी कवि को परखा जाता था तथा दुबारा मिलने वाला आमंत्रण उसका प्रमाण पत्र होता था। सरोजजी को नीरज, बलबीर सिंह रंग, शिशुपाल सिंह शिशु, गोपाल सिंह नेपाली, रमानाथ अवस्थी आदि के साथ जनता की कसौटी पर खरा होने का प्रमाण पत्र मिला और वे हिन्दी कविसम्मेलनों में अनिवार्य हो गये थे। सरोजजी के गीतों में अन्य श्रंगारिक कवियों के तरह लिजलिजा, लुजलुजापन कभी नहीं रहा। उनके गीत सदैव ही खरे सिक्कों की तरह खनकदार रहे। वे आकार में भले ही छोटे रहे हों किंतु वे ट्यूबवैल की तरह गहराई में भेद कर जीवन जल से सम्पर्क करते रहे हैं। सरोज जी अपनी कहन में, अन्दाज़ में, अपने समकालीनों से भिन्न रहे हैं इसलिए अलग से पहचाने जाते रहे हैं।'

भीड़-भाड़ में चलना क्या, कुछ हटके-हटके चलो

वह भी क्या प्रस्थान कि जिसकी अपनी जगह न हो

हो न ज़रूरत, बेहद जिसकी, कोई वजह न हो,

एक-दूसरे को धकेलते, चले भीड़ में से-

बेहतर था, वे लोग निकलते नहीं नीड़ में से

दूर चलो तो चलो, भले कुछ भटके-भटके चलो

तुमको क्या लेना-देना ऐसे जनमत से है

खतरा जिसको रोज, स्वयं के ही बहुमत से है

जिसके पांव पराये हैं जो मन से पास नहीं

घटना बन सकते हैं वे, लेकिन इतिहास नहीं

भले नहीं सुविधा से - चाहे, अटके-अटके चलो

जिनका अपने संचालन में अपना हाथ न हो

जनम-जनम रह जायें अकेले, उनका साथ न हो

समुदायों में, झुण्डों में, जो लोग नहीं घूमे

मैंने ऐसा सुना है कि उनके पांव गये चूमे

समय, संजोए नहीं आंख में, खटके, खटके चलो।

अपने गीत-संग्रह की भूमिका में मुकुट बिहारी सरोज लिखते हैं- 'मेरे इस संग्रह की भाषा आपको अखरेगी या अजीब लगेगी या आपके मन में खुब जायेगी। इसे आप शायद भाषा वैचित्र्य की संज्ञा दें। बड़ी आसानी से इसे शैली की पृथकता भी माना जा सकता है। बोल-चाल में रात-दिन जो आपने कहा सुना है, उसी को जब आप पढ़ेंगे, तब मेरा विचार है कि आपको उसमें कुछ अपनेपन का अनुभव होना चाहिए।'

कभी चीन, कभी पाकिस्तान के साथ भारत के सीमा-विवादों के दौर में उनके गीत और भी धारदार होते गए-

क्योंजी, ये क्या बात हुई

ज्यों ज्यों दिन की बात की गयी

त्यों त्यों रात हुई।

क्यों जी, ये क्या बात हुई।

वीरेन्द्र जैन का कहना है कि सत्तर के दशक में उनके गीत सत्ता के चरित्र को रेशा-रेशा खोलना शुरू कर चुके थे। कवि सम्मेलनों के पतनशील दौर में जब सारे मंच को चुटकुलेबाज़ों ने हथिया लिया हो तथा सारे गम्भीर कवि मंच त्याग कर भाग गये हों, तब अपने कथ्य तेवर और विचारों से बिना कोई समझौता किये वह मंचों के माध्यम से जनता के साथ सीधा सम्पर्क बनाये रहे। वे हिन्दी के पहले व्यंग्य गीतकार हैं। दुष्यंत कुमार ने बाद में यही काम गज़लों के माध्यम से किया और लोकप्रियता हासिल की। सरोज जी सहज व्यवहार भी अपनी व्यंजनापूर्ण भाषा और व्यंगोक्तियों के माध्यम से हर उम्र के लोगों को अपना मित्र बना लेने की क्षमता रखते थे।

सचमुच बहुत देर तक सोए

इधर यहाँ से उधर वहाँ तक

धूप चढ़ गई कहाँ-कहाँ तक

लोगों ने सींची फुलवारी

तुमने अब तक बीज न बोए ।

दुनिया जगा-जगा कर हारी,

ऐसी कैसी नींद तुम्हारी ?

लोगों की भर चुकी उड़ानें

तुमने सब संकल्प डुबोए ।

जिन को कल की फ़िक्र नहीं है

उनका आगे ज़िक्र नहीं है,

लोगों के इतिहास बन गए

तुमने सब सम्बोधन खोए ।

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