उर्दू, हिन्दी, पहाड़ी, पंजाबी और डोगरी भाषाओं में समान अधिकार से ग़ज़ल कहने वाले अनुपम शायर 'सागर' पालमपुरी
हिमाचल के प्रख्यात शायर 'साग़र' पालमपुरी के जन्मदिन पर विशेष...
'सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद, कौन दोहराएगा रूदाद-ए-वफ़ा मेरे बाद, आपके तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल की ये हद भी होगी, आप मेरे लिए माँगेंगे दुआ मेरे बाद', ये शब्द हैं हिमाचल प्रदेश के ख्यात शायर शायर 'साग़र' पालमपुरी के। आज (25 जनवरी) उनका जन्मदिन है।
उर्दू हिन्दी और पहाड़ी, पंजाबी और डोगरी भाषाओं में समान अधिकार से ग़ज़ल कहने वाले अनुपम शायर 'सागर' पालमपुरी की ग़ज़लें अगर शायर, बीसवीं सदी शमअ जैसी उर्दू पत्रिकाओं में छपीं तो 'सारिका' जैसी पत्रिका में भी उन्हें स्थान मिला।
कवि चंद्रसेन विराट कहते हैं कि गजल का काव्यरूप हिन्दी का अपना स्वयं का नहीं है। यह उर्दू से आयातित है। गजल को पूर्णतया अपनाकर उसमें उसकी पिंगल शास्त्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति करके लेखन किया गया तो उसकी जांच परख भी तो उन्हीं के उपकरणों से होगी। इसीलिए हिन्दी वाले गजल रचनाकारों की अपेक्षा रही आई है कि वह उर्दूवालों की ओर से सही और उपयुक्त मानी जाए। ऐसी ही भावना उर्दू शायरों में दोहे लिखते वक्त रह सी आई है कि उनके दोहे हिन्दीवालों से जांचे जाएं एवं सराहना पाएं। गजल यदि हिन्दी का ही मूल काव्यरूप होता तो उसके उपकरण हमारे पास उपलब्ध होते, जिनसे उनका परीक्षण होता।
उर्दू काव्य विधा गजल को हिन्दी में लाया गया और उसे उसकी काव्यगत विषेशताओं के साथ अरूज के प्रतिमानों के अनुरूप लिखा गया तो आप क्या उसे अन्य कसौटी पर कसेंगे? इसीलिए यह अपेक्षा रहती है बस। अभी भी गजलों में तकनीकी दोष निकालकर उन्हें खारिज किया ही जाता है। उदारमन उर्दू शायरों और उस्तादों से श्रेष्ठ हिन्दी गजलों की सराहना भी की जाती है। गजल को उसकी अनिवार्य अर्हताओं के साथ पूरी उत्कृष्ठता के साथ लिखा जाए, इसमें गलत क्या है? हर विधा समय के साथ उत्तरोत्तर विकास करती ही है। हिन्दी गजल ने भी किया है। देशकाल और परिस्थिति के प्रभाव के कारण कथ्य में अंतर देखा जा सकता है।
उर्दूनुमा, अधिक अरबी-फारसी शब्दों के प्रयोग और खींचतान कर हिन्दुस्तानी भाषा में कही जाती रही गजलों का दौर रहा आया है। तब भी था और कमोबेश अब भी है। तथापि विशुद्ध हिन्दी में लिखी गई गजलों को भी सराहना मिलने लगी है और उन्हें स्वीकृति मिल रही है। भाषा की दहलीज से बात न करें तो सागर पालमपुरी के शब्द भी ऐसे ही अर्थ से रूबरू कराते नजर आते हैं -
परदेस चला जाये जो दिलबर तो ग़ज़ल कहिये
और ज़ेह्न हो यादों से मुअत्तर तो ग़ज़ल कहिये
कब जाने सिमट जाये वो जो साया है बेग़ाना
जब अपना ही साया हो बराबर तो ग़ज़ल कहिये
दिल ही में न हो दर्द तो क्या ख़ाक ग़ज़ल होगी
आँखों में हो अश्कों का समंदर तो ग़ज़ल कहिये
हम जिस को भुलाने के लिये नींद में खो जायें
आये वही ख़्वाबों में जो अक्सर तो ग़ज़ल कहिये
फ़ुर्क़त के अँधेरों से निकलने के लिये दिल का
हर गोशा हो अश्कों से मुनव्वर तो ग़ज़ल कहिये
ओझल जो नज़र से रहे ताउम्र वही हमदम
जब सामने आये दम-ए-आख़िर तो ग़ज़ल कहिये
अपना जिसे समझे थे उस यार की बातों से
जब चोट अचानक लगे दिल पर तो ग़ज़ल कहिये
क्या गीत जनम लेंगे झिलमिल से सितारों की
ख़ुद चाँद उतर आये ज़मीं पर तो ग़ज़ल कहिये
अब तक के सफ़र में तो फ़क़त धूप ही थी ‘साग़र’!
साया कहीं मिल जाये जो पल भर तो ग़ज़ल कहिये
सागर पालमपुरी के पुत्र द्विजेंद्र 'द्विज' अपने पिता शायर के साहित्य पर रोशनी डालते हुए बताते हैं कि यदि राष्ट्रीय स्तर पर ग़ज़ल की ज़मीन उपजाऊ है तो यह ज़मीन हिमाचल प्रदेश में भी कभी कम उर्वरा नहीं रही। हिमाचल प्रदेश में भी मूलत: उर्दू में ग़ज़ल कहने वाले शायरों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है, जिनमें स्व. लाल चन्द प्रार्थी 'चांद' कुल्लुवी, स्व. मनोहर शर्मा 'साग़र' पालमपुरी, स्व. सुदर्शन कौशल नूरपुरी, स्व.अमर सिंह 'फ़िग़ार, स्व. बिहारी लाल बहार 'शिमलवी', स्व. अरमान शहाबी, खेम राज गुप्त 'साग़र',प्राचार्य परमानंद शर्मा, डॉ. शबाब ललित, कृष्ण कुमार 'तूर' व ज़ाहिद अबरोल इत्यादि के ख़ूबसूरत क़लाम की बदौलत हिमाचल में उर्दू सुख़न की शमअ रौशन रही है और जिनकी शायरी हिमाचल का राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करती आई है। इन तमाम शायरों ने पारम्परिक और जदीद रंगों में जीवन की विविध अनुभूतियों को अपनी शायरी का विषय बनाया है।
उर्दू हिन्दी और पहाड़ी, पंजाबी और डोगरी भाषाओं में समान अधिकार से ग़ज़ल कहने वाले अनुपम शायर मनोहर शर्मा 'सागर' पालमपुरी की ग़ज़लें अगर शायर, बीसवीं सदी शमअ जैसी उर्दू पत्रिकाओं में छपीं तो 'सारिका' जैसी पत्रिका में उन्हें स्थान मिला। उनकी ग़ज़लों में अपने ही परिवेश से अंजान, बेचेहरा तथा चिंतन के अभाव में दिशाहीन तथा उद्देश्यहीन जनमानस की चिंता झलकती है -
दरअस्ल सबसे आगे जो दंगाइयों में था
तफ़्तीश जब हुई तो तमाशाइयों में था
हमला हुआ था जिनपे वही हथकड़ी में थे
मुजरिम तो हाक़िमों के शनासाइयों में था
उस दिन किसी अमीर के घर में था कोई जश्न
बेरब्त एक शोर—सा शहनाइयों में था
हैराँ हूँ मेरे क़त्ल की साज़िश में था शरीक़
वो शख़्स जो कभी मेरे शैदाइयों में था
शोहरत की इन्तिहा में भी आया न था कभी
‘साग़र’!वो लुत्फ़ जो मेरी रुस्वाइयों में था
'साग़र' पालमपुरी के सुख़न में ग़मे-वतन की आँच भी है और उदास रूहों में जीने की आरज़ू भर देने की क्षमता भी। 'साग़र' परवतों पर छाई धुंध के पीछे छिपी रौशनी के प्रति भी आश्वस्त करते हैं -
जहाँ से कूच करूँ तो यही तमन्ना है
मेरी चिता को जलाए ग़मे-वतन की आँच
उदास रूहों में जीने की आरज़ू भर दे
लतीफ़ इतनी है 'साग़र' मेरे सुख़न की आँच
कंकरीट के बढ़ते मकानों के कारण चिड़ियों के घौंसलों का दर-ब-दर हो जाना हो या कौवों के द्वारा खेतों के चुग लिए जाने पर चिड़ियों का भूखे रह जाना भी 'सागर' की ग़ज़लों के शे'रों में उतर कर प्रतीकात्मक शैली में हमारी सामाजिक विषमताओं को उजागर करता है- 'बनने लगे हैं जब से मकाँ कंकरीट के, उस दिन से दर-ब-दर हुए चिड़ियों के घौंसले'। 'साग़र' साहब कहते हैं -
बर्ग-ओ-अशजार से अठखेलियाँ जो करती है
ख़ाक उड़ाएगी वो गुलशन की हवा मेरे बाद।
संग-ए-मरमर के मुजसमों को सराहेगा कौन
हुस्न हो जाएगा मुह्ताज-ए-अदा मेरे बाद।
प्यास तख़लीक़ के सहरा की बुझेगी कैसे
किस पे बरसेगी तख़ैयुल की घटा मेरे बाद!
मेरे क़ातिल से कोई इतना यक़ीं तो ले ले
क्या बदल जाएगा अंदाज़-ए-जफ़ा मेरे बाद?
मेरी आवाज़ को कमज़ोर समझने वालो
यही बन जाएगी गुंबद की सदा मेरे बाद!
ग़ालिब-ओ-मीर की धरती से उगी है ये ग़ज़ल
गुनगुनाएगी इसे बाद-ए-सबा मेरे बाद।
न सुने बात मेरी आज ज़माना ‘साग़र’!
याद आएगा उसे मेरा कहा मेरे बाद!
आधुनिक उर्दू ग़ज़ल की बुलंदियों पर खड़े उस्ताद शायर मुज़फ्फ़र हनफ़ी कहते हैं कि उर्दू ग़ज़ल के सिर पर औरतों से गुफ्तगू करने का दोष नहीं मढ़ा जाना चाहिए। दुनिया का कोई भी मौजूं सब्जेक्ट ग़ज़ल का शेर हो सकता है। नौजवानों को उर्दू ग़ज़ल का आशिकाना मिजाज अच्छा लगता है लेकिन उन ग़ज़लों में भला गालिब जैसी बात कहां होती है! उनका मानना है कि ज्यादा लिखना बड़ी बात नहीं होती है, बल्कि अच्छा लिखना और खूब लिखना बड़ी बात होती है।
ज्यादा लिखना मगर घटिया, तो वैसा लिखा किस काम का, उसे तो कोई याद नहीं रखता है। कोई बेशक कम लिखे मगर लाजवाब लिखे। मजरूह सुल्तानपुरी ने महज चार दर्जन के लगभग ग़ज़लें लिखीं, लाजवाब। आज उन्हें दुनिया जानती है। अफसानानिगारों में कुछ ऐसा ही हुनर मंटो में दिखता है। उनके पसंदीदा शायर गालिब, मीर तकी मीर और शाद आरफी के अलावा उनके चहेते अफसानानिगार सआदत हसन मंटो हैं। उन्होंने मंटो को अपने अब्बा से चोरी-चोरी पढ़ा। जब कभी अब्बा देख लेते, कान पकड़कर उमेठ दिया करते थे। अपने उस्ताद शाद आरफी के बारे में वह बताते हैं कि वो बड़े खुद्दार शायर थे।
उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी गरीबी में काट दी। उस समय जब रामपुर के नवाब के खिलाफ कोई बोलने तक की हिम्मत नहीं करता था, वह नवाब के खिलाफ लगातार बेलौस लिखते रहे। जब सागर पालमपुरी को तो पढ़िए तो लगता है कि उनके एक-एक शब्द सर्कस की रस्सी की तरह हनफी साहब के उसूलों को ही साध रहे हैं -
दिल में यादों का धुआँ है यारो !
आग की ज़द में मकाँ है यारो !
हासिल-ए-ज़ीस्त कहाँ है यारो !
ग़म तो इक कोह-ए-गिराँ है यारो !
मैं हूँ इक वो बुत-ए-मरमर जिसके
मुँह में पत्थर की ज़बाँ है यारो !
नूर अफ़रोज़ उजालों के लिए
रौशनी ढूँढो कहाँ है यारो !
टिमटिमाते हुए तारे हैं गवाह
रात भीगी ही कहाँ है यारो !
इस पे होता है बहारों का गुमाँ
कहीं देखी है ये खिज़ाँ है यारो !
हम बहे जाते हैं तिनकों की तरह
ज़िन्दगी मील-ए-रवाँ है यारो
ढल गई अपनी जवानी हर चंद
दर्द-ए-उल्फ़त तो जवाँ है यारो
नीम-जाँ जिसने किया ‘साग़र’ को
एक फूलों की कमाँ है यारो!
द्विजेंद्र द्विज कहते हैं कि यह सत्य है कि आज की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं विवादास्पद काव्य-विधा ग़ज़ल अपने समकालीन स्वरूप तक पहुँचने से पहले केवल ग़ज़ाला (हिरणी) की चीख़ या आशिक़ (प्रेमी) और माशूक़ (प्रेमिका) शिकवे-शिकायतों भरी बातचीत या फिर तसव्वुफ़ (अध्यात्म) की उड़ान का माध्यम थी। वह दौर 'गुलो-बुलबुल', 'साक़ी और शराब' का दौर था। इसी सीमित क्षेत्र में कल्पना की उड़ान भरी जा सकती थी। मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे सिद्धहस्त और लोकप्रिय शायर ने भी स्वीकार किया -
''बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फ़-ए-तंगना-ए-ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयाँ के लिए।''
अर्थात 'जिन भावों को मैं (ग़ज़ल में) लाना चाहता हूँ, वे इस संकुचित क्षेत्र में नहीं आ पाते उनके लिए विस्तृत क्षेत्र की आवश्यकता है' इसके बावजूद मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी प्रतिभा से ग़ज़ल के क्षेत्र को जो विस्तार और ऊँचाइयाँ प्रदान कीं वे अद्वित्तीय, अविस्मरणीय एवं कालातीत हैं। परंतु आज भी ग़ज़ल को 'कोठों, दरबारों से निकली हुई' या 'अभिव्यक्ति के लिए अपर्याप्त' कह कर आज भी बहुत से स्वनाम धन्य विद्वान नकारते ही हैं।
ऐसा संभवत: ग़ालिब ने विनम्रता पूर्वक यह सार्वभौमिक तथ्य उजागर करने के लिए कहा होगा, कि क्लिष्ट जीवनानुभवों की अतल गहराइयों से स्वत: फूटने वाले भावों की अभिव्यक्ति के लिए केवल काव्य तो क्या साहित्य की कोई भी विधा (मिर्ज़ा ग़ालिब के संदर्भ में ग़ज़ल) सीमित या संकुचित रह जाती है। अत: ग़ालिब का यह शे'र उनके तर्ज़े-बयाँ की समग्रता, सौंदर्य एवं उस अज़ीम शायर की अप्रतिम भावाव्यक्ति की असीम क्षमताओं की मिसाल के साथ-साथ साहित्य व कला की सीमाओं की विनम्र स्वीकारोक्ति भी है, जिसका दुरुपयोग,विडंबना से, हिन्दी कविता के कुछ कूप मंडूक अलम्बरदार समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के विरोध में यह फ़तवा जारी करने के लिए करते हैं कि केवल ग़ज़ल ही अभिव्यक्ति के लिए अपर्याप्त विधा है। साहित्य की तमाम विधाएँ अपने-अपने स्थान पर माननीय हैं क्यों कि ये सभी अपने-अपने तरीके से मानव की संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति का मध्यम हैं। ऐसे में ग़ज़ल को ही अभिव्यक्ति के लिए अपर्याप्त विधा कह कर नकार देना संवेदना का अपमान करने जैसा होगा।
सागर पालमपुरी के दूसरे पुत्र नवनीत शर्मा हिमाचल की हिन्दी कविता के अत्यंत ऊर्जावान व संस्कारवान स्वरों में प्रमुख एक स्वर हैं, जो मूलत: कविताएं लिखते हैं, लेकिन चाँद जैसे चेहरे पर मकाँ, रोटी, और दर्द का लिखा जाना हो, या माथे पर पसीने से, केवल चलते जाना अंकित कर दिया जाना हो या फिर फटेहाल गाँव को दिल्ली द्वारा ख़ुशहाल घोषित किए जाने की कोरी घोषणा हो नवनीत को ग़ज़लें कहने के लिए भी प्रेरित करता है। चोट खाए हुए लम्हों का असर उनकी ग़ज़ल में रूह के चेहरे के मुहासे तक दिखा सकता है। लीजिए, उनके कुछ ख़ूबसूरत शे'र -
''साफ़ लिक्खा है मकाँ, रोटी, दर्द चेहरे पर
जिसको कहते थे कभी चाँद ज़माने वाले
जिनके माथे पे पसीने से लिखा हो चलना
हैं वही लोग तेरा साथ निभाने वाले
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