बचपन से ही दिल बड़ा रहा है 20 हज़ार से ज्यादा दिल के ऑपरेशन कर चुके डॉक्टर विजय दीक्षित का
पिता के दिये संस्कारों में सेवा-भाव का था बड़ा महत्त्व ... दूसरों की मदद के मक़सद से ही डॉक्टर बनना चाहते थे ... बुद्धि तेज़ थी और मेहनत इतनी ज़बरदस्त कि पहली कोशिश में ही हासिल कर ली थी एमबीबीएस की सीट ... कुछ ऐसा जुनून सवार था कि ऐसे समय दिल का डॉक्टर बनने की सोची जब देश-भर में दो-तीन जगह ही होते थे दिल के ऑपरेशन ... दिल की सुनी, दिल के डॉक्टर बने और हज़ारों लोगों के दिल की बीमारियाँ की दूर ... डॉक्टरी जीवन में अपनाई नयी-नयी चिकित्सा तकनीकें और बनाते गये सर्जरी आसान .. 20 हज़ार से ज्यादा दिल के ऑपरेशन करने के बाद भी वही उत्साह है जो पहले ऑपरेशन के समय था ... दिल के इस बड़े डाक्टर के विचार भी दिलकश हैं और अंदाज़-ए-बयाँ भी
डॉ. विजय दीक्षित भारत के ही नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे मशहूर हृदय-रोग विशेषज्ञों में से एक हैं। उन्होंने अपने डॉक्टरी जीवन में कई जटिल ऑपरेशन किये और कामयाब रहे। दिल के ऑपरेशनों में उनकी सक्सेस-रेट भी बेहद शानदार और गज़ब की है। जिस सफाई से वे ऑपरेशन कर मरीज़ों का इलाज करते हैं, उसे देखकर कई लोग उनके मुरीद बन गए हैं। कुछ मरीज़ उन्हें फरिश्ता कहते हैं तो कुछ उन्हें जान बचाने वाला भगवान मानते हैं। डॉ. विजय दीक्षित अब तक बीस हज़ार से ज्यादा दिल के ऑपरेशन कर चुके हैं, लेकिन वे बीस हज़ार को महज़ एक आंकड़ा मानते हैं। हैदराबाद के अपोलो अस्पताल में उनके कक्ष में हुई एक अंतरंग बातचीत में विजय दीक्षित ने कहा,
" बीस हज़ार वगैरह तो बस नंबर है। आप काम करते रहेंगे, तो नंबर बढ़ते रहेंगे। मैं इसे कोई बड़ी बात नहीं मानता। जब तक मुझ में शक्ति है, काबिलियत है और मेरे हाथ-पाँव चलते रहेंगे मैं काम करता रहूंगा। नंबर के लिए थोड़े ही करते हैं ऑपरेशन, काम करते रहते हैं तो नंबर हो जाते हैं।"
विजय दीक्षित उन खास शख़्सियतों में से हैं, जिनसे एक बार बातचीत करने से ही ये पता चल जाता है कि जैसा उनका काम है वैसा ही उनका दिल भी है। काम और दिल दोनों बड़े हैं और शानदार भी। जैसा सोचते हैं, वैसे ही बोलते है। काम और दिल जितना साफ़ है बोल भी उतने ही साफ़। लोग उन्हें फरिश्ता कहते हैं, भगवान मानते हैं, उन्हें जान बचाने वाला डॉक्टर कहते हैं, लेकिन विजय दीक्षित खुद को ऐसा कुछ नहीं समझते। वे कहते हैं,
"जान मैं क्या बचा सकता हूँ? मैं न जान देने वाला हूँ न लेने वाला। लोगों का स्वास्थ अच्छा रहे, कम से कम दिल के मामले में, मैं कुछ मदद कर सकता हूँ, तो करता हूँ। ये तो मरीज़ मानते हैं कि मैं जान बचाता हूँ। आजकल के मरीज़ डॉक्टर के प्रति इतने शुक्रगुज़ार हैं कि वे इस तरह की बातें कहते हैं और दूसरे लोग इन बातों को मानते भी हैं।"
अपने दिलकश अंदाज़ में दीक्षित ने ये भी कहा," आप ही सोचिए, हम अपनी जान बचा सकते हैं क्या ? हम में इतनी ताकत थोड़े ही है ? हम न जान दे सकते हैं न ले सकते हैं। हाँ मैं अपनी पढ़ाई और अनुभव की वजह से लोगों का स्वास्थ ठीक कर सकता हूँ , और यहीं करता भी हूँ।" चिकित्सा-क्षेत्र की इस बड़ी शख्शियत से हमने ये सवाल भी किया कि दिल को स्वस्थ रखने के लिए क्या करना ज़रूरी हैं ? इस सवाल के जवाब में विजय दीक्षित ने कहा, "अपने दिल की सुनो। जो करना चाहते हो वो करो। मैंने देखा है वही लोग दिल की बीमारी पालते हैं, जो वो काम करते हैं, जिसमें उनका मन नहीं होता। स्ट्रेस की वजह से दिल की बीमारियां होती हैं। स्ट्रेस का मतलब सिर्फ परेशानी नहीं है। वो काम करना भी है, जिसमें मन नहीं है।"
सलाह देते हुए विजय दीक्षित ने आगे कहा," ये हमेशा संभव नहीं है कि आपको वो ही काम करने का मौका मिले, जिसमें आपका मन है। ऐसी हालत में आपको ये समझ लेना चाहिए कि आपको इसी काम के लिए बनाया गया है। आप जब अपने काम को एन्जॉय करेंगे तभी आपका हार्ट भी हेल्थी रहेगा।"
जब हमने विजय दीक्षित से ये पूछा कि उनके लिए कामयाबी के मायने क्या हैं? इसका जवाब विजय दीक्षित ने दार्शनिक अंदाज़ में दिया। उन्होंने कहा,"मैं तो नहीं जानता कि मैं कामयाब हूँ या नहीं। अगर आप अपने आप को कामयाब समझते हैं, तो आप कामयाब हैं। मैंने बहुत सारी चीज़ें सोची होंगी ज़िंदगी में, लेकिन मैं नहीं कर पाया। ऐसे में मैं क्या ये मान लूँ कि मैं नाकामयाब रहा हूँ । अगर आप उस काम से संतुष्ट हैं जो आप कर रहे हैं , तो ये भी कामयाबी है। जैसे-जैसे अनुभव बढ़ता है, वैसे-वैसे संतुष्टि बढ़े तो बड़ी कामयाबी है। हाँ मेडिकल फील्ड में दूसरों की तुलना में मैंने बहुत कुछ हासिल किया है।"
मरीजों के इलाज में जीवन समर्पित कर चुके विजय दीक्षित के मन में सेवा-भाव कूट-कूट कर भरा हुआ है। बचपन में पिता की बातों का उनके दिल और दिमाग पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा था। एक मायने में सेवा-भाव की वजह से ही विजय दीक्षित डॉक्टर भी बने थे। विजय दीक्षित ने बचपन में ही ये सोच लिया था कि बड़े होकर उन्हें डॉक्टर बनना है। वे बस डॉक्टर ही बनना चाहते थे और कुछ नहीं। उनके पिता आईपीएस अधिकारी थे और उन्हें उत्तरप्रदेश में अलग-अलग जगह ऊँचे ओहदे पर काम करने का मौका मिला था। चूँकि पुलिस अधिकारी थे, तबादले होते रहते थे। यही वजह भी थी कि विजय दीक्षित की पढ़ाई भी अलग-अलग जगह हुई, लेकिन उनका ज्यादातर समय लखनऊ और वाराणसी में ही बीता।
विजय दीक्षित ने बताया, "मेरे पिता चाहते थे कि मैं ऐसा कोई टैलेंट रखूँ, जो मेरे हाथ में हो। वे चाहते थे कि मैं अपने टैलेंट से दूसरों की मदद कर सकूँ।" पिता की इन्हीं बातों का विजय दीक्षित पर बहुत प्रभाव पड़ा। वैसे तो उनके घर-परिवार में कई सारे लोग सरकारी नौकरी करते थे, लेकिन पिता के दिए संस्कारों की वजह से उन्होंने डॉक्टर बनने और लोगों की मदद करने की सोची।
वैसे भी बचपन से ही विजय दीक्षित का स्वभाव दूसरे बच्चों से अलग था। बचपन से ही वे दूसरों की मदद करने लगे थे। गरीब बच्चों को वे कभी चॉक्लेट देते तो, कभी उन्हें आइसक्रीम खिलवा देते। और भी अलग-अलग तरह से उन्होंने अपने हमउम्र बच्चों की मदद की थी। दूसरों की मदद करना उनकी आदात-सी बन गयी थी। कुछ लोग उनसे ये कहते भी कि उन्हें उन बच्चों के साथ नहीं उठना-बैठना चाहिए, जिनका सामजिक स्तर छोटा है, लेकिन संस्कार ऐसे थे कि विजय दीक्षित पर इस तरह की आपत्तियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
चूँकि डॉक्टर बनने का इरादा मजबूत था विजय दीक्षित ने मेडिकल कॉलेज की प्रवेश परीक्षा के लिए जमकर तैयारी की थी। उन दिनों की यादें ताज़ा करते हुए विजय दीक्षित ने अपने ख़ास अंदाज़ में, चहरे पर चिर-परिचित मुस्कान के साथ कहा, " डॉक्टर बनना इतना मुश्किल भी नहीं हैं। मगर उस दौर में भी कॉम्पिटिशन होता था। जब मैंने परीक्षा लिखी तब 700 सीटें थीं और 35 हज़ार उम्मीदवार। परीक्षा में मेरा रैंक तेरहवां था। चूँकि उन दिनों लखनऊ मेडिकल कॉलेज बेस्ट माना जाता था, मैंने वही दाख़िला लिया। मैं शुरू से चाहता था कि डॉक्टर बनूँ। डॉक्टर बनने के लिए पढ़ाई तो करनी पड़ती है। मैंने भी उन दिनों दिन-रात पढ़ाई की।"
विजय दीक्षित ने लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस की अपनी पढ़ाई के दिनों के बार में भी हमें बताया," उस वक़्त की पढ़ाई के बारे में सोचने पर अब मज़ा आता है। आज-कल के बच्चे शायद ही उसे समझ पाएंगे। उन दिनों बहुत ज्यादा पढ़ाई करनी पढ़ती थी। पढ़ाई का बहुत ज्यादा बोझ रहता था। हर हफ्ते टेस्ट होते थे। दिन-रात, सोना-जागना इन सब का कोई मतलब नहीं था। स्टूडेंट डेज में हम सुबह से लेकर रात 8 बजे तक अस्पताल में ही रहते थे। पढ़ाई के सिवाय और किसी के बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता था।"
विजय दीक्षित ने आगे कहा," इस बात का डर भी रहता था कि कहीं फेल न हो जाऊं। पेरेंट्स मुझे बहुत सपोर्ट कर रहे थे। पेरेंट्स मुझसे बड़ी उम्मीदें रखते थे। उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रेशर भी रहता था। उन दिनों फेल होना कॉमन था। एंट्रेंस एग्जाम पास करके कई अच्छे लड़के मेडिकल कॉलेज में आते थे , मगर आधे बच्चे किसी न किसी सब्जेक्ट में फेल हो जाते थे।"
विजय दीक्षित की मेहनत इतनी तगड़ी थी कि वे कभी फेल नहीं हुए। इरादे नेक थे, हौसले बुलंद, कामयाबी उन्हें मिलती गयी। एमबीबीएस पढ़ाई की ट्रेनिंग के दौरान वे दिल के ऑपरेशन की ओर आकर्षित हुए। इतना आकर्षित हुए कि इस बात को मन में गाँठ बांधकर बिठा लिया कि उन्हें दिल का डॉक्टर ही बनना है। जब उन्होंने दिल का डॉक्टर बनने के अपने इरादे के बारे में पिता और दूसरे लोगों को बताया तो सभी हैरान हुए। सभी ने हतोत्साहित करने वाले शब्द कहे। विजय दीक्षित ने बताया," बहुत लोगों ने कहा - ये कौन सी लाइन ले रहे हो ? कहाँ, क्या कर पाओगे ? सीनियर्स भी कुछ इसी तरह के सवाल करते थे। पिता ने भी एक बार कहा था - बस आर्डिनरी डॉक्टर बन जाओ यही काफी है, ये दिल-विल की सर्जरी कहाँ करोगे।" लेकिन विजय दीक्षित का इरादा पक्का था। विश्वास मज़बूत हो चुका था। उन्होंने ठान लिया था। विजय दीक्षित ने कहा," एक पागलपल था। जुनून सवार था मुझपर। मैंने सोच लिया था कि मुझे बस यही करना है और मैंने वही किया भी।"
विजय दीक्षित का जुनून देखकर पिता ने बड़े प्यार से कहा था - तुम्हें जो करना है वो करो। हम पूरी मदद करेंगे।जिन दिनों विजय दीक्षित ने दिल का डॉक्टर/सर्जन बनने का फैसला लिया था, उन दिनों यानी सत्तर के दशक में भारत में दिल के ऑपरेशन बहुत ही कम हुआ करते थे। सिर्फ दो ही अस्पतालों में दिल के ऑपरेशन होते थे। बहुत ही कम डॉक्टर दिल के ऑपरेशन की ट्रेनिंग भी लेते थे। ऐसे में स्वाभाविक ही था लोगों का विजय दीक्षित के फैसले पर हैरानी जताना।
विजय दीक्षित ने सर्जन बनने का फैसला तो ले लिया था, लेकिन इस बात पर विश्वास नहीं था कि वे सर्जन बन पाएंगे या नहीं, लेकिन इसी बीच एक घटना हुई जिससे विजय दीक्षित को ये विश्वास हो गया कि वे भी सर्जन बन सकते हैं। हुआ यूँ था कि जूनियर डॉक्टर के तौर पर विजय दीक्षित को एक गाँव भेजा गया था। उनकी इंटर्नशिप चल रही थी। ताज़ा एमबीबीएस थे। जब वे गाँव में थे तब एक महिला बुरी तरह से ज़ख़्मी अपने बेटे को इलाज के लिए विजय दीक्षित के पास लेकर आयी। बच्चा चलती ट्रेन से गिर गया था। बच्चे का मुँह एक सिरे से दूसरे सिरे तक कट चुका था। बच्चे की हालत बहुत खराब थी। वो अधमरा-सा था। गाँव में या उसके आसपास विजय दीक्षित के अलावा कोई भी डॉक्टर नहीं था। बच्चे की जान बचाने के लिए उसका ऑपरेशन करना ज़रूरी था। विजय दीक्षित ने फैसला लिया कि वे उस बच्चे का ऑपरेशन करेंगे। उन्होंने बच्चे का ऑपरेशन किया। ऑपरेशन कामयाब हुआ। कुछ ही दिनों में बच्चा ठीक भी हो गया।
सबसे बड़ी बात तो ये थी कि विजय दीक्षित का ये पहला ऑपरेशन था। रेल हादसे में घायल बच्चे की जान बचाने के लिए किया गए इस पहले ऑपरेशन की वजह से विजय दीक्षित को बहुत फायदा हुआ। उनके मन में विश्वास जागा कि वे भी सर्जन बन सकते हैं। विजय दीक्षित ने बताया कि अपना पहला ऑपरेशन करने से पहले वे कई बार अपने सीनियर्स को ऑपरेशन करते हुए देख चुके थे। दूसरों को ऑपरेशन करता हुआ देखकर उनके मन भी में भी इच्छा जगी थी सर्जन बनने की, लेकिन वो विश्वास नहीं मिल रहा था, जो सर्जन बनने के लिए उन्हें चाहिए था। विजय दीक्षित कहते हैं,
"सर्जरी करने के लिए कॉन्फिडेंस बहुत ज़रूरी है। आप मरीज़ के अंगों को काटते हैं, फिर सिलते हैं। एक मायने में मरीज़ की जान आपके हाथों में होती है। इसी लिए सर्जरी करने के पहले डॉक्टर में विश्वास का होना बहुत ज़रूरी है।" गाँव में उस घायल बच्चे पर किये ऑपरेशन से विजय दीक्षित का मन विश्वास से भर गया। शंका दूर हुई थी , भविष्य का रास्ता साफ़ हुआ था ।
दिल के ऑपेरशन करने में महारत हासिल कर चुके इस महारथी डॉक्टर ने ये भी कहा," ऑपरेशन में अलग-अलग चरण होते हैं। हर ऑपरेशन में कुछ चरण चुनातियों से भरे होते हैं। हर ऑपरेशन एक चैलेंज होता है। मैं अपने आप को ये चैलेंज देते रहता हूँ कि अगले ऑपरेशन को बेहतर करना हैं। पिछले सालों में नयी-नयी तकनीकें आईं हैं। इन तकनीकों को अडॉप्ट करते हुए भी हम आगे बढ़े हैं।"
क़रीब चार दशकों के अपने डॉक्टरी जीवन में विजय दीक्षित चिकित्सा-क्षेत्र में आयी हर बड़ी क्रांति और हर नए सकारात्मक परिवर्तन के गवाह रहे हैं। उनके मुताबिक, ह्रदय की बीमारियों के इलाज के मामले में जो सबसे बड़ा बदलाव आया है वो लोगों का इलाज के प्रति बढ़ा विश्वास है। विजय दीक्षित बताते हैं, "जब मैंने ऑपरेशन करने शुरू किये थे, तब लोगों को उतना भरोसा नहीं था जितना कि अब है। टेक्नोलॉजी ने हमारी बहुत मदद की है। काम आसान किया है। अब हम ये जान गए है कि क्या करना है और क्या नहीं। अब डॉक्टरों को उनकी सीमाएँ भी मालूम हैं।"