क्रान्ति का अद्भुत महानायक चे ग्वेरा
पुण्यतिथि विशेष...
सबसे महत्वपूर्ण बात हमने यह जानी कि एक देश का आर्थिक विकास उसके तकनीकी विकास पर निर्भर करता है।' लेकिन चे के भारत-दर्शन में मुझे सबसे अहम बात यह लगी कि उन्होंने बगैर झिझक, भारत की स्वतंत्रता में गांधीजी के 'सत्याग्रह' की भूमिका को पहचाना।
दरअसल अपने अदम्य दुस्साहस, निरन्तर संघर्षशीलता, अटूट इरादों व पूंजीवाद विरोधी माक्र्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा के कारण ही चे ग्वेरा आज पूरी दुनिया में युवाओं के महानायक हैं।
दरअसल यह यात्रा उनके जीवन के बदलाव की यात्रा सिद्ध हुई, यात्रा के दौरान जो गरीबी व भुखमरी से उनका साक्षात्कार हुआ उसने उन्हें हिला कर रख दिया, वापस लौटकर 1954 में उन्होने मेडिकल की शिक्षा पूरी की।
कल बाजार में घूमने निकला तो एक लड़के को देखते ही ठिठक गया। कोई जाना-पहचाना चेहरा नहीं था वह। न ही वो कोई सेलिब्रेटी था। बस उसके मामूली से झोले पर बनी चे की तस्वीर ने मेरे बढ़ते कदमों को रोक दिया। मैने उत्साह से उस युवक से पूछा कि यह किसकी तस्वीर है? उसने बताया चे ग्वेरा। शायद यही चे की लोकप्रियता है। एक करिश्माई व्यक्तित्व, एक किंवदन्ती, एक जनूनी क्रान्तिकारी चे ग्वेरा सिर्फ फैशन स्टेटमेंट भर नहीं हैं कि बाइक पर उनकी तस्वीर चस्पा करना, उनकी टी-शर्ट पहनना, कैप लगाना भर काफी हो। वे एक विचार हैं, एक जीवन शैली हैं। वे यूथ आइकॉन हैं।
चे होने का अर्थ है युवा, ऊर्जा, नई सोच, तूफानों से टकरा जाने का माद्दा, पहाड़ों का सीना चीर देने का हौसला, आसमान को अपनी मुट्ठी में समेट लेने का जज्बा और अपनी जान से किसी खिलौने की तरह खेलने की बेफिक्री। उसका वह ठोस सपाट चेहरा, चौड़ा माथा, और ढेरों सपनों से भरी आंखें। उन आंखों के वही सपने युवा पीढ़ी के सपने हैं। आखिर क्या था इस युवक में कि वो अपनी मौत के कई दशकों के बाद भी अतीत नहीं भविष्य के रूप में देखा जाता है? दरअसल अपने अदम्य दुस्साहस, निरन्तर संघर्षशीलता, अटूट इरादों व पूंजीवाद विरोधी माक्र्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा के कारण ही चे ग्वेरा आज पूरी दुनिया में युवाओं के महानायक हैं। यह चे का जनून ही था जिसने 1959 में क्यूबा में क्रान्ति के बाद भी उन्हे चैन से बैठने नहीं दिया और क्यूबा की राजसत्ता को त्याग 1965 में पूरी दुनिया की यात्रा पर निकल पड़े व अफ्रीका और बोलिविया में क्रान्ति की कोशिश की।
चे ग्वेयरा का जन्म 14 जून 1928 को अर्जेन्टीना के रोसारियो शहर में हुआ। स्पेनिश-आयरिश वंश में जन्में चे ग्वेरा का बचपन रोसारियो की पहाडियों में ही बीता। अल्पायु में ही उन्होंने इतिहास व समाजशास्त्र का अध्ययन कर लिया व वे चिली के सुप्रसिद्ध क्रंान्तिकारी कम्युनिस्ट कवि पाब्लो नेरूदा से बेहद प्रभावित रहे। 19 वर्ष की आयु में उन्होने ब्यूनस आर्यस विश्वविद्यालय के मेडिकल कालेज में दाखिला लिया परन्तु मेडिकल शिक्षा के अन्तिम वर्ष में कुष्ठ रागियों के इलाज के लिए काम करने वाले एक दोस्त के मोटर साइकिल लेकर लेटिन अमेरिका की यात्रा पर निकल पड़े। दरअसल यह यात्रा उनके जीवन के बदलाव की यात्रा सिद्ध हुई, यात्रा के दौरान जो गरीबी व भुखमरी से उनका साक्षात्कार हुआ उसने उन्हें हिला कर रख दिया, वापस लौटकर 1954 में उन्होने मेडिकल की शिक्षा पूरी की। मेडिकल शिक्षा पूरी करने के बाद ग्वेटेमाला में काम करते हुए उन्होंने अरबेंज के समाजवादी शासन के खिलाफ सीआईए की सजिशों को देखा जिसने उनके दिल में अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए नफरत भर डाली। ग्वेटेमाला में उनकी मुलाकात वामपंथी अर्थशास्त्री हिल्डा गादिया अकोस्टा से हुई जो अमेरिकन पापुलर रिवोल्यूशनरी एलायंस की सदस्य थी। हिल्डा ने उनकी मुलाकात जनवादी विंग से निर्वाचित अरबेन्ज सरकार के कुछ बड़े नेताओं से कराई। वहां जकोबो अरबेन्ज का शासन सीआईए के द्वारा उखाड़ फेंकने के बाद उन्हे अर्जेन्टीना के दुतावास में शरण लेनी पड़ी और वहां से उन्होंने मेक्सिको की तरफ रूख किया।
मेक्सिको में ही उनकी मुलाकात कास्त्रो बन्धुओं से हुई व 1956 में क्यूबा के तानाशाह बतिस्ता के खिलाफ अभियान में चे उनके सहयोगी हो गए। 25 नवम्बर 1956 को चे ग्वेरा एक चिकित्सक की हैसियत से कास्त्रो भाइयों के साथ पूर्वी क्यूबा में ग््रोनमा जहाज से उतरे जहां उतरने के बतिस्ता की फौजों ने इस गुरिल्ला सेना पर हमला बोल दिया। इस हमले में उनके 82 साथी लड़ाई में शहीद हुए या उन्हें गिरफ्तार करके मार डाला गया यही वो समय था जब चे ग्वेरा ने मेडिकल बॉक्स छोड़ कर हथियार उठाए, बाद में उन्होंने गुरिल्ला कमांडर के तौर पर सीयेरा माऐस्त्रा की पहाडिय़ों में रहकर गुरिल्ला सेना का नेतृत्व किया। इसी गुरिल्ला फौज ने 31 दिसम्बर 1958 में क्यूबा के बतिस्ता शासन को तोड़ दिया। जनवरी 1959 में हवाना में दाखिल होने वाले व हवाना पर नियन्त्रण बनाने वाले चे ग्वेयरा पहले गुरिल्ला कमांडर थे। इस क्रान्ति के थोड़े समय के बाद ही चे अलेदिया मार्क के साथ शादी करके हनीमून पर चले गए।
चे गेवारा भारत आए थे! जीवनी में चे के भारत-दौरे का अप्रामाणिक निष्कर्ष है और दौरे के सहयोगी पार्दो लादा के हवाले से बिलकुल किस्से जैसा ब्योरा। पार्दो के मुताबिक चे के 'नायक' रहे नेहरू के साथ मुलाकात दोपहर शानदार खाने पर हुई। 'सरकारी महल' (तीन-मूर्ति भवन?) में खाने की मेज पर इंदिरा गांधी और उनके बच्चे राजीव और संजय भी मौजूद थे। पार्दो कहते हैं, चे नेहरू से चीन और माओ के बारे में सवाल पूछते रहे और नेहरू उन (गंभीर) सवालों को नितांत अनसुना करते हुए मेज पर सजे पकवानों-फलों की बात करते रहे। चे गेवारा ने प्रधानमंत्री नेहरू को क्यूबा के सिगार का डिब्बा भेंट किया। धूम्रपान के शौकीन नेहरू के चेहरे पर फैली मुस्कान तस्वीर में देखी जा सकती है। नेहरू ने लड़ाके गेवारा को कटारी भेंट की थी।
अपने भारत दौरे से लौटने के बाद चे ने एक रिपोर्ट फिदेल कास्त्रो के सुपुर्द की थी। साप्ताहिक 'वेरदे ओलिवो' के 12 अक्तूबर, 1959 के अंक में वह रिपोर्ट सार्वजनिक हुई। उसका हू-ब-हू अनुवाद इसी अंक में अन्यत्र प्रकाशित है। उसे पढ़कर कोई भी जान सकता है कि चे गेवारा ने भारत को हताशा में नहीं, तटस्थ नजरिए से देखा। यहां की सामाजिक विषमताओं के साथ प्रगति की ललक को समझने की कोशिश की। ख्याल रखें, भारत को अंग्रेजी राज से बरी हुए तब बमुश्किल बारह साल हुए थे। चे ने इस तथ्य पर गौर किया था।
अपनी तीन पृष्ठ की उस रिपोर्ट में चे 'विरोधाभासों के देश' भारत के 'औद्योगिक विकास' और 'भयानक दरिद्रता' के बीच खाई वाले 'विचित्र और जटिल परिदृश्य' के साथ विकास में आए 'असाधारण सामाजिक महत्व के' 'अभिनव परिवर्तन' लक्ष्य करते हैं। वे 'कृषि-सुधार' की तकनीकों पर ध्यान देते हैं। भारत और क्यूबा के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को 'एक-सा' करार देते हुए 'दो उद्योगशील' देशों की 'साथ-साथ' उन्नति की संभावना भी व्यक्त करते हैं। तकनीकी विकास में भारतीय वैज्ञानिकों की महारत का लोहा मानते हुए साफ कहते हैं कि 'इस यात्रा में हमें कई लाभदायक बातें सीखने को मिलीं।
सबसे महत्वपूर्ण बात हमने यह जानी कि एक देश का आर्थिक विकास उसके तकनीकी विकास पर निर्भर करता है।' लेकिन चे के भारत-दर्शन में मुझे सबसे अहम बात यह लगी कि उन्होंने बगैर झिझक, भारत की स्वतंत्रता में गांधीजी के 'सत्याग्रह' की भूमिका को पहचाना। रिपोर्ट में उनके अपने शब्द हैं: 'जनता के असंतोष के बड़े-बड़े शांतिपूर्ण प्रदर्शनों ने अंग्रेजी उपनिवेशवाद को आखिरकार उस देश को हमेशा के लिए छोडऩे को बाध्य कर दिया, जिसका शोषण वह पिछले डेढ़ सौ वर्षों से कर रहा था।'
चे का जुनून व दुनिया को बदलने की उनकी चाहत उन्हे बैचेन किए हुए थी। हांलाकि चे क्यूबा में फिदेल के सबसे विश्वसनीय व फिदेल के बाद सबसे ताकतवर नेता थे व सेना के कमांडर, राष्ट्रीय बैंक के अध्यक्ष व उद्योग मंत्रालय जैसी अहम जिम्मेदारियां उनके पास थी, फिर भी दुनिया बदलने की उनकी योजनाएं उन्हें चैन से सोने नहीं देती थीं। क्यूबा के प्रति अमेरिकी नीतियों की आलोचना करते हुए उन्होंने सोवियत ब्लॉक से सहायता लेने की ठानी जिसके लिए उन्होंने कम्युनिस्ट देशों का दौरा किया। उन्होने देश में तेज औद्योगिकरण का कार्यक्रम लागू किया जो पूरी तरह असफल रहा। इसके बाद उन्होने अपनी यात्राएं जारी रखी, 1964 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा को सम्बोधित करने के बाद अचानक क्यूबा से गायब हो गये।
अपने परिवार की जिम्मेदारियां फिदेल व क्यूबा को सौंप चे फिर अपने क्रान्ति के मिशन पर निकल पड़े। 1965 में उन्होंने अफ्रीका के देश कांगों में अपनी योजनाओं के अन्जाम देने की ठानी मगर वो असफल रहे। कांगों से लौटकर फिर उन्होने क्यूबा में कुछ सैनिक अधिकारियों को लेकर एक टुकड़ी बनायी व अपना अगला मिशन बोलिविया निर्धारित किया। दरअसल बोलिविया अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण एक महत्वपूर्ण स्थान था। चे ग्वेयरा का इरादा अमेरिकी साम्राज्यवाद की रणनीति को लेटिन अमेरिका में रोकने के लिये बोलिविया को वहां के कम्युनिस्टों के साथ मिलकर गुरिल्ला कार्यवाईयों के लिए एक प्रशिक्षण केंद्र के रूप में विकसित करने की थी।
संभवत: 1966 के अन्त या 1967 के आरम्भिक दिनों में उन्होने बोलिविया में अपने मिशन की शुरुआत की मगर उनकी योजनाओं को भांपकर सीआईए व बोलिविया की फौजों ने उनका घेराव करना शुरू किया। इसे एक बड़ी विडम्बना ही कहा जाएगा कि जिन किसानों की आजादी का बीड़ा उन्होंने बोलिविया में उठाया उन्हीं के सहयोग से बोलिवियन फौजों ने उनका घेराव किया। एक किसान की सूचना पर बोलिवियन सेना ने चे ग्वेरा को उनकी गुरिल्ला टुकड़ी के साथ 7 अक्टूबर को घेर लिया जहां से उन्हे बांधकर ला हिग्वेरा गांव के एक विद्यालय में ले जाकर कैद कर लिया गया। बोलिविया फौज व सीआईए ने उनको मारना बेहतर समझा क्योंकि वो जानते थे यदि उन पर मुकदमा चलाया गया तो चे ग्वेरा पूरी दुनिया में एक महानायक बनकर उभरेगें जो दुनिया में नई बगावतों का कारण बन सकता है। इसलिये सीआईए व बोलिवियन फौज ने उनको मारने का निर्णय लिया। 9 अक्टूबर 1967 को बोलिवियन सार्जेन्ट मारियो टेरान को बंधक बने चे ग्वेयरा को मारने का जिम्मा सौंपा गया।
मरियों टेरान को देखकर चे समझ गए कि वो किस लिए आये हैं। बंधनों में जकड़े चे से सार्जेन्ट ने पूछा कि क्या तुम अपनी अमरता की सोच रहे हो? चे ने कहा नहीं, मै क्रान्ति की अमरता के बारे में सोच रहा हूं। चे ने कहा कि मुझे मालूम है तुम किस लिए आए हो- गोली चलाओ, कायर तुम केवल एक आदमी का कत्ल कर रहे हो। उनके शव को न्यूस्त्रा सेनोरा डी माल्टा अस्पताल में लाया गया। उनकी मौत के बाद 11 अक्टूबर को वनेजुएला के विद्यार्थियों ने काराकस में जोरदार विरोध प्रदर्शन किया। उनके अनन्य मित्र फिदेल कास्त्रों को उनकी मौत पर विश्वास नहीं हुआ। आखिर में 15 अक्टूबर 1967 को उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि चे अब नहीं रहे। क्यूबा में तीन दिनों का शोक घोषित किया गया। बेशक चे इस देनिया में नहीं रहे, मगर आज भी वो दुनिया में नौजवानों के महानायक हैं। उनकी दुनिया को बदलने की चाह अटूट संघर्शशीलता व क्रान्ति के लिए उनके जनून और दुसाहसिक कारनामों ने क्रान्ति के साथ उन्हें भी अमर बना दिया है।
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