-नई कलम के लिए बैंगलोर से 'अंबरीश त्रिपाठी' की कहानी...
मेरे एक बहुत अज़ीज़ दोस्त है शुक्लाजी। उनका पहला नाम यहाँ बताना उचित ना होगा अन्यथा उनके घर मे कलह हो जाएगी। शुक्लाजी को मैं 15 सालों से जानता हूँ, पहले स्कूल फिर कॉलेज और अब एक ही शहर में नौकरी कर रहे है हम दोनों. शुक्ला जी को कॉलेज मे ही एक लड़की से प्यार हो गया था, कॉलेज की रंगीनियत में उनका प्यार सारे परवान चढ़ा और कॉलेज के अंतिम दिन आजीवन साथ रहने और उसके लिए अपने अपने घर मे बताने का निर्णय लिया गया, दोनो पार्टी की ओर से। दिक्कत बस इतनी सी थी की हमारी भाभी गुप्ता थीं और बाकी तो दुनिया जानती है यूपी में ब्रह्मण और बनिया मे शादी की बात उठाई तो घर वाले या तो रिश्ते तोड़ देंगे या बिना मर्ज़ी कहीं और ब्याह करवा देंगे।
खैर शुक्लाजी और गुप्ताजी दोनो कई सालों तक अपने घर पर वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ करते रहे। आख़िर यूपी के संस्कार थे, घर वालो को छोड़ के भी आगे नहीं बढ़ सकते थे। खैर, काफ़ी मान-मल्लौवत के बाद घर वाले शादी के लिए माने। गुप्ताजी झाँसी से थी और शुक्लाजी हमारे कानपुर से। बारात को इतना भी लंबा रास्ता तय नहीं करना पड़ा। इस बीच भाभी की नौकरी हैदराबाद में चल रही थी और शुक्ला जी की बंगलोर मे। लेकिन शादी के आस पास भाभी ने भी बंगलोर में नौकरी ढूंड ली और घर वालो के लिए रहा सहा आख़िरी किला भी फ़तेह कर लिया, कि लड़का-लड़की एक ही शहर में हैं, इतने सालों से जानते हैं एक दूसरे को, प्यार मोहब्बत से रहेंगे।
2013 मे शुक्लाजी की शादी हुई और सारे कॉलेज के दोस्त यार खुशी से कानपूरिया बारात मे शरीक़ हुए। उसके बाद शुक्लाजी हनिमून पे मनाली भी हो आये। चूँकि मैं भी बंगलोर में ही काम कर रहा था और दोनो को कॉलेज के दिनों से जानता था, तो मेरा शुक्लाजी के घर काफ़ी आना जाना रहता है, लेकिन पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूँ कि शुक्लाजी थोड़े परेशन रहते हैं। परेशानी की वजह जाननी चाही, तो उन्होने एक दिन बाहर एक अड्डे में बैठ कर दारू पीने का प्लान बनाया और फिर थोड़े दिल के अरमान बाहर निकले। घर पे भाभी के सामने बोल नहीं पा रहे थे और दारू एक ऐसी चीज़ हो चली है, कि अक्सर अंदर का ज़हर निकालने के लिए अब इस ज़हर को पीना लोग ज़रूरी समझने लगे हैं। खैर, शुक्लाजी ने अपना दुखड़ा सुनाया की शादी के बादरेमंड दी कंप्लीट मैन वाली जिंदगी उनसे जी नहीं जा रही है, टाइम पे सोना, टाइम पे उठना, हर चीज़ का ख़याल रखना, शॉर्ट में सभ्य आदमी की तरह रहना उनसे हो नहीं पा रहा था।
उन्होंने मुझसे कहा, "यार त्रिपाठी! हम तो पहले ही अच्छे थे। जानवरों की तरह टाँग उठा के सोते थे। जब जी चाहे नहाते थे। जब जी चाहे चाय सुत्टा मार लेते थे और दारू तो अपनी हर वीकेंड की तय होती थी। शादी के बाद साला ये चौबीस घंटे की कंट्रोल्ड लाइफ हमसे जी नहीं जा रही है और इन सबके बीच सबसे अजीब बात तो ये है, कि देविका (हमारी भाभी जी का काल्पनिक नाम) जिस लड़की के लिए हमने इतने सालों तक घर वालो से लड़ाई लड़ी, उससे भी मन हट सा रहा है। "
मैंने शुक्लाजी की बात को घुमाने की कोशिश की। यार तुम दारू पी के कुछ भी बकवास कर रहे हो। काम का प्रेशर ज़्यादा है क्या?
लेकिन शुक्लाजी तो आज पूरा दर्द निकाल देना चाहता था। शायद कई दिनो बाद घर से बाहर निकल पाये थे। उसकी बातों में वो सच दिख रहा था, जो मैं भी स्वीकार नहीं करना चाहता था। देविका मेरी भी काफ़ी अच्छी दोस्त थी और मुझे दोनों के लिए ही बुरा लग रहा था। उस दिन तो मैने शुक्लाजी को किसी तरह समझा बुझा कर घर भेजा और उसके बाद कई दिनो तक उनसे इस बारे में कोई बात नहीं की। मुझे लगा कि उस दिन शराब पी कर बकवास कर रहे थे और सब ठीक हो गया है। दो महीने बाद हम लोगों ने फिर से मधुशाला की सभा लगाई, इस बार तो शुक्लाजी ने कहानी को अलग ही मोड़ दे दिया था। उनके ऑफिस में कोई शीना (एक और काल्पनिक नाम) नाम की मुस्लिम लड़की थी और जनाब उसके काफ़ी करीब आ गये थे।
शीना की बात सुनते ही मैंने शुक्लाजी को एक तमाचा रसीद दिया पर शुक्लाजी पर कोई असर नहीं पड़ा। लोग सही कहते हैं, इंसान प्यार मे अँधा हो जाता है। यही बात मैंने शुक्ला जी को बोली, कि "प्यार मे +पाग++ला गये हो क्या?" शुक्लाजी ने बड़ा अचंभित करने वाला उत्तर दिया। बोले, यार! प्यार ना बोलो, इश्क़ है।
मैंने कहा, क्या बेवकूफी की बात करते हो, प्यार कहो, इश्क़ कहो या तुम्हारा पागलपन कहो। मेरी बला से। है तो ग़लत ही।
इस पर भी शुक्लाजी से एक दार्शनिक वाला प्रत्युत्तर रख दिया, प्यार टेंपररी होता है, जो मुझे देविका से है (शुक्र है था नहीं बोला), वो प्यार कई सालों तक मेरा पागलपन था, मैं उसके लिए अपने घर वालो से लड़ा। वो अपने घर वालों से लड़ी। वहाँ हम दोनों बस अपने आप को सही साबित करने में लगे हुए थे। घर वालों के हर टोटके का अपने लॉजिक से जवाब दे कर शादी के रूप पर सफलता भी पा ली थी, लेकिन अभी मुझे समझ आया, कि वो सब कुछ पाने, मसलन शादी करने के लिए सारे जतन थे। लेकिन इश्क़, इश्क़ परमानेंट होता है दोस्त। इसकी अपनी हवा है। शीना से ना मैं कुछ पूछता हूँ ना उसे कोई जवाब चाहिए। ना मैं सवाल करता हूँ, ना वो कुछ जानना चाहती है। हम दोनों एक दूसरे को बस पूरा करते है, यही इश्क़ है, हमारा कोई लक्ष्या नहीं, हमारा कोई टारगेट नहीं।
मैंने जब शुक्लाजी को समझाया कि ये सब तुम्हारे इश्क़ की जो पहली स्टेज है, वैसा ही प्यार है जो तुमने कभी देविका के लिए महसूस किया था और कॉलेज में मुझे ऐसा ही कुछ सुनाया था। बस मिसाल अलग दी थी। इस पर शुक्लाजी ने इतना ही कहा, यार तुम नहीं समझोगे। जब कभी प्यार कर के बोर हो जाना तब इश्क़ कर के देखना, जिंदगी फिर से हसीन लगने लगेगी। उससे बहस करने का कोई तुक नहीं था, इसलिए मैंने बिना कुछ सोचे उसे घर रवाना किया और अपनी डाइयरी मे नोट कर लिया, "टेंपररी प्यार और पर्मानेंट इश्क़...!"