हिंदी दिवस पर हिंदी मीडियम से पढ़कर यूपीएससी टॉप करने वाले IAS निशांत जैन की कहानी
हिंदी दिवस पर विशेष...
आज हिंदी दिवस है और हर वर्ष इस मौके पर देशभर में न जाने कितने कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। लगभग हर कार्यक्रमों में इसी विषय पर बात की जाती है कि हिंदी की इतनी उपेक्षा क्यों होती है या फिर आज हर कोई अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम में ही क्यों पढ़ाना चाहता है। लेकिन हम आज आपको हिंदी की नाकामी नहीं बल्कि सफलता की कहानी सुनाएंगे। इस बार हिंदी दिवस के मौके पर आपको एक ऐसी शख्सियत से रूबरू कराने जा रहे हैं जिसकी सफलता में हिंदी का बड़ा हाथ रहा। यूपीएससी की 2015 की परीक्षा में हिंदी माध्यम से तैयारी करने वाले निशांत जैन ने 13वीं रैंक हासिल की थी। बीते कुछ सालों से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में यह सर्वश्रेष्ठ परिणाम था। निशांत के सफल होने से न जाने कितने युवाओं को प्रेरणा मिली। उनकी सफलता और संघर्ष की कहानी में युवा अपना अक्स देखते हैं। खासकर वे जिनकी परवरिश मध्यम वर्गीय परिवार के अभावों में हुई है।
निशांत कॉलेज के दौरान अपना खर्च चलाने के लिए किताबों की प्रूफ रीडिंग, क्रिएटिव राइटिंग जैसे पार्ट टाइम काम भी करते रहे। इन्हीं जरूरतों के चलते उन्होंने कुछ समय तक डाक विभाग में असिस्टेंट की नौकरी भी की।
'जब आप किसी चीज को शिद्दत से हासिल करना चाहते हैं और समय-समय पर मिलने वाले संकेतों को फ़ॉलो करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं, तो पूरी कायनात आपकी मदद करने में जुट जाती है।' पाओलो कोएलो की मशहूर किताब 'अलकेमिस्ट' का यह संदेश निशांत जैन की संघर्ष यात्रा और सफलता की अनकही कहानी पर बख़ूबी फ़िट बैठता है। उत्तर प्रदेश के मेरठ के पुराने शहरी इलाक़े के एक मोहल्ले से निकलकर आईएएस बनने का सफर तय करने वाले निशांत कहते हैं कि उन्हें अभी भी ये सब कभी-कभी सपना-सा ही लगता है।
निशांत का जन्म मेरठ के एक साधारण परिवार में हुआ। वे अपने तीन भाई-बहनों में मंझले थे। निशांत बताते हैं कि उनके दादा जी बेहद सरल और ईमानदार आदमी थे और कचहरी में पेशकार की नौकरी करते थे। वे पैदल ही ऑफिस जाते थे और उन्हें हिन्दी-अंग्रेज़ी-उर्दू तीनों भाषाओं की अच्छी जानकारी थी। अपने दादा जी से निशांत काफी प्रभावित रहे। लेकिन उनके पिता एक प्राइवेट नौकरी करते थे और जितना मिलता उसी में संतुष्ट रहते। वहीं उनकी मां ग्रैजुएट थीं। कुल मिलाकर एक साधारण से मध्यमवर्गीय परिवार में निशांत जरूर पले-बढ़े लेकिन माँ की वजह से घर में पढ़ाई-लिखाई पर काफी जोर था।
आईएएस बनने के पीछे हर युवा की अपनी कोई न कोई कहानी होती है जब कोई लम्हा किसी के भीतर कुछ करने और कुछ बनने की चिंगारी जला देता है। निशांत की भी अपनी एक कहानी है। यह तब की बात है जब निशांत आठवीं या नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। वे घर का राशन लेने के लिए सरकारी पीडीएस की दुकान पर जाते थे। लेकिन वहां वे देखते थे कि दुकानदार गायब ही रहता। लोगों के मुंह से उसकी हेराफेरी के किस्से भी सुनाई देते थे। दुकानदार के इस रवैये से मायूस जब निशांत अपने राशन कार्ड को देखते तो उन्हें उस पर लिखा होता था, 'खाद्य और रसद अधिकारी।' उस वक्त निशांत की उम्र काफी कम थी, लेकिन फिर भी वे सोचते कि अगर मैं ये अधिकारी बन जाऊं तो सिस्टम की कितनी समस्याएं और अनियमितताएं दूर कर सकता हूं।
इस ख्याल को उन्होंने अपने घरवालों को बताया, उनकी उम्र काफी कम थी तो उनकी बात को गंभीरता से लेने का सवाल ही नहीं था सो ये बात आई-गयी हो गई। उस वक्त मेरठ के डीएम अवनीश अवस्थी हुआ करते थे। उनके द्वारा किए जाने वाले अच्छे कामों के बारे में जब निशांत अखबार में पढ़ते तो उनका भी मन अधिकारी बनने को करता। उन्होंने यह बात अपने बड़े भाई प्रशांत को बताई तो उनके भाई ने उन्हें यूपीएससी की परीक्षा के बारे में जानकारी दी और यह भी बताया कि यह कितनी कठिन परीक्षा होती है। चूंकि निशांत पढ़ने में अच्छे थे और डिबेट-निबंध-क्विज़-काव्यपाठ जैसी गतिविधियों में भी हिस्सा लेते रहते थे इसलिए उनके भाई ने कहा कि उन्हें आगे चलकर इसके लिए प्रयास करना चाहिए।
खैर, निशांत उस वक्त एक सरकारी इंटर कॉलेज से कॉमर्स स्ट्रीम से बारहवीं की पढ़ाई कर रहे थे। पढ़ने में अव्वल होने का नतीजा भी उन्हें मिला और जिले में उन्होंने सबसे ज्यादा नंबर मिले। वैसे तो निशांत को साइंस और कॉमर्स दोनों स्ट्रीम की पढ़ाई अच्छी लगती थी, लेकिन उनका मन ह्यूमैनिटीज के विषयों में लगता था। उन्हें साहित्य पढ़ने में काफी मजा आता था। 12वीं पास करते-करते उनके मन में आईएएस बनने की इच्छा प्रबल हो चुकी थी। तभी तो जहां उनके सारे दोस्त सीए जैसी परीक्षा की तैयारी में लग रहे थे वहीं निशांत ने बीए करने का फैसला कर लिया। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी इसलिए उन्होंने दिल्ली या इलाहाबाद यूनिवर्सिटी जाने के बजाय मेरठ कॉलेज में ही एडमिशन ले लिया।
निशांत ने इतिहास, राजनीति विज्ञान और अंग्रेजी साहित्य विषयों के साथ ग्रैजुएशन किया। कॉलेज के दिनों में वे पढ़ाई के साथ-साथ निबंध, कविता पाठ, वाद विवाद जैसी प्रतियोगिताओं में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते और अधिकतर प्रथम पुरस्कार जीत कर लाते। कॉलेज में वे एनसीसी और एनएसएस जैसे संगठनों का भी हिस्सा रहे। साहित्य और लेखन में रुचि होने के कारण उन्होंने मेरठ कॉलेज की वार्षिक पत्रिका 'अभिव्यक्ति' में संपादक की भूमिका निभाई।
निशांत अपने कॉलेज के दिनों को याद करते हुए कहते हैं, 'मेरठ कॉलेज के शिक्षकों को मैं कभी नहीं भूलता। विशेषकर तत्कालीन प्राचार्य डॉ एस के अग्रवाल और हिंदी विभाग के शिक्षक डॉ रामयज्ञ मौर्य। ग्रेजुएशन में हालाँकि हिन्दी, संस्कृत, उर्दू और दर्शनशास्त्र मेरे विषय नहीं थे, पर इन विषयों में मेरी रूचि के चलते मेरा इन विभागों में आना-जाना ख़ूब रहता। प्रिन्सिपल सर जैसे कर्मठ और सहृदय व्यक्ति आसानी से नहीं मिलते। सकारात्मक मोटिवेशन देना तो कोई उनसे सीखे। जब मैं और मेरा साथी डिबेट में पहला पुरस्कार और शील्ड जीतकर लौटे, तो पूरे स्टाफ को अपनी जेब से जलेबी खिलाकर प्रिन्सिपल साहब ने हमारा उत्साह कई गुना बढ़ा दिया था।'
कॉलेज खत्म हो गया था और अब आगे की रणनीति बनानी थी। निशांत अपने आईएएस बनने के सपने को पूरा करना चाहते थे, लेकिन आर्थिक समस्याएं उनकी राह में बाधा बन रही थीं। कॉलेज के दौरान वे अपना खर्च चलाने के लिए किताबों की प्रूफ रीडिंग, क्रिएटिव राइटिंग जैसे पार्ट टाइम काम भी करते रहे। इन्हीं जरूरतों के चलते उन्होंने कुछ समय तक डाक विभाग में असिस्टेंट की नौकरी भी की। इस नौकरी की वजह से उन्हें अपना पोस्ट ग्रैजुएशन प्राइवेट करना पड़ा। लेकिन डाक विभाग की छोटी सी नौकरी ने निशांत को काफी कुछ सिखाया। उन्हें यह समझ आ गया था कि अगर कुछ बड़ा करना है तो रिस्क लेना ही पड़ेगा।
उन दिनों का एक यादगार किस्सा साझा करते हुए निशांत बताते हैं, 'मेरे एक सहृदय सीनियर थे। वह अक्सर मेरा हाल-चाल पूछते और मोटिवेट करते। एक बार उन्होंने मुझसे कहा कि किसी बिजली के बल्ब को अगर एक कमरे में ज़मीन के पास लाकर लटका दिया जाए, तो वह कितनी रोशनी देगा और यदि उसी बल्ब को ऊपर दीवार पर लटकाया जाए, तब वह कितनी रोशनी देगा। दरअसल उनका संकेत स्पष्ट था, यदि तुममें उच्च स्तर पर जाकर योगदान करने की क्षमता है, तो तुम्हें निश्चय ही इसके लिए प्रयास करना चाहिए।' यह बात निशांत के लिए टर्निंट पॉइंट साबित हुई। उन्होंने यूजीसी नेट-जेआरएफ परीक्षा की तैयारी शुरू की और पहले प्रयास में सौभाग्य से सफलता भी प्राप्त कर ली।
अब निशांत को आगे की राह दिखने लगी थी। उन्होंने एम.फिल करने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी और जेएनयू की प्रवेश परीक्षा दी। दोनों जगह उनका चयन हो गया। लेकिन उन्होंने डीयू को इसलिए चुना क्योंकि लोगों ने उन्हें बताया कि डीयू कैंपस के पास में ही मुखर्जी नगर है, जो कि सिविल सेवा की तैयारी के लिए जाना जाता है। निशांत ने डीयू में एडमिशन ले लिया और अपने सपनों को सच करने की उम्मीद लिए आख़िरकार दिल्ली पहुँच ही गये। ये पहली बार हुआ था जब निशांत अपने परिवार से दूर हुए थे। हालांकि मेरठ और दिल्ली की दूरी ज्यादा नहीं है, लेकिन होमसिक और नॉस्टैल्जिक प्रवृत्ति होने की वजह से निशांत को थोड़ी असहजता हुई। उस वक्त उन्होंने अपनी मां को याद करते हुए एक कविता लिखी थी- 'एक पैग़ाम माँ के नाम'।
"भावों की तू अजब पिटारी, अरमानों का तू सागर,
नाज़ुक से अहसासों की एक, नर्म-मुलायम सी चादर।
खट्टी-मीठी फटकारें और कभी पलटकर वही दुलार,
जीवन का हर पल तुझमें माँ, तुझसे है सारा संसार।
जिसकी खातिर सब कुछ वारा,अपनी खुशियाँ जानी ना,
वक़्त कहाँ उस पर अब माँ, तेरे दुःख-दर्द चुराने का।
उम्मीदों को पंख लगाने, बड़े शहर को निकला जब,
छुपी रुलाई देखी तेरी, प्यार का तब समझा मतलब।
मिट्टी की तू सोंधी खुशबू, सम्बन्धों की नर्म नमी,
नए शहर में हर मुकाम पर, बस तेरी ही खली कमी।
हैरत है हर चेहरे पर थे, कई मुखौटे और नकाब,
तुझसा भी क्या कोई होगा,चलती-फिरती खुली किताब।
रिश्तों की गर्माहट तुझसे, तुझसे प्यार भरा अहसास,
ले भरपूर दुआयें अपनी, हरदम थी तू मेरे पास।
किसने कहा फरिश्तों के जग में दीदार नहीं होते,
माँ की गोद में एक झपकी, सपने साकार सभी होते।"
निशांत कहते हैं, 'डीयू में डेढ़ साल की अवधि में मुझे लगता है कि मैंने बहुत कुछ सीखा। दिल्ली विश्वविद्यालय के अकादमिक माहौल और हिन्दी विभाग के शिक्षकों से जीवन और सोच के आयामों का विस्तार करने की सीख मिलती। साहित्य-आलोचना जगत के बड़े-बड़े दिग्गजों का सान्निध्य मिलना भावभूमि, चेतना और संवेदना का विस्तार करता है।' एम.फिल खत्म करने के बाद ही उन्होंने यूपीएसससी का फॉर्म भर दिया और प्रारंभिक परीक्षा भी दे डाली। साथ-साथ उन्होंने अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश की प्रारंभिक परीक्षा भी दी। तैयारी ठीक-ठाक हो गई थी और हौसला भी था इसलिए उन्हें लगता था कि सफलता मिल जाएगी। अब तक निशांत जीवन की हर अकादमिक और प्रतियोगी परीक्षाओं में पास होते आए थे, यही वजह थी कि उनके भीतर गजब का आत्मविश्वास था।
लेकिन जब प्रारंभिक परीक्षा का परिणाम आया तो उनका यह आत्मविश्वास टूट सा गया। उन्हें दोनों ही परीक्षाओं में असफलता मिली। जिंदगी में पहली बार निशांत को असफलता का सामना करना पड़ा। वे बताते हैं, 'एक बार को तो ऐसा लगा जैसे सब टूट सा गया। हिम्मत टूट रही थी और मन अवसाद से ग्रस्त होने लगा था। शायद मैं अपनी असफलता को सम्भाल नहीं पा रहा था। यह मेरी यात्रा का बेहद कठिन दौर था। कंफ्यूजन बढ़ रहा था और अपने करियर को डावाँडोल सा महसूस कर रहा था।' असफलता का स्वाद चखकर बैठे निशांत के भीतर काफी कुछ उमड़-घुमड़ रहा था जिसे उन्होंने अपने शब्दों का रूप दिया:
मैं शहर हूं....
मुस्कानों का बोझा ढोए,
धुन में अपनी खोए-खोए
ढूंढता कुछ पहर हूं।
मैं शहर हूं।
बेमुरव्वत भीड़ में,
परछाइयों की निगहबानी,
भागता-सा हांफता-सा
शाम कब हूं, कब सहर हूं,
मैं शहर हूं।
सपनों के बाजारों में क्या,
खूब सजीं कृत्रिम मुस्कानें,
आंखों में आंखें, बातों में बातें,
खट्टी-मीठी तानें,
नजदीकी में एक फासला,
मन-मन में ही घुला जहर हूं।
मैं शहर हूं।
मन के नाजुक से मौसम में,
भारी-भरकम बोझ उठाए,
कागज की किश्ती से शायद,
हुआ है अरसा साथ निभाए,
खुद के अहसासों पर तारी,
हूं सुकूं या फिर कहर हूं।
मैं शहर हूं।"
प्रारंभिक परीक्षा में असफल होने के बाद जब निशांत को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था तो उनके परिवार और बड़े भाई प्रशांत ने उन्हें भावनात्मक सम्बल दिया और साथ ही विश्वास भी जताया। वे कहते हैं कि परिवार और शुभचिंतक मुझ पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करते थे। इसी बीच असफलता से निराश बैठे निशांत को एक अच्छी खबर सुनने को मिली। दरअसल उन्होंने तैयारी के दौरान ही लोकसभा सचिवालय में अनुवादक पद की परीक्षा दी थी जिसका परिणाम आ गया था और उनका सेलेक्शन हो गया। उन्होंने एम.फिल. का लघु शोध प्रबंध जमा करने के बाद तुरंत नौकरी जॉइन कर ली।
आर्थिक हालात और कैरियर की उलझन से जूझते हुए निशांत को अब एक सहारा मिल गया था। इस नौकरी से उन्हें आत्मविश्वास तो मिला ही साथ ही करियर को लेकर एक तरह की बेफिक्री भी मिली। अब निशांत को लगने लगा कि वे नौकरी के साथ-साथ यूपीएससी की तैयारी और बेहतर ढंग से कर सकेंगे। उन्होंने अपनी तैयारी आरंभ कर दी और 2014 में यूपीएससी और यूपीपीसीएस दोनों की प्रारम्भिक परीक्षाएं फिर से दी। इस बार उनकी मेहनत रंग लाई और आईएएस व पीसीएस दोनों की प्रीलिम्स परीक्षा उत्तीर्ण हो गयी।
लेकिन अब दिक्कत ये थी कि यूपीएससी और पीसीएस दोनों की मुख्य परीक्षाएं सिर्फ एक माह के अंतराल पर थीं। पर निशांत किसी भी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने एक माह के अंतराल पर होने के बावजूद संघ व राज्य लोक सेवा आयोग, दोनों की मुख्य परीक्षाएँ दीं। हालांकि बहुत कम लोगों को पता था कि वे दोनों मुख्य परीक्षाएं लिख रहे हैं। खैर निशांत अपने फैसले से संतुष्ट थे। वे बताते हैं, 'मेरी संतुष्टि की वजह ये थी कि मैंने अपने तीन मार्गदर्शक सिद्धांतों - निष्काम कर्मयोग (गीता), अनेकांतवाद (जैन दर्शन) और मध्यम मार्ग (बौद्ध दर्शन) का अनुसरण किया था। इससे मुझे तनावमुक्त होकर पूरे मनोयोग से परीक्षा देने का बल मिला।'
एक बार की असफलता ने निशांत को काफी कुछ सिखा दिया था। इसीलिए उन्होंने अपनी तैयारी में कोई कमी नहीं छोड़ी। इसका फल भी उन्हें मिला और यूपीएससी के मुख्य परीक्षा के परिणाम में उन्हें सफलता मिली। यूपीएससी की ओर से इंटरव्यू के लिए उन्हें बुलाया गया। वे बताते हैं, 'प्रोफ़ेसर एचसी गुप्ता के बोर्ड में क़रीब पैंतीस मिनट मेरा इंटरव्यू चला। इंटरव्यू के दौरान और उसके बाद भी मेरा मन शांत और सहज था।' इंटरव्यू भी अच्छा हुआ, लेकिन अभी यूपी पीसीएस का मेन्स का परिणाम नहीं आया था और निशांत बैठना नहीं चाहते थे इसलिए वे लगातार परीक्षाएं देते रहे। उन्होंने 2015 की पीसीएस परीक्षा का प्रीलिम्स भी दे दिया था। उसमें भी वे क्वॉलिफाई हो गए थे और अब वे हर रोज रिजल्ट्स का इंतजार करते।
निशांत उन लम्हों को याद करते हुए बताते हैं, 'अंतिम रूप से चयन के इतने करीब होना एक अलग ही अहसास देता है। कभी कभी बड़ी घबराहट होती कि अगर अंतिम रूप से चयन नहीं हुआ तो? या क्या सचमुच एक दिन में मेरी ज़िंदगी बदल जाएगी? ऐसे तमाम सवाल और ऊहापोह मन को मथते रहते थे। पर मैं अक्सर अपने मन को ऐसे समझाता कि पिछले प्रयास में तो प्रीलिम्स परीक्षा ही उत्तीर्ण नहीं हुई थी, इस बार तो इंटरव्यू तक पहुँचा, यही क्या कम है? और फिर अपने पास एक सम्मानजनक नौकरी तो है ही।'
2015 की तीन जुलाई की गर्म दोपहर की बात है। निशांत यूपी पीसीएस की मुख्य परीक्षा देने इलाहाबाद गए थे। हालाँकि इस बीच उन्हें पिछले साल की पीसीएस की परीक्षा की इंटरव्यू कॉल आ चुकी थी। खैर, जब वे इलाहाबाद से परीक्षा देकर दिल्ली लौटे तो उन्हें पता चला कि 4 जुलाई यानी एक दिन बाद ही यूपीएससी के सिविल सर्विस एग्जाम का अंतिम परिणाम आ रहा है। यह शनिवार का दिन था और उस दिन उनके ऑफिस में छुट्टी थी। इसीलिए उन्होंने सोचा कि वे मेरठ में घर पर जाकर ही परिणाम देखेंगे।
4 जुलाई की सुबह निशांत आनंद विहार बस अड्डे से मेरठ की बस पकड़कर घर पहुंच गए। दोपहर में मालूम हुआ कि कुछ देर में ही रिज़ल्ट आने की सम्भावना है। निशांत के घर वाले भी बेसब्री से रिजल्ट का इंतजार कर रहे थे। दोपहर लगभग 1 बजे निशान्त को फोन पर मालूम हुआ कि उनका चयन हो गया है। इस परीक्षा में उन्हें 13वीं रैंक मिली थी और हिंदी माध्यम में पहला स्थान। लंबे अरसे के बाद हिंदी माध्यम का कोई अभ्यर्थी इतनी अच्छी रैंक लेकर आया था। इसके बाद की बातें तो अब इतिहास हैं।
बाद में जब यूपीएससी ने अंकतालिका जारी की तो पता चला कि निशांत को मुख्य परीक्षा में तीसरे सर्वाधिक अंक (851 अंक) प्राप्त हुए थे। साथ ही निबंध में 160 और वैकल्पिक विषय (हिन्दी साहित्य) में 313 अंक मिले, जो इनमें तब तक के सर्वाधिक अंक थे। एथिक्स के पेपर में भी 124 अंक मिले और सामान्य अध्ययन में कुल मिलाकर 378 अंक। कुल मिलाकर अंक थे 1001 जो निशांत के लिए किसी शुभ शगुन से कम नहीं थे।
सफलता हासिल करने के बाद निशांत अब आईएएस बन गए हैं। अपनी ट्रेनिंग पूरी कर वे इन दिनों राजस्थान के माउंट आबू में एसडीएम के पद पर पोस्टेड हैं। वे कहते हैं, 'सफलता अपने साथ बहुत सारी अपेक्षाएँ और जिम्मेदारियाँ लेकर आती है। इनमें से एक है- सफलता को सम्भालने की अपेक्षा। हममें से बहुत से साथी छोटी से सफलता से विचलित होकर अपने व्यवहार को बदल बैठते हैं और कभी कभी तो ख़ुशी से फूल कर हमारे पाँव भी ज़मीन पर नहीं पड़ते। सफलता थोड़ी परिपक्वता और समझदारी की भी माँग करती है।'
इस सफलता पर निशांत को कई जगहों पर सम्मानित किया गया पर लोक सभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन द्वारा उनके लिए आयोजित अभिनंदन समारोह की यादें उनके लिए सबसे अनमोल हैं। लोक सभा में काम करने की वजह से उन्हें सम्मानित किया जा रहा था। इस मौके पर तत्कालीन माननीय संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव प्रताप रूडी, लोक सभा महासचिव अनूप मिश्रा और सचिव डॉ डी भल्ला जैसे लोगों की गरिमामयी उपस्थिति निशांत को उनकी सफलता पर गौरवान्वित कर रही थी।
यह सम्मान दरअसल सिर्फ निशांत का सम्मान नहीं था बल्कि यह एक साधारण पृष्ठभूमि और हिंदी मीडियम से पढ़कर निकले एक अभ्यर्थी की उपलब्धि का सम्मान था और साधारण पृष्ठभूमि के संघर्षों से निकलकर, कई तरह के पिछड़ेपन का सामना करके आगे बढ़ने वाले हिंदी व भारतीय भाषाओं के छात्रों का भी सम्मान था। निशांत आज जब अपने संघर्ष की इन सुनहरी यादों की तरफ मुड़कर देखते हैं तो उन्हें लगता है कि काफी कुछ बदल गया है पर काफी कुछ अभी भी वैसा ही है। वे कहते हैं, 'बदला ये कि अब बार-बार कोई नौकरी का फ़ॉर्म नहीं भरना पड़ेगा, घर वाले भी करियर को लेकर निश्चिन्त हो गए और स्वाभाविक तौर पर सामाजिक इज़्ज़त में भी कुछ बढ़ोतरी हुई; पर बहुत कुछ ऐसा भी है जो बिलकुल नहीं बदला और इच्छा है कि कभी न बदले- 'आगे बढ़ने और कुछ अच्छा करते रहने की इच्छा, निरंतर प्रगतिशील रहने और काम करते रहने का जज़्बा और नयी चुनौतियों से जूझने की पुरज़ोर कोशिश।'
निशांत कहते हैं, ' मुझे तीन कारणों ने यूपीएससी में उच्च रैंक दिलायी- एक तो मेरा अब तक का संचित ज्ञान और अनुभव (accumulated knowledge and experience), दूसरा मेरा लेखन कौशल (writing skill) और तीसरा मेरा व्यापक, समग्र और संतुलित दृष्टिकोण (comprehensive and Balanced view)। साथ ही मुझे यह भी लगता है कि मेरी हर नौकरी, हर शिक्षण संस्था, हर शिक्षक और हर साथी ने मुझे कुछ-न-कुछ ही नहीं, बहुत कुछ सिखाया। मेरे दोस्तों का कहना था कि 'मेरी तैयारी ख़ामोश थी पर सफलता ने शोर मचाया।' सचमुच, 'सफलता मंज़िल नहीं, बल्कि अपने-आप में एक नए सफ़र की शुरुआत है।' एक शायर ने लिखा भी है -
"मंज़िल मिले न मिले, मुझे उसका ग़म नहीं,
मंज़िल की जुस्तज़ू में, मेरा कारवाँ तो है।"
निशांत का भी यही कहना है कि जहाँ भी जैसे भी रहें, जो कुछ भी करें, ख़ुश रहकर करें, व्यस्त रहें और मस्त रहें। निराशा की बातें करने वालों की बातें सुन-सुन कर हताश न हों। शिक्षा, युवाओं से संवाद और भाषा-संस्कृति में खास रुचि रखने वाले निशान्त आज भी अपने पद पर काम करते हुए वक़्त निकालकर स्कूल-कॉलेज, ट्राइबल हॉस्टल जाना और छात्र-छात्राओं से बतियाना नहीं भूलते।
लिखने का ज़बरदस्त शौक़ रखने वाले निशान्त आज तीन किताबों; ‘मुझे बनना है UPSC टॉपर’, ‘राजभाषा के रूप में हिंदी’ (उनके एम.फ़िल. शोध पर बेस्ड) और ‘शादी बंदर मामा की’ (बाल कविता संकलन) के लेखक भी हैं।
छात्र-छात्राओं से संवाद के वक़्त निशान्त उन्हें वह हिंदी ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार की चार पंक्तियाँ ज़रूर सुनाते हैं, जो उनकी इस फ़िल्मी से लगने वाली सम्पूर्ण संघर्ष यात्रा में उनका साथ निभाती रहीं:
"इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है,
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ ए दोस्तों,
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।"
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