अपनी धुन में जिंदगी से लड़ते रहे वीरेन दा
देश के अग्रणी कवि वीरेन डंगवाल की आज (28 सितंबर) पुण्यतिथि है। आज ही के दिन वह कैंसर से दो-दो हाथ करते हुए इस दुनिया से कूच कर गए थे। आखिरी क्षण तक उन्होंने शब्दों का साथ नहीं छोड़ा, न शब्दों ने दुनिया को उन पर कभी हावी होने दिया।
वीरेन दा की कविताओं में भी वैसी ही सादगी, जीवन को संपूर्णता में पकड़ने की बेचैनी, एक सुचिंतित थिर किस्म का आशावाद और भारतीय समाज की विडंबनाओं को पचाकर भविष्य की ओर देखने का जज़्बा है जिनकी गूंज बहुत लंबे समय तक बनी रहेगी।
जीवन वह जितने तल्लीन कविताओं में रहे, उतने ही कहानियों में और अपने आसपास की आम आदमी की जिंदगी में। वह ऐसे कवि थे, जिन्होंने जिंदगी को उसकी पूरी लय के साथ जिया।
देश के अग्रणी कवि वीरेन डंगवाल की आज (28 सितंबर) पुण्यतिथि है। आज ही के दिन वह कैंसर से दो-दो हाथ करते हुए इस दुनिया से कूच कर गए थे। आखिरी क्षण तक उन्होंने शब्दों का साथ नहीं छोड़ा, न शब्दों ने दुनिया को उन पर कभी हावी होने दिया। वीरेन दा की कविताएं कुदरत के रहस्यों और विरोधाभासों पर चौकन्ना करने वाले सच की तरह बिछी हुई हैं। उनकी रचनाओं में आज की जिंदगी का हाल एक अपूर्व अंदाजे बयां के साथ है। साहित्य अकादमी, रघुवीर सहाय पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, शमशेर सम्मान आदि से पुरस्कृत वीरेन दा देश आजाद होने के वर्ष 5 अगस्त 147 में वह टिहरी में पैदा हुए थे। आजीवन वह जितने तल्लीन कविताओं में रहे, उतने ही कहानियों में और अपने आसपास की आम आदमी की जिंदगी में। वह ऐसे कवि थे, जिन्होंने जिंदगी को उसकी पूरी लय के साथ जिया। उनकी एक बहुत चर्चित कविता है, 'राम सिंह', जिसमें वह आम आदमी के साथ जुड़े जिंदगी के सवाल कितने गहरे, कितनी तल्खी, कैसे भोगे हुए याथार्थ की तरह उठाते हैं, जिनके शब्द किसी के भी अपने हो सकते हैं,
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह ?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उंगली हो ?
किसका उठा हुआ हाथ ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना ?
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार ?
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढते रहते हैं ?
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं ।
एक वाकई सशक्त कवि के रूप में वीरेन दा के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए; इसी दुनिया में, दुष्चक्र में सृष्टा और अंत में स्याही ताल। बीमारी के दिनों में भी उनका सृजन कर्म जारी रहा और उनकी कई कविताएं प्रकाशित भी हुई। दिल्ली में जब भी संभव हुआ, वह धरना-प्रदर्शन, कविता पाठ, सांस्कृतिक आयोजनों में शामिल होते रहे और अपनी धीमी ही सही लेकिन मजबूत आवाज़ में साहित्य की दुनिया में अपना योगदान देते रहे। उनका फक्कड़ स्वभाव उनकी रचनाओं में भी साफ झलकता रहा। उन्होंने कुछ बेहद दुर्लभ अनुवाद भी किए, जिसमें पाब्लो नेरूदा, बर्तोल्त ब्रेख्त, वास्को पोपा और नाज़िम हिकमत की रचनाओं के तर्जुमे खासे चर्चित हुए। उनकी कविताएं कई भाषाओं में अनूदित हुईं। उन्होंने शमशेर बहादुर सिंह, चंद्रकांत देवताले के सुपठनीय संस्मरण भी लिखे। वह दुश्मनों के बारे में ही नहीं दोस्तों के बारे में भी कभी बेबाक, बेलाग बोल बोलने से नहीं चूके -
इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?
इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना
इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना
ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो।
लेखक-पत्रकार अनिल यादव मीडिया से उनके साथ गुजरे मृत्युपूर्व के कुछ घंटे साझा करते हुए अपना अनुभव कुछ इस तरह साझा करते हैं- 'चार सितंबर को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में उनका अभिनंदन था लेकिन उनसे वह आख़िरी मुलाकात उनके सदा के प्रखर इंट्यूशन और नए निरासक्त भाव को पहचानने का मौका थी। कैंसर तो हद से आगे जा ही चुका था पर वे जान भी गए थे कि कितने डग बाद मृत्यु उन तक आ पहुंचेगी इसीलिए उन्होंने अपने घर बरेली लौटने का फैसला किया था। मैं थोड़ी देर पहले पोलैंड के क्रॉकोव शहर से कोई नौ घंटे की हवाई यात्रा के बाद पहुंचा था, सोने के बजाय उनसे मिलने चला गया, खींचकर गले लगाने के अगले क्षण उन्होंने ठहरी हुई आवाज़ में कहा, तुम न भी आते तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं धक रह गया कि कवि ने ठंडे दिमाग से चलने की तैयारी कर ली है।
ये वही डॉ. डैंग थे कि पहाड़ की तरफ जाओ तो न जाने कैसे उन्हें लगभग हर बार पता चल जाता था। फोन आ जाता था, बेट्टा खूब मज़े कर रहे हो, मैंने तुम्हें सपने में देखा था। ज़िंदगी पटरी पर ले आए। उनके अमर उजाला, कानपुर के संपादक बनने के बाद 90 के दशक के आखिरी सालों में उनसे मेरी पहली मुलाकात सड़क किनारे हुई थी। उस साल नौकरी छोड़ने के बाद हम कुछ मोहभंग के शिकार, नकार से भरे, अराजक समझे जाने वाले युवाओं ने एक ग्रुप बना लिया था जो लखनऊ के पॉयनियर चौराहे पर एक पेड़ के नीचे भोर तक शराब पीते हुए उत्पात, लनतरानी और गहन चिंतन करते थे कि हम तरक्की की ओर ले जाने वाले खांचों में ठीक से बैठ क्यों नहीं पाते? उस रात वे मुझे खोजते हुए वहां आ धमके। उन्होंने मुझे हाथ पकड़कर खींचते हुए वीरेनियन अंदाज में कहा था, प्यारे, जो तुम कर रहे हो दुनिया के सर्कस में उसकी कीमत चवन्नी भी नहीं है।
वीरेन दा की कविताओं में भी वैसी ही सादगी, जीवन को संपूर्णता में पकड़ने की बेचैनी, एक सुचिंतित थिर किस्म का आशावाद और भारतीय समाज की विडंबनाओं को पचाकर भविष्य की ओर देखने का जज़्बा है जिनकी गूंज बहुत लंबे समय तक बनी रहेगी,
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूं
और गुठली जैसा
छिपा शरद का उष्म ताप
मैं हूं वसन्त में सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूंगफली को छांट कर
चबाता फ़ुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ
इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज है
एक फ़ेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप हो कर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता रहूँगा ही
हर बार भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर
एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा ।
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