‘कोकोमोको’, खिलौने से बच्चों और माता-पिता की सोच बदलने की कोशिश
कंप्यूटर इंजीनियर क्षितिज ने दोस्त के साथ तैयार किये शैक्षणिक खिलौनेफिलहाल दिल्ली, मुंबई सहित कुछ बड़े शहरों में ही उपलब्ध हैं यह खिलौनेदेशी और विदेशी खिलौनों के अंतर को मिटाने की कर रहे हैं कोशिशकई अन्य देशों को भीे निर्यात कर रहे हैं देसी खिलौने
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दुनिया का खिलौनों का सबसे बड़ा मेला लगाने वाली कंपनी Spielwarenmesse का अनुमान है कि भारत में आने वाले समय में खिलौना उद्योग लगभग 1.4 अरब डाॅलर से अधिक का होगा। भारत जैसे व्यापक और विविधता भरे बाजार में पारंपरिक और स्थानीय खिलौनों के अलावा फिशर प्राइस और प्लेस्कूल जैसे संगठित खिलाडि़यों के साथ चीनी और इटली जेसे देशों से आयातित सामान के लिये भी विस्तार की काफी गुंजाइश है।
विस्तार की इतनी संभावनाओं के बावजूद अभी भी भारत का खिलौना उद्योग असंगठित व्यवसायिक क्षेत्र है। मांग में भारी वृद्धि के बावजूद अधिकतर खिलौना निर्माता सस्ते और बिना ब्रांड के खिलौने तैयार कर रहे हैं जो आयातित खिलौनों की बढ़ती आमद से प्रतिस्पर्धा करने में असफल हैं।
दो युवाओं, क्षितिज मलहोत्रा और प्रियंका प्रभाकर ने इस बढ़ती जरूरत को पूरा करने और बाजार में एक संगठित भारतीय खिलौना ब्रांड तैयार करने की दिशा में ध्यान दिया और ‘कोकोमोको किड्स’ की शुरुआत की। इन लोगों ने पिछले दो वर्षों में बच्चों के लिये 25 से अधिक खेल तैयार किये हैं जिनमें से कुछ तो इस वर्ष नूनबर्ग में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय टाॅय फेयर में भी प्रदर्शित किया गया।
कंप्यूटर इंजीनियरिंग कर चुके क्षितिज ने पढ़ाई के बाद पुणे में एक परामर्शदाता कंपनी के अपने सफर की शुरूआत की। इसके बाद उन्होंने अपने एक मित्र के साथ ई-लर्निंग कंपनी की नींव डाली। ‘‘हम कार्पोरेट्स के लिये शिक्षण सामग्री तैयार करते थे। लुफ्तहंसा, मर्सिडीस, लोरियल जैसी बड़ी कंपनियों के लिये हमने पाठ्य सामग्री तैयार की।’’
हालांकि उनकी यह कंपनी लाभ में थी लेकिन क्षितिज प्रोडक्ट डेवलपमेंट के क्षेत्र में कुछ नया करना चाहते थे इसलिये वह उससे अलग हो गए। ‘‘मेरा स्कूली मित्र अभी भी फ्रेशलाइम मीडिया नाम की उस ई-लर्निंग कंपनी को संभाल रहा है और वह अच्छे मुनाफे में है,’’ क्षितिज कहते हैं। इसके बाद वे स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के भारत में चिकित्सा उपकरणों का अविष्कार करने वाले एक कार्यक्रम में शामिल हो गए।
इस कार्यक्रम के बारे में क्षितिज विस्तार से बताते हैं, ’’स्टैनफोर्ड इंडिया बायो डिजाइन नाम के उस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के लिये नए समाधानों को खोजना था। इस टीम ने मरीजों को सीधे स्ट्रेचर से पलंग पर स्थानांतरित करने वाले एक यंत्र का विकास किया। बाद में इस उत्पाद को दिल्ली की एक कंपनी एमजीएम एसोसिएट्स ने खरीद लिया।’’
प्रियंका मूल रूप से डिजिटल मार्केटिंग की पृष्ठभूमि से आती हैं। क्षितिज से मुलाकात के समय उन्होंने वेबचटनी नामक कंपनी की नौकरी से इस्तीफा दिया था। ‘‘हम दोनों की मुलाकात हुई और दोनों ही भविष्य की रणनीति के बारे में सोच रहे थे। बच्चों की दुनिया हमें काफी रोचक लगी क्योंकि हमारे हिसाब से यह मनोरंजक और रोचक थी। सबसे महत्वपूर्ण यह थी कि अगर आपने निशाना मछली की आँख पर लगाया तो आप कई पीढि़यों के दुलारे हो जाते हैं,’’ क्षितिज आगे जोड़ते हैं। इस तरह करीब ढाई साल पहले दोनों ने खिलौनों की दुनिया में कदम रखा।
उन दिनों बाजार में सबस्क्रिपशन यानि सदस्यता सेवा का दौर था तो इन्होंने भी ट्रेवलर किड के नाम से इस सेवा के तहत काम की शुरूआत की। इन्होंने बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा देने के बारे में विचार किया और शैक्षिक खेल तैयार करने की दिशा में पहल की। प्रियंका और क्षितिज, दोनों ने इस विश्वास के साथ कि बच्चों को जानने और सिखाने के लिये खेल से बेहतर कोई साधन नहीं है, भूगोल पर आधारित कई खेल तैयार किये। खेल के हर डिब्बे में स्टिकर के साथ दुनिया के नक्शे के अलावा झूठमूठ का खेलने वाला पासपोर्ट, वीज़ा स्टिकरों के अलावा स्मारकों ओर भाषा स्टिकर रखे गए।
लेकिन जल्द ही इन्हें अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए इन उत्पादों को नई कार्यनीति के साथ बाजार में उतारना पड़ा। क्षितिज बताते हैं कि, ‘‘सबस्क्रिपशन का काम काफी कठिन है। आपको अपने ग्राहकों को यह यकीन दिलाना होता है कि उनके द्वारा किये जा रहे अग्रिम भुगतान के बदले आने वाले 6 महीनों तक आप उन्हें सेवाएं प्रदान कर पाएंगे। सबस्क्रिपशन के लिये आपको विश्वास के अलावा काफी पैसा भी चाहिये। जल्द ही हमें अहसास हुआ कि इन चीजों को खुले बाजार में बेचना हमारे लिये आसान रहेगा।’’
इस जोड़ी ने इन खेलों को फ्लिपकार्ट और स्नैपडील पर ऑनलाइन बिक्री के लिये रखा और दुनिया ने इन्हें हाथों हाथ लिया। ट्रेवलर किड नाम के आधार पर लोग इन्हें यात्रा से संबंधित काम करने वाला समझते थे इसलिये इन्होंने अपने उपक्रम का नाम बदलकर ‘कोकोमोको किड्स’ रख दिया। काम करने के तरीके को बदलने के बाद सामने आने वाली दिक्कतों के बारे में बात करते हुए क्षितिज बताते हैं कि, ‘‘हमें वितरकों को समझाने के लिये काफी पापड़ बेचने पड़े क्योंकि वे लोग नए नामों के साथ रिस्क लेने को तैयार नहीं थे और इन लोगों को समझाने के लिये हमें काफी मेहनत करनी पड़ी।’’
फिलहाल कोकोमोको किड्स ने दिल्ली, कोलकाता, मुबई ओर पुणे के सभी मशहूर खिलौनों और किताबों की दुकानों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका है। इसके अलावा इनके उत्पाद आॅनलाइन खरीददारी के लिये भी उपलब्ध है। साथ ही ये लोग देश के विभिन्न कोनों में लगने वाले टाॅय फेयर में भी भाग लेते रहते हैं।
‘‘आखिर प्रदर्शनियों से ही हमें और हमारे उत्पादों को पहचान मिली है। चूंकि हमारे खिलौने शिक्षण से संबंधित हैं इसलिये इन्हें खरीदने वाले बच्चे और माता-पिता अलग ही हैं। ऐसी ही एक प्रदर्शनी के दौरान कुछ लोग हमारे खेलों को रिटर्न गिफ्ट के तौर पर देने के लिये ले गए और तभी से इन उत्पादों की बिक्री को एक नया आयाम मिला।’’
बाजार के मौजूदा रुझानों के बारे में क्षितिज कहते हैं कि, ‘‘हमारे देश में बने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयातित खिलौनों में बहुत भारी अंतर है। हमारे देश में बने अधिकतर खिलौने इतने अच्छे नहीं हैं और विदेशी खिलौने इतने महंगे हैं कि हर कोई इन्हें नहीं खरीद सकता। अभिभावक बाजार में लगातार कुछ नया खोजते रहते हैं और कुछ अच्छा मिलने पर वे उसे अपनाने से पीछे नहीं हटते हैं। हमारे द्वारा तैयार किये गए खेल 50 रुपये से शुरू होते हैं इसलिये ये हर किसी की पहुंच में हैं।’’
भविष्य की योजनाओं के बारे में क्षितिज बताते हैं कि, ‘‘हम लोग पहली बार एक अंतर्राष्ट्रीय टाॅय फेयर में हिस्सा लेने गए और हमें वहां से उत्साहित करने वाली प्रतिक्रियाएं मिलीं। इसके अलावा फिलहाल हम लोग कनाडा की एक कंपनी के लिये कुछ नमूने तैयार कर रहे हैं और जल्द ही हमें कुछ और अच्छे आॅर्डर मिलने की संभावना है।’’ चूंकि कोकोमोको अभी शैशवकाल में है इसलिये इन्हें कुछ वित्तपोषक साझेदारों की भी तलाश है। ‘‘अभी हम लोग आॅनलाइन और एक छोटे से वर्ग तक सीमित हैं लेकिन भविष्य में हम वैश्विक स्तर पर अपने उत्पादों को ले जाना चाहते हैं। इसके लिये जल्द ही हम अपनी वेबसाइट से भी अपने उत्पादों की बिक्री शुरू करने वाले हैं।’’