जीतेजी इंडिया को ‘ब्रेन स्ट्रोक रेडी’ देश बनाने का संकल्प लेकर काम कर रहीं डॉक्टर का नाम है पद्मा श्रीवास्तव
पढ़ाई-लिखाई हो या फिर इंसानी दिमाग की बारीकियों को समझना, डॉ. पद्मा शुरू ही हर ‘अव्वल’ रही हैं ... धर्म और आध्यात्म के ज़रिये इंसानी दिमाग की रहस्यमयी गुत्थियों को सुलझाने में भी जुटी हैं इंसानी दिमाग की ये बड़ी जानकार ... भारत के हर चिकित्सक को ब्रेन स्ट्रोक का शिकार मरीज का इलाज करने में सक्षम बनाना ही है डॉ. पद्मा का सबसे बड़ा सपना
इंसानी दिमाग को समझना आसान ही नहीं बल्कि नामुमकिन है, ये बात दिमाग के बड़े-बड़े जानकार कहते हैं। सभी सुधीजन जानते हैं कि इंसान के शरीर में दिमाग एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। दिमाग के बिना इंसान की क्या; किसी भी जीव-जंतु के जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इंसानी दिमाग की वैसे भी कई सारी खूबियाँ हैं, दिमाग न केवल इंसानी शरीर का एक बेहद ज़रूरी अंग है बल्कि ये एक उत्कृष्ट और गज़ब की रचना भी है। दिमाग एक ऐसा एक अंग है जिसकी वजह से पूरा इंसानी जिस्म संचालित होता है। दिमाग इंसान की अलग-अलग भावनाओं, उसके अलग-अलग भावों का भी केंद्र है। दिमाग ही इंसान की सभी क्रियाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित भी करता है। वैज्ञानिक और दिमाग के जानकार बताते हैं कि इंसानी जिस्म का ये अंग संरचनात्मक रूप से 'जटिल' तो है ही, क्रियात्मक रूप में 'जटिलतम' भी है। रोचक बात ये भी है कि इंसान खुद अभी तक इस बात को सही तरीके से नहीं जान पाया है कि दिमाग आखिर कैसे काम करता है। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई इंसान यह समझने की कोशिश में लगे हुए हैं कि इंसान का दिमाग कैसे काम करता है और उसमें गड़बड़ी कब, कैसे और क्यों होती है।
डॉ. पद्मा श्रीवास्तव एक ऐसी बड़ी शख्सियत का नाम है जो इंसानी दिमाग से जुड़ी रहस्यमयी गुत्थियां को सुलझाने की कोशिश में लगी हुई हैं। पद्मा एक वैज्ञानिक हैं, चिकित्सक हैं और शिक्षक भी। वे दिमाग की डॉक्टर हैं और इंसानी दिमाग में गड़बड़ियों की वजह से होने वाली अलग-अलग बीमारियों का इलाज करती हैं। वे नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में तंत्रिका विज्ञान यानी न्यूरोलॉजी की प्रोफेसर भी हैं और डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों को दिमाग, उससे जुड़े रोगों और उनके इलाज के बारे में बताती/सिखाती हैं।जैसे दिमाग से जुड़ी कई बातें बहुत ही रोचक हैं वैसे ही दिमाग की इस मशहूर डॉक्टर के जीवन से जुड़ी कई सारी बातें भी बहुत ही रोचक और रोमांचक हैं।
पद्मा एक बहुत ही प्रभावी, काबिल और तेज़ दिमाग की मालकिन हैं। बचपन से ही वे हर परीक्षा में अव्वल रहीं। माँ बच्चों की डॉक्टर थीं और माँ के काम-काज के प्रभाव में आकर ही पद्मा भी डॉक्टर बनीं। डाक्टरी की पढ़ाई के दौरान एक प्रोफेसर के प्रभाव में आकर वे दिमाग की डॉक्टर बनीं। पद्मा दिमाग की डॉक्टर क्या बनीं, उन्होंने दिमाग की बीमारियों से परेशान लोगों का दिमाग ठीक करना शुरू कर दिया। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में एक के बाद एक मरीजों का इलाज करते-करते वे दिमाग की बहुत बड़ी जानकार बन गयीं। बतौर चिकित्सक उन्होंने कई जटिल मामले सुलझाये। ऐसे मरीजों का दिमाग ठीक किया जिन्हें कई सारे डॉक्टर ये कहकर नकार चुके थे कि भगवान भी अब इन्हें ठीक नहीं कर सकता। दिमाग के मरीजों का इलाज करते हुए ही पद्मा ने इंसानी दिमाग से जुड़े रहस्यों पर से पर्दा उठाने के लिए शोध और अनुसंधान भी जारी रखा। एक चिकित्सक, शिक्षक और शोधकर्ता के रूप में उन्होंने कई सारी नायाब कामयाबियां हासिल की हैं। उनकी सबसे बड़ी कामयाबी हिमाचल प्रदेश राज्य को ‘ब्रेन स्ट्रोक रेडी’ बनाना है। ‘ब्रेन स्ट्रोक रेडी’ से मतलब है कि राज्य का हर एक फिजिशियन यानी चिकित्सक ब्रेन स्ट्रोक होने की स्थिति में मरीज का सही इलाज कर उसकी जान बचा सकता है। हिमाचल में अपनी कामयाबी से उत्साहित पद्मा ने संकल्प लिया है कि वे जीतेजी भारत को ‘ब्रेन स्ट्रोक रेडी’ बनाएंगी। पद्मा से जुड़ी एक और बड़ी रोचक बात ये है कि वे भारतीय आध्यात्म, धर्म-शास्त्र, रीति-रिवाजों और मंत्रों को चिकित्सा-विज्ञान से जोड़कर अनसुलझे रहस्यों पर से पर्दा उठाने की भी कोशिश में मग्न हैं। और तो और, पद्मा ने अपनी नायाब कामयाबियों से पुरुष-प्रधान डॉक्टर समुदाय में अपनी ख़ास पहचान बनाने में भी कामयाब रही हैं। उनकी कामयाबियां दुनिया के सामने ये तथ्य भी रखती हैं कि महिला का दिमाग पुरुष के दिमाग से कम तेज़ नहीं है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि पद्मा की कामयाबी की कहानी भी बेहद रोचक और रोमांचक है।
अपनी कामयाबी की नायाब कहानी में लगातार नए-नए अध्याय जोड़ती जा रहीं पद्मा का पूरा नाम मडकशिरा वसंत पद्मा श्रीवास्तव है। उनका जन्म अविभाजित आँध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद शहर में 7 मार्च, 1963 हुआ। उनके पिता मंदिरों की देख-रेख करने वाले धर्मस्व विभाग में अधिकारी थे। उनकी माँ बच्चों की डॉक्टर थीं और स्वास्थ विभाग में काम करती थीं। पद्मा अपने माता-पिता की अकेली संतान हैं। वे बताती हैं, “मैं अपने माता-पिता के लिए बेटा भी थी और बेटी भी।” डॉ. पद्मा के मुताबिक, उनका परिवार मध्यम वर्गीय परिवार था और सरकारी कर्मचारी होने की वजह से माता-पिता दोनों हमेशा काफी व्यस्त रहते थे। ऐसा बिलकुल नहीं था कि घर-परिवार में खूब धन-दौलत थी और माता-पिता ढेर सारी संपत्ति के मालिक थे।
माता-पिता का बहुत गहरा प्रभाव डॉ. पद्मा पर पड़ा। उन्होंने बचपन से ही देखा था कि उनके माता-पिता बहुत मेहनती हैं और ईश्वर में उनकी अटूट आस्था है। माता-पिता दोनों रुपयों की अहमियत को अच्छी तरह से समझते थे और यही वजह भी थी कि घर में फ़िज़ूल खर्च पाप समझा जाता था। डॉ. पद्मा ने बताया, “माता-पिता दोनों बहुत संस्कारी थे। उनकी ज़िंदगी के अपने मूल्य और आदर्श थे। एक दम सीधा-सादा जीवन था। कोई दिखावा नहीं, कोई पाखण्ड नहीं। जीवन में सुख था और शांति थी। जो कुछ था उससे वे संतुष्ट थे।”
माँ को बच्चों का इलाज करते देखकर ना जाने कब पद्मा के मन में भी ये बात समां गयी कि उन्हें भी बड़ा होकर डॉक्टर ही बनाना है। ऐसा बिलकुल नहीं था कि माता-पिता ने पद्मा से कहा था कि उन्हें भी डॉक्टर ही बनाना है, लेकिन माँ का प्रभाव पद्मा के बाल-मन पर कुछ तरह से पड़ा कि उन्होंने भी अपनी माँ की तरह डॉक्टर बनने की ठान ली। पद्मा कहती हैं, “न मेरी माँ ने मुझसे कभी कहा कि मुझे क्या बनना है और न ही मेरे पिता ने मुझसे ऐसा कुछ कहा। मेरे अंदर अपने आप ये बात आ गयी थी कि मुझे डॉक्टर बनाना है। माता-पिता ने कभी जोर-ज़बरदस्ती भी नहीं की। किसी बात को लेकर कोई दबाव भी नहीं बनाया।”
पद्मा शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज़ थीं। उनकी स्कूली शिक्षा हैदराबाद के स्टेनली गर्ल्स हाई स्कूल में हुई। स्कूल में पद्मा हमेशा क्लास में 'फर्स्ट' आतीं। उन्होंने किसी दूसरी लड़की को उनसे आगे निकलने का मौका ही नहीं दिया। हर सब्जेक्ट में अव्वल नंबर। सारे टीचर भी पद्मा को बहुत चाहते थे। हर कोई पद्मा की तेज़ बुद्धि और उनकी असाधारण प्रतिभा का कायल था। उनकी स्मरण-शक्ति भी गज़ब की थी। एग्जाम में सभी को पछाड़ना उनकी आदत बन गयी थी, लेकिन ऐसा भी बिलकुल नहीं था कि पद्मा को उनके माता-पिता खुद पढ़ाया करते थे या फिर घर पर पढ़ाने-लिखवाने के लिए कोई ट्यूशन टीचर का इंतज़ाम किया गया था। पद्मा खुद से अपनी पढ़ाई-लिखाई करती थीं। पद्मा ने बताया, “माँ मुझे ज़बरदस्ती कर अपने साथ बिठाकर पढ़ाया करती थीं, ऐसा कभी नहीं हुआ। मैं खूब पढूं-लिखूं और अच्छे नंबर लाऊँ, इसके लिए भी मेरे माता-पिता ने कभी स्ट्रेस नहीं लिया। शुरू से ही मेरी दिलचस्पी किताबों में ही रही है।” एक सवाल के जवाब में पद्मा ने बताया कि बचपन में उन्हें संगीत का शौक था। उन्होंने कुछ समय के लिए कर्नाटक शास्त्रीय संगीत भी सीखा। इतना ही नहीं, पद्मा ने बचपन में ही वीणा बजाना भी सीख लिया था। किताबों से जब फुर्सत मिलती थी तब पद्मा संगीत में डूब जाती थीं और मन लगाकर गातीं। पद्मा कहती हैं, “बचपन में मेरी लाइफ बोरिंग थी। मैं नॉन-सेंसिकल पर्सन थी। मैं किताबी कीड़ा थी, ज्यादातर समय मेरा पढ़ाई-लिखाई में ही गया। पढ़ाई-लिखाई ही प्राथमिकता रही। मुझे बस ज़िंदगी में इसी एक बात का अफ़सोस है कि पढ़ाई-लिखाई की वजह से मेरा आल राउंड पर्सनालिटी डेवलपमेंट नहीं हो पाया, बचपन में ज़िंदगी के कई सारे पहलु अनछुए ही रह गए।”
पद्मा भले ही अपने बचपन को ‘बोरिंग लाइफ’ बताती हैं, लेकिन उनकी सारी उपलब्धियों और कामयाबियों से भरी ज़िंदगी की मज़बूत बुनियाद बचपन में ही पड़ी। शानदार नंबरों से दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद पद्मा ने सिकंदराबाद के सैंट फ्रांसिस गर्ल्स कॉलेज में दाखिला लिया। डॉक्टर बनने का सपना था, इसी वजह से पद्मा ने इंटरमीडिएट में बायोलॉजी, फिजिक्स और केमिस्ट्री को अपना मुख्य विषय बनाया। कॉलेज में भी पद्मा हमेशा सबसे आगे रहीं। उन दिनों भी मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए काफी कड़ी प्रतिस्स्पर्धा होती थी। पद्मा के कुछ साथी प्रवेश-परीक्षा में अच्छे नंबर और रैंक लाने के मकसद से कोचिंग सेंटर जाने लगे थे। कुछ करीबी लोगों के सुझाव पर पद्मा के माता-पिता ने उन्हें भी कोचिंग के लिए भेजा। ऐसा पहली बार था जब पद्मा को कोचिंग के लिए भेजा गया था। कोचिंग के बगैर भी पद्मा की तैयारी पक्की थी और उन्हें अपने पहले ही एटेम्पट में मेडिकल कॉलेज में सीट मिल गयी। बकौल पद्मा, “मैंने सिर्फ उस्मानिया मेडिकल कॉलेज के लिए अप्लाई किया था और मेरे नंबर इतने अच्छे थे कि मुझे वहीं सीट मिल गयी।” पद्मा ने आगे कहा, “मेहनत के बिना कुछ नहीं मिलता। एक कहावत है न – किस्मत से ज्यादा और वक्त से पहले कुछ नहीं मिलता। मैंने भी खूब मेहनत की थी। उन दिनों भी कम्पटीशन टफ था, लेकिन हाँ; उतना टफ नहीं था जितना कि आज है। आज का कम्पटीशन बहुत ज्यादा है। मेरे लिए भी मेडिकल कॉलेज में सीट हासिल करना आसान नहीं था, मैंने मेहनत की और मुझे अपने मन चाहे कॉलेज में सीट मिल गयी।”
उस्मानिया मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान पद्मा ने अपनी आसाधारण प्रतिभा से सभी का मन जीत लिया। डाक्टरी की पढ़ाई से जुड़े जितने एग्जाम हुए पद्मा सबमें अव्वल रहीं। जब कोर्स पूरा हुआ तब वे सिर्फ उस्मानिया विश्वविद्यालय में ही नहीं बल्कि राज्य-भर में ‘नंबर वन’ रहीं। उन्हें जितने नंबर एमबीबीएस में मिले थे उतने नंबर अविभाजित आँध्रप्रदेश में किसी दूसरे विद्यार्थी को नहीं मिले थे। एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान पद्मा को कुल 13 स्वर्ण पदक मिले। डाक्टरी की पढ़ाई में शानदार प्रदर्शन के लिए उन्हें राष्ट्रपति मैडल से भी नवाज़ा गया था। एक बेहद ख़ास मुलाकात के दौरान पद्मा ने कहा, “जब आप क्लास में फर्स्ट आते हैं, या फिर यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आते हैं तो आपको खुशी तो होती ही है। आपके माता-पिता भी खुश होते हैं। लेकिन, आपको ये नहीं भूलना चाहिए कि जो ‘टॉप’ पर होता है वो हमेशा अकेला होता है। अगर आप ‘टॉप’ नहीं हैं तो आपके साथ कई सारे ऐसे लोग हैं जोकि ‘टॉप’ नहीं हैं। ‘टॉप’ के सिवाय बाकी सारे लोग ‘टॉप’ हैं ही नहीं। और, मैं हमेशा ‘टॉप’ पर रही यानी अकेली।” पद्मा कहती हैं, ‘टॉप’ पर रहना उतना ज़रूरी नहीं है जितना कि खुश और संतुष्ट रहना। मैं मानती हूँ कि कामयाबी के मापदंड हमेशा एग्जाम में मिलने वाले नंबर नहीं हो सकते हैं। आप जीवन के अनुभवों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। खुशी और संतुष्टि ... ये अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह से मिलती है। जो मेरा लक्ष्य है, ये ज़रूरी नहीं कि वो दूसरों का भी हो। सबकी अपनी-अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। कामयाबी के मायने भी लोगों के लिए अलग-अलग होते हैं। कुछ आईआईएम में दाखिला हासिल कर लेने को बड़ी कामयाबी मानते हैं तो कुछ के लिए एक करोड़ के पैकेज वाली नौकरी मिल जाना बड़ी कामयाबी है। कामयाबी क्या है? ये बहुत व्यक्तिगत विषय है। लेकिन, हाँ मैं अपने बारे में इतना ज़रूर कहूंगी कि मैं हमेशा टोपर रही मुझे इस बात की बहुत खुशी है और संतुष्टि भी।”
इस बेहद ख़ास मुलाकात के दौरान पद्मा ने उस्मानिया मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस की अपनी पढ़ाई की कुछ खट्टी-मीठी यादें भी ताज़ा कीं। पद्मा ने बताया कि हैदराबाद शहर के बीचोंबीच ही उस्मानिया मेडिकल कॉलेज के होने के बावजूद उन्हें करीब दो साल हॉस्टल में गुज़ारने पड़े थे। माता-पिता की सरकारी नौकरी और उनके तबादलों की वजह से पद्मा को कई महीने कॉलेज के हॉस्टल में रहने को मजबूर होना पड़ा। हॉस्टल में रहना भी पद्मा के लिए अलग अनुभव था। वे कहती हैं, “हॉस्टल में दाखिले से पहले मैं कभी भी अपने घर-परिवार से अलग नहीं रही थी। मेरी ज़िंदगी सिर्फ घर से स्कूल और स्कूल से घर के बीच की सिमटी हुई थी। माता-पिता दोनों अपनी-अपनी नौकरियों में काफी व्यस्त रहते थे, इस वजह से भी हम घूमने-फिरने बाहर भी नहीं जाया करते थे। मेरी ज़िंदगी बहुत ही सुरक्षित ज़िंदगी थी। काम भी एक जैसा ही था। बाहर की दुनिया मैंने देखी ही नहीं थी। इसी वजह से हॉस्टल के शुरूआती दिन कुछ अजीब-से थे लेकिन बाद में वहीं से बहुत कुछ नया सीखने को मिला।”
एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान पद्मा को फॉरेंसिक साइंस की वजह से भी दिक्कतें पेश आयीं। पद्मा ने बताया, “फॉरेंसिक साइंस एक ऐसा सब्जेक्ट था जिससे मुझे डर लगता था। कुछ कारण थे जिन्हें मैं बता नहीं सकती, लेकिन मुझे फॉरेंसिक साइंस से बहुत डर लगता था। जिस दिन फॉरेंसिक साइंस का एग्जाम था मुझे उल्टियाँ हुईं और चक्कर भी आया।”
वैसे तो पद्मा को उस्मानिया मेडिकल कॉलेज के अपने ज्यादातर प्रोफेसर अब भी अच्छे से याद हैं लेकिन प्रोफेसर बिलकिस की याद उन्हें सबसे ज्यादा आती है। डॉ. बिलकिस उन दिनों उस्मानिया मेडिकल कॉलेज में फिज़ीआलजी की प्रोफेसर थीं और पढ़ाने का उनकाअंदाज़ पद्मा को इतना अच्छा लगता था कि वे उनपर फ़िदा हो गयीं। पद्मा के अनुसार, “फिज़ीआलजी की कई सारी किताबें हुआ करती थीं, लेकिन प्रोफेसर बिलकिस के समझाने का अंदाज़ बिलकुल अलग था। मेरे और उनके बीच का रिश्ता भी कुछ अलग था। जब वो कोई सवाल करतीं और मैं सही जवाब देती तो उनके चहरे पर एक गज़ब-सी चमक आ जाती थी। वो चमक देखने के लिए मैं खूब तैयारी करती। उनके चहरे की वो चमक मेरे लिए एग्जाम में आने वाले नंबरों से कही ज्यादा मायने रखती थी। हम दोनों में गुरु-शिष्य का एक अनोखा रिश्ता था। वो बहुत अच्छी इंसान थीं और अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि वो अब फरिस्ता बन गयी हैं।”
उस्मानिया मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही पद्मा ने मरीजों का इलाज करना शुरू कर दिया था। पद्मा को वे दिन अब भी अच्छे से याद हैं जब उन्हें विद्यार्थी ने नाते उस्मानिया जनरल अस्पताल ले जाया जाता था। उन्हीं दिनों उस्मानिया जनरल अस्पताल में कैश़ूअल्टी वार्ड नया बना था। सही मायने में पद्मा को मरीजों की तकलीफ का अहसास होना उस्मानिया जनरल अस्पताल से ही शुरू हुआ था।
1985 में उस्मानिया विश्वविद्यालय से एमबीबीएस की डिग्री लेने के बाद मेडिसिन में आगे की पढ़ाई के लिए पद्मा दिल्ली पहुँचीं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स में उन्हें डॉक्टर ऑफ़ मेडिसिन यानी एमडी के कोर्स में दाखिला मिल गया। साल 1990 में पद्मा को एम्स से एमडी की उपाधि मिली। उनका मुख्य विषय था – इंटरनल मेडिसिन। पद्मा के मुताबिक, वे दिल्ली क्या आयीं उनकी ज़िंदगी बदल गयी। दिल्ली पहुंचकर पद्मा को अहसास हुआ कि उन्होंने दुनिया देखी ही नहीं है। एम्स परिसर भी अपने आप में एक अलग ही दुनिया थी। पद्मा कहती हैं, “मैं दक्षिण से थी, उत्तर आयी थी, ये बात भी मेरे लिए बहुत बड़ी थी। दक्षिण और उत्तर का फर्क भी मुझे दिल्ली में समझ में आया। एम्स अपने-आप में एक शहर जैसा है। एम्स में मेरे लिए दुनिया को और भी बेहतर ढंग से समझने का रास्ता खुल गया था। एम्स में मैंने बहुत कुछ नया देखा और सीखा। कई रहस्यों को जाना और समझा। मुझे लगा कि एम्स में सीखते हुए मैं मट्युअर (परिपक्व) हो गयी हूँ।”
एम्स में एमडी की पढ़ाई के दौरान ही पद्मा ने फैसला कर लिया कि वे दिमाग की डॉक्टर बनेंगी। इस फैसले के पीछे की सबसे बड़ी वजह थे प्रोफेसर आहूजा। एमडी की पढ़ाई के दौरान पद्मा की पोस्टिंग सुपर स्पेशलिटी डिपार्टमेंटों में होती थी। जब उनकी पोस्टिंग न्यूरोलॉजी में हुई तब वे प्रोफेसर आहूजा के संपर्क में आयीं। प्रोफेसर आहूजा ने इंसानी दिमाग के बारे में जिस अंदाज़ में बातें समझाईं उसका असर पद्मा के दिमाग पर कुछ इस तरह से हुआ कि उन्होंने दिमाग का डॉक्टर बनने की ठान ली। पद्मा कहती हैं, “इंसानी दिमाग सुपर कंप्यूटर है। इंसानी दिमाग एक ऐसी चीज़ है जिसके बार में अभी बहुत कुछ जानना समझना बाकी है। एक मायने में दिमाग एक ऐसा विषय है जिसके बारे में आप जितना जानते जाएंगे आपको ये विषय उतना ही बड़ा और रोमांचक लगने लगेगा। हर बार आपको दिमाग के बारे में कुछ नया सीखने को मिलता ही रहेगा।”
पद्मा ने 1993 में एम्स से ही न्यूरोलॉजी यानी तंत्रिका विज्ञान में डीएम की सुपर स्पेशलिटी डिग्री हासिल की। पद्मा कहती हैं, “जब मैंने डीएम की डिग्री ली तब मुझे लगा था कि मैं दिमाग के बारे में सब कुछ जानती हूँ । ऐसी कोई चीज़ नहीं है जिसके बारे में मैं नहीं जानती। मैं अपने आप को इंसानी दिमाग का एक्सपर्ट मानने लगी थी, लेकिन जब मैंने अलग-अलग मरीजों को देखना शुरू किया और तरह-तरह के दिमाग मेरे सामने आये तब मुझे लगा कि मैं तो बहुत कम जानती हूँ और मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है। मुझे प्रैक्टिस करते हुए कई साल हो गए हैं और मुझे अब भी लगता है कि दिमाग के बारे में अभी बहुत कुछ नया सीखना और समझना बाकी है। बढ़ती उम्र और लगातार बढ़ते अनुभव से मुझे ये भी पता चला कि दिमाग के बारे में अभी और भी बहुत कुछ जानना बाकी है।”
पद्मा ने एम्स में काम करते हुए तंत्रिका विज्ञान विभाग को नए आयाम प्रदान किये। पद्मा ने ही एम्स में एक्यूट इस्चेमिक स्ट्रोक प्रोग्राम के लिए हाईपर एक्यूट थम्बोलिसिस की स्थापना की। एम्स भारत का ऐसा पहला सार्वजनिक क्षेत्र का अस्पताल बना जहाँ प्ला्समिनोजेन एक्टिवेटर ऊतक युक्त् 'कोड रेड' नामक इस कार्यक्रम की शुरूआत हुई। पद्मा ने ही एम्स में गंभीर इस्चेमिक आघात के लिए म्बोमलिसिस कार्यक्रम के साथ-साथ हाइपर एक्यूसट रेपरफ्युज़न कार्य-नीतियां भी शुरू कीं। वे मिर्गी शल्य-चिकित्सा और इंट्रेक्टेलबल एपिलेप्सीक क्लिनिकल सहित एम्स के व्यापक मिर्गी कार्यक्रम की सक्रिय और संस्थापक सदस्य भी हैं। पद्मा ने इंसानी दिमाग से जुड़े अलग-अलग विषयों/मुद्दों पर कई सारी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्टियों का आयोजन भी किया हैं जिसमें इंडो– यूएस सिम्पोजियम ऑन रिब्रोवास्कु्लर डिसआटर्डर्स; इण्डियन स्ट्रेंक एसोसिएशन का पांचवा राष्ट्रीय सम्मेरलन और इंटरनेशनल स्ट्रोक अपडेट शामिल हैं। पद्मा ने इंसानी दिम्माग से जुड़े कई सारे विषयों पर काफी शोध और अनुसंधान भी किया है। उनके शोध-पत्र देश-विदेश की कई सारी नामचीन पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। जिन विषयों पर पद्मा ने शोध और अनुसंधान किया है उनमें आघात में अपारंपरिक जोखिम कारकों की भूमिका; आघात आनुवांशिकी की भूमिका, वास्कुनलम डिमेंशिया में आनुवांशिकी, व्यापक आघात पुनर्वास कार्यक्रम शामिल हैं। पद्मा ने स्ट्रोक में हाइपर होमोसिस्टीनेमिया की संबद्धता और परिणाम लिपिड प्रोफाइल और स्ट्रोक के साथ संबद्ध ढंग तथा स्ट्रोक सबटाइप्सि, आघात आनुवांशिकी की भूमिका; भारत में विशेष रूप से युवाओं में आघात के संदर्भ में आघात के जोखिमकारक का प्रोफाइल इत्यादि विषयों पर काफी काम किया है। वे भारत से आघात संबंधी आंकड़ों के लिए सिट्स न्यूस रजिस्ट्री फॉर थ्रोम्बोपलिसिस की राष्ट्रीय समन्वयक और कैरोलिंसका विश्वविद्यालय की सिट्स सियर्स रजिस्ट्रीे की राष्ट्रीय समन्वयक भी हैं। पद्मा को उनके अनुभव के आधार पर भारत के राष्ट्रीय आघात निगरानी कार्यक्रम, नेशनल स्ट्रोक रजिस्ट्री प्रोग्राम, भारत में गैर-संचरणीय रोगों के राष्ट्रीय निवारण कार्यक्रमों में भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गयीं। पद्मा ने इण्डियन स्ट्रोक एसोसिएशन की अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी भी बखूबी संभाली है। वे अब भी इस एसोसिएशन से सक्रीय रूप से जुडी हुईं हैं। पद्मा ने इण्डियन स्ट्रोक एसोसिएशन की अध्यक्ष के रूप में आघात संबंधी दिशानिर्देश तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने मैंडेट की रूपरेखा तैयार की और उसे अधिनियमित करवाया। वे एम्स में आघात क्लिनिकल और आघात इकाई की टीम की सदस्य भी हैं। वह कई परियोजनाओं के लिए विशेषज्ञ समिति के सदस्य के रूप में बोर्ड में भी शामिल हैं। पद्मा कई प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संस्थालनों में डीएम पाठ्यक्रमों तथा न्यूररोलॉजी में डीएनबी हेतु ‘बाह्य परीक्षक’ भी हैं। वे डिपार्टमेंट ऑफ न्यूरोलॉजी, यूएसएएसएस, बोस्टीन में विजिटिंग प्रोफेसर भी रही हैं। उन्होंने आईयूएसएसटीएफ के लिए भारत और अमेरिका के बीच देश में विज्ञान कार्यक्रमों की आयोजन समिति की सदस्य के रूप में भी काम किया है।
पद्मा को उनकी कामयाबियों, उपलब्धियों और सेवाओं के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों और अवार्डों से सम्मानित किया जा चुका है। तंत्रिका पुनर्वास के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए पद्मा को साल 1998 -99 में राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान अकादमी ने ‘विमला विरमानी ओरेशन’ पुरस्कार प्रदान किया। साल 2006-07 में नेशनल अकादमी ऑफ़ मेडिकल साइंसेज ने ‘आचंटा लक्ष्मीपति ओरेशन’ पुरस्कार दिया। उन्हें नेशनल अकादमी ऑफ़ मेडिकल साइंसेज और नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज की फ़ेलोशिप भी मिल चुकी है। निज़ाम्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज ने उन्हें साल 2015 में ‘वीरराघव रेड्डी ओरेशन’ पुरस्कार से सम्मानित किया। साल 2015 में ही उन्हें आंध्र विश्वविद्यालय ने भी एंडोमेंट ओरेशन प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को ध्यान में रखते हुए साल 2016 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से भी नवाज़ा है।
वैसे तो पद्मा की कई सारी नायाब कामयाबियां हैं लेकिन इनमें एक बड़ी कामयाबी उन्हें हिमाचल प्रदेश में मिली। पद्मा ने हिमाचल प्रदेश के लिए ‘स्ट्रोक प्रोग्राम’ की परामर्शदाता के रूप में काम किया। पद्मा ने हिमाचल प्रदेश के सभी 12 जिलों के सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों को ‘ब्रेन स्ट्रोक’ यानी ‘मस्तिष्क का दौरा’ से निपटने और मरीज की जान बचाने के उपायों के बारे में प्रशिक्षण दिया। पद्मा ने बताया कि हिमाचल प्रदेश में ज्यादातर इलाकों में अस्पताल लोगों की पहुँच से बहुत दूर हैं। ‘ब्रेन स्ट्रोक’ आने पर मरीज को तुरंत अस्पताल ले जाना और उसका तुरंत इलाज शुरू करना बहुत ज़रूरी होता हैं । इसी वजह से राज्य सरकार की मदद से एम्स ने हिमाचल में एक प्रोग्राम चलाया जिसके तहत सभी सरकारी डॉक्टरों को ‘मस्तिष्क का दौरा’ पड़ने पर मरीज को दी जाने वाली दवाइयों और किये जाने वाले इलाज के बारे में प्रशिक्षण दिया गया।
पहले ये समझा जाता था कि सिर्फ बड़े अस्पतालों में दिमाग के डॉक्टर ही इन मरीजों का इलाज कर सकते हैं, लेकिन एम्स के डॉक्टरों ने सामान्य डॉक्टरों को भी ‘मस्तिष्क का दौरा’ पड़ने पर मरीज का इलाज करने और उसकी जान बचाने के उपाय बताये। बड़ी बात ये भी है कि ऊंची-ऊंची पहाड़ियों, बड़ी-बड़ी गहरी खाइयों, जंगल, नदियों, ऊबड़-खाबड़ रास्तों,मौसम की मार, कड़ाके की ठंड, बर्फ़बारी की वजह से भी हिमाचल प्रदेश के कई गाँवों तक पहुंचा बहुत ही मुश्किल होता है। दो जिलों में कई सारी गाँव/इलाके ऐसे हैं जिनका संपर्क छोटे-बड़े शहरों और राजधानी शिमला से अक्सर कटा ही रहता है। ऐसे गाँवों में भी किसी व्यक्ति को ‘मस्तिष्क का दौरा’ पड़ने पर उनका इलाज शुरू करने में स्थानीय डॉक्टरों को भी सक्षम बनाया है पद्मा और उनकी टीम ने। बड़ी बात ये भी है कि पद्मा ने स्मार्टफोन की मदद से हिमाचल प्रदेश में डॉक्टरों को ‘टेली स्ट्रोक’ सेवाएं प्रदान करना शुरू किया है। यानी, दिल्ली में रहते हुए पद्मा और उनकी टीम हिमाचल के किसी भी इलाके में स्मार्टफोन के ज़रिये ‘मस्तिष्क का दौरा’ का शिकार हुए व्यक्ति का इलाज करने में स्थानीय डॉक्टर की मदद करती है।हिमाचल प्रदेश में इसी कामयाब प्रयोग को पद्मा देश के हर राज्य में करना चाहती हैं। पद्मा कहती हैं, “मेरा सपना है भारत को ‘ब्रेन स्ट्रोक रेडी’ बनाने का। ‘ब्रेन स्ट्रोक रेडी’ से मेरा मतलब है भारत के किसी भी हिस्सा में अगर कोई व्यक्ति ब्रेन स्ट्रोक का शिकार होता है तो स्थानीय डॉक्टर भी उसका इलाज करने में सक्षम हो। हम सभी डॉक्टरों को ब्रेन स्ट्रोक के मरीज का इलाज करने में सक्षम बनाना चाहते हैं। हमने ये काम हिमाचल में कर दिखाया और और हम इसे भारत-भर में करना चाहते हैं।”
दिमाग से जुड़ी बीमारियों और उनके इलाज की एक्सपर्ट डॉक्टर पद्मा ने मुताबिक, "भारत में कैंसर के बाद सबसे ज्यादा मौतें हार्ट स्ट्रोक और ब्रेन स्ट्रोक की वजह से हो रही हैं। ब्रेन स्ट्रोक बहुत बड़ा खतरा है। भारत में ब्रेन स्ट्रोक एक महामारी है। हर 40 सेकंड में एक भारतीय को ब्रेन स्ट्रोक हो रहा है। हर चार मिनट में एक भारतीय की जान ब्रेन स्ट्रोक की वजह से जा रही है। और ऐसा भी बिलकुल नहीं है कि कुछ ही लोगों को ब्रेन स्ट्रोक होता है, ब्रेन स्ट्रोक किसी को भी हो सकता है। लोगों में ब्रेन स्ट्रोक को लेकर कई गलत धारणाएं हैं, जैसेकि - कुछ लोग मानते हैं कि शहर में रहे वाले लोगों को ही ब्रेन स्ट्रोक होता है। हकीकत तो ये भी है कि आलीशान बंगले में रहने वाले को भी ब्रेन स्ट्रोक हो सकता है और किसी झोपड़ी में रहने वाले को भी। ब्रेन स्ट्रोक अमीरी-गरीबी नहीं देखता। ब्रेन स्ट्रोक किसी सामाजिक, आर्थिक या भौगोलिक वर्ग तक सीमित नहीं है और ये कहीं को भी, कहीं पर भी हो सकता है। पहले हम जहां उम्रदराज लोगों में ब्रेन स्ट्रोक के मामले देखते थे वहीं अब युवाओं को ब्रेन स्ट्रोक होने के कई मामले भी सामने आ रहे हैं। ब्रेन स्ट्रोक होने पर अगर सही समय पर सही इलाज किया जाय तब ही मरीज की जान बचाई जा सकती है। जिस तरह से किसी सड़क दुर्घटना का शिकार हुए व्यक्ति की जान बचाने के लिए ‘गोल्डन ऑवर’ होता है ठीक उसी तरह से ब्रेन स्ट्रोक का शिकार हुए मरीज की जान बचाने के लिए भी ‘गोल्डन ऑवर’ होता है। सही समय में मरीज को अस्पताल या फिर डॉक्टर के पास ले जाने पर सिर्फ आईवी इंजेक्शन से ब्लड क्लॉट को ख़त्म किया जा सकता है। इलाज शुरू होने में देरी होने से मरीज की हालत लगातार बिगड़ती जाती है। यही वजह है कि मैं भारत-भर में जनरल फिजिशियनों को भी ब्रेन स्ट्रोक का इलाज करने में सक्षम बनाना चाहती हूँ ताकि ब्रेन स्ट्रोक का शिकार मरीज की जान बचाई जा सके। मेरे जीवन का सबसे बड़ा मकसद यही है कि मैं जीतेजी भारत को ‘ब्रेन स्ट्रोक रेडी नेशन’ बनाऊं।”
एक सवाल के जवाब में पद्मा ने कहा, “वैसे तो मेरा लक्ष्य भारत को ‘ब्रेन स्ट्रोक फ्री नेशन’ बनाना होना चाहिए। लेकिन, भारत में ऐसा कर पाना नामुमकिन है। भारत बहुत बड़ा देश है और इसकी आबादी भी बहुत बड़ी है और सभी लोगों में ब्रेन स्ट्रोक के प्रति जागरूकता लाना और उन्हें उनकी जीवन-शैली को अच्छा बनाने के लिए मजबूर करना नामुमकिन-सा ही है। चूँकि मैं ब्रेन स्ट्रोक को रोक नहीं सकती इसी वजह से भारत के हर डॉक्टर को ब्रेन स्ट्रोक की स्थिति में मरीज का सही इलाज कर उसकी जान बचाने में सक्षम बनाना चाहती हूँ।” पद्मा ने ये भी बताया कि एक समय ऐसा था जब भारत में ब्रेन स्ट्रोक का इलाज करने की दवाइयां भी नहीं थीं। अब भारत में ब्रेन स्ट्रोक का इलाज करने की दवाइयां कई जगह मिल रही हैं। भारत में लोगों को ब्रेन स्ट्रोक होने के कारणों का भी पता लगा लिया गया है। ब्रेन स्ट्रोक से लोगों को बचाने के लिए जागरूकता-अभियान भी चलाये जा रहे हैं।
ध्यान देने वाली बात ये भी है कि भारत की आबादी की ज़रूरतों के मुताबिक देश में बहुत ही कम न्यूरोलॉजिस्ट यानी 'दिमाग के डॉक्टर' हैं। ज्यादातर लोग यही नते हैं कि ब्रेन स्ट्रोक का इलाज सिर्फ बड़े अस्पतालों में होता है और इलाज इतना महंगा होता है कि आम आदमी के बस की बात नहीं है। पद्मा की कोशिश है कि देश के हर सरकारी अस्पताल में ब्रेन स्ट्रोक के मरीज का सही इलाज मुमकिन हो और वो भी मुफ्त में।
एम्स जैसे बड़े चिकित्सा-संस्थान में प्रोफेसर और न्यूरोलॉजी डिपार्टमेंट की एक प्रमुख यूनिट की मुखिया होने ने नाते भी पद्मा हर दिन ब्रेन स्ट्रोक का शिकार हुए लोगों का इलाज करती हैं। उन्होंने अपने जीवन में अब तक हजारों मरीजों का इलाज किया है। ब्रेन स्ट्रोक का शिकार हुए कई सारे लोगों की जान बचाई और अपने इलाज से लकवे का शिकार लोगों को फिर से सामान्य ज़िंदगी जीने लायक बनाया है। पद्मा कहती हैं,“हर दिन उनके पास एक से बढ़कर एक जटिल मामले आते हैं। ज्यादातर मामले ब्रेन स्ट्रोक के ही होते हैं। जिन लोगों का इलाज बाहर डॉक्टर नहीं कर पाते उन मरीजों को एम्स रिफर कर दिया जाता है, इसी वजह से ज्यादातर मामले काफी चुनौतियों से भरे होते हैं। एक मायने में हमारे पास वैसे मरीज ही आते हैं जिनका इलाज बाहर संभव नहीं है।” पूछे जाने पर पद्मा ने दो मामले ऐसे बताये जोकि उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती वाले थे।
एम्स में 24-25 साल का एक युवक काम करता था। वो एकदम स्वस्थ था और उसे कोई बीमारी या शिकायत नहीं थी। युवक फुर्तीला था और चुस्त-दुरुस्त भी। एक दिन जब वो सुबह उठा और आईने के सामने गया तब उसने देखा कि उसकी एक आँख तिरछी हो गयी है। उसे लगा कि नींद में से उठाने की वजह से उसे एक आँख तिरछी दिखाई दे रही है। युवक ने अपनी आँखें बंद की और दुबारा खोलीं, इस उम्मीद के साथ कि उसकी आँखें सामान्य हैं, लेकिन इस बार भी उसे उसकी एक आँख तिरछी ही दिखाई दी। उसने सोचा जब वो एम्स जाएगा तब किसी डॉक्टर को दिखा लेगा। इस बीच उसने दांत साफ़ करने के लिए जैसे ही ब्रश उठाया उसका हाथ कांपने लगा और कुछ ही सेकंड में उसका सर चकरा गया और बेहोश होकर वहीं ज़मीन पर गिर गया। परिवारवाले उसे सीधे एम्स ले आये। सुबह के करीब सात बजे उसे एम्स के अस्पताल लाया गया था। न्यूरोलॉजी डिपार्टमेंट की डॉ. पद्मा उस समय ड्यूटी पर थीं और उन्होंने मरीज का परीक्षण शुरू किया। मरीज की हालत देखते ही डॉक्टर पद्मा को लगा कि युवक को ब्रेन स्ट्रोक हुआ है। ब्रेन स्ट्रोक की बात कन्फर्म करने के लिए सीटी स्कैन करवाया गया। सीटी स्कैन से तस्वीर साफ़ नहीं हुई। अपने अनुभव के आधार पर डॉ. पद्मा ने मान लिया था कि ब्रेन स्ट्रोक ही है। चूँकि सुबह के सात ही बजे थे एमआरआई मशीन चलाने वाले तकनीशियन और एमआरआई फिल्मों की जांच कर रिपोर्ट देने वाले रेडियोलाजिस्ट भी अस्पताल नहीं पहुंचे थे। समय की नजाकत को समझते हुए डॉ. पद्मा से सभी को फोन कर तुरंत अस्पताल आने को कहा। सभी अपने सारे काम-काज छोड़कर अस्पताल चले आये। कैथ लैब भी खुलवाया गया। एमआरआई स्कैन से साफ़ हो गया कि ब्रेन में ब्लड क्लॉट हुआ है और इसकी वजह से युवक को ब्रेन स्ट्रोक आया है। डॉ. पद्मा ने जब एमआरआई स्कैन की रिपोर्ट देखी तब उन्हें पता चला कि ब्लड ब्रेन स्टेम में क्लॉट हुआ है। ब्रेन स्टेम इंसानी दिमाग की सबसे महत्वपूर्ण और नाजुक जगह होती है। डॉ. पद्मा ने मरीज को तुरंत कैथ लैब में शिफ्ट किया और एंजियोग्राम करवाया। पद्मा ने ये भी देखा कि क्लॉट का असर ब्रेन स्टेम में लगातार बढ़ रहा है। एंजियोग्राम के ज़रिये ही डॉ. पद्मा ने तुरंत क्लॉट को मिटाया। समय रहते क्लॉट को मिटा दिए जाने की वजह से युवक की जान बच गयी। क्लॉट हटाने के बाद युवक को आईसीयू में शिफ्ट कर वेंटिलेटर पर रखा गया। जब युवक की हालत सुधरी तब वेंटिलेटर हटा दिया गया। दो दिन बाद युवक को कमरे में शिफ्ट किया गया। कुछ दिनों बाद युवक फिर से सामान्य हो गया, लेकिन उसकी एक आँख थोड़ी तिरछी ही रह गयी। लेकिन, सबसे बड़ी बात ये रही कि भयानक तरीके से ब्रेन स्ट्रोक होने के बाद भी युवक की न तो जान गयी और न ही उसके शरीर के दूसरे अंगों ने काम करना बंद किया। डॉ. पद्मा के सही समय पर सही फैसले की वजह से युवक की जान बच गयी। डॉ. पद्मा ने न सिर्फ युवक का इलाज किया था बल्कि एक युवक की जान बचाने के लिए अपने कार्य-क्षेत्र से बाहर जाकर सभी अन्य डॉक्टरों, तकनीशियनों, नर्सों और दूसरों लोगों को फोन कर फ़ौरन अस्पताल आने की गुज़ारिश की थी। सभी बिना समय गंवाए अस्पताल भी आ गए थे और डॉ. पद्मा और एम्स के इन्हीं सारे लोगों की वजह से उस युवक की जान बच पायी थी। उस घटना की याद करते हुए पद्मा कहती हैं, “ब्रेन स्ट्रोक के समय, सही समय पर सही इलाज होना बहुत ज़रूरी है। थोड़ी-सी देरी और ज़रा-सी लापरवाही की वजह से भी इंसान की या तो जान जा सकती है या फिर वो हमेशा के लिए बिस्तर तक सीमित हो जाता है। मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि मैं उस दिन अपना फ़र्ज़ अच्छे से निभा पायी और इसकी वजह से उस युवक की जान बच गयी।” डॉ. पद्मा ने ये भी बताया कि वो युवक अब भी एम्स में ही काम कर रहा है। युवक अब भी पूरी तरह से स्वस्थ है, उसकी शादी भी हो गयी है और उसके बच्चे भी हैं।
पद्मा से हमारी से ये मुलाक़ात एम्स में उनके दफ्तर में ही हुई थी। जिस दिन हमारी ये बेहद ख़ास मुलाकात हुई थी उसी दिन सुबह भी उन्होंने एक बहुत ही पेचीदा मामले को सुलझाया था और एक महिला की जान बचाई थी। एक महिला को बहुत ही गंभीर हालत में एम्स लाया गया था। मामला जटिल था और महिला के जीवित बचने की संभावना भी कम ही थी। महिला को ब्रेन स्ट्रोक हुआ था। उस महिला का बेटा भी अस्पताल में मौजूद था। माँ की हालत को देखकर वो बहुत ही परेशान था। वो अपनी माँ से बहुत प्यार करता था। डॉ. पद्मा को आभास हुआ कि माँ के न रहने की हालत में बेटा टूट जाएगा, वो बिखर और बिफर जाएगा। माँ की हालत तो डॉ. पद्मा अच्छी तरह से जानती थीं, वे बेटा की मनोदशा को भी अच्छे से समझ गयीं। अपने हर मरीज की तरह ही डॉ. पद्मा ने उस महिला के इलाज में भी जी-जान लगा दिया। अपना सारा अनुभव इलाज में झोंक दिया। माँ वेंटिलेटर पर थीं, लेकिन डॉ. पद्मा के इलाज से महिला को फायदा हुआ और उसे होश आया। होश आने पर माँ मुस्कुराईं भी। उस महिला की मुस्कराहट को देखकर डॉ. पद्मा को एक बात की तसल्ली हुई कि उस महिला के लड़के के जान में जान आएगी। पद्मा ने इसी तरह से कई लोगों की जान बचाई है। ‘इलाज’ को लेकर भी पद्मा की राय काफी अलग है। पद्मा की राय में इलाज का मतलब सिर्फ मरीज को दवाई देना ही नहीं है। इलाज का मतलब सिर्फ मरीज की बीमारी को दूर करना भी नहीं है। इलाज वो है जिसमें डॉक्टर मरीज को ये अहसास दिला सकें कि वे उसकी परवाह करते हैं और सही मायने में उसकी देखरेख करना चाहते हैं। पद्मा कहती हैं, “मैंने अपने हर मरीज को ये जताया है कि मैं ‘केयर’ करती हूँ, यही वजह भी है मरीज मुझपर विश्वास करते हैं और वे मेरे दवाइयों से ठीक भी हो जाते हैं। डॉक्टर और मरीज के बीच एक दूसरे पर विश्वास का होना बहुत ही ज़रूरी होता हैं।”
डॉ. पद्मा की एक नहीं बल्कि ऐसी कई बातें हैं जो उन्हें दूसरे डॉक्टरों से जुदा करती हैं। उनकी एक नहीं बल्कि अनेक खूबियाँ हैं। उनकी अनेक विशेषताओं में एक विशेषता ये भी है कि वे आध्यात्म और धर्म को विज्ञान और चिकित्सा से जोड़ने की कोशिश कर रही हैं। जी हाँ, ये बात शायद कईयों को सुनने में काफी अजीब लगे लेकिन एम्स की ये प्रोफेसर हकीकत में भारतीय आध्यात्म और हिन्दू धर्म को विज्ञान और आधुनिक चिकित्सा पद्धति से जोड़ने की कोशिश में लगी हुई हैं। डॉ. पद्मा ने खुद पर ही प्रयोग कर ये बात साबित करने की कोशिश ही है आध्यात्म, हिन्दू धर्म के विधि-विधानों, मन्त्रों से लोगों का इलाज करने में मदद मिलती है।
इस बात में दो राय नहीं कि पद्मा बहुत ही व्यस्त डॉक्टर हैं। हर दिन वे कई तरह के जटिल मामलों को सुलझाती हैं। कई मरीजों का इलाज करती हैं। प्रोफेसर होने के नाते उन्हें डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों को पढ़ाना भी पड़ता है। शोध और अनुसंधान का काम लगातार चलता ही रहता है। उनपर प्रशासनिक जिम्मेदारियां भी हैं। घर-परिवार की जिम्मेदारियां अलग हैं। कई बार ऐसा भी होता हैं जब उन्हें दिन में 16 से 18 घंटे काम करना पड़ता है। ज़िंदगी में तनाव, आवंचित दबाव, मानसिक और शारीरिक थकावट, निराशा, मायूसी के लम्हे भी आते रहते हैं। इन सब से निपटने के लिए पद्मा ‘गायत्री मंत्र’ का सहारा लेती हैं। पद्मा कहती हैं, “गायत्री मंत्र में बहुत ताकत है। मैं जब भी थकी होती हूँ, या फिर निराश या उदास होती हूँ मैं या तो गायत्री मंत्र सुनती हूँ और मंत्र का जाप करती हूँ।गायत्री मंत्र से मेरी परेशानी दूर हो जाती हैं, मुझे नयी ताकत मिलती हैं।” पद्मा ये बताने से ज़रा-सा भी नहीं हिचकिचाईं कि, “हाल ही में मुझे एक और ऐसे मंत्र का पता चला है जिसका जाप करने ने मानसिक शान्ति मिलती है – ये मंत्र है गोविंद गोविंद हरे मुरारे, गोविंद गोविंद रथांगपाणे । गोविंद गोविंद मुकुंद कृष्णा, गोविंद गोविंद नमोस्तुते ।।
वेदों और पुराणों के मंत्रों से मिलने वाली मानसिक शांति और शक्ति के प्रमाण की बाबत पूछे गए सवालों के जवाब में दिमाग की इस बड़ी डॉक्टर और विशेषज्ञ ने कहा, “मुझे किसी को कोई बात साबित करने की ज़रुरत नहीं हैं। अगर कोई मेरी आलोचना करे तब भी मैं परवाह नहीं करूंगी। हाँ, मैं ये चाहती हूँ कि एलॉपथी, होमियोपैथी, आयुर्वेद, योग, धर्म और आध्यात्म को आपस में जोड़कर लोगों को बीमारियों से दूर करने की कोशिश की जानी चाहिए। हज़ारों सालों से जो हमारी परम्पराएं रही हैं उनका अपना महत्त्व हैं, हमारे रीति-रिवाजों से फायदा है।” अपनी बात को बल देने के मकसद से पद्मा ने कुछ तर्क भी पेश किये। उन्होंने कहा, “जो नहीं दिखता है इसका मतलब ये नहीं है कि वो है ही नहीं। ऐसा हो सकता है कि वो है और आपको नहीं दिखता है। जो पहले नहीं दिखता था तो लोग समझते थे कि वो है ही नहीं, लेकिन जब वो दिखा तो लोग मानने लगे कि वो है। भगवान नहीं दिखते हैं, इसका मतलब ये नहीं है कि वे नहीं हैं।” अपनी इसी बात को साबित करने के लिए पद्मा ने अपने पसंदीदा विषय न्यूरोलॉजी का एक उदहारण दिया। जब तक एमआरआई के बारे में पता नहीं चला था तब तक हम ब्रेन में क्या हो रहा है ये देख नहीं पाते थे। और जब से एमआरआई स्कैन मशीने आयी हैं तब से हम ये देख पा रहे है कि किस स्थिति में ब्रेन कैसे रियेक्ट करता है। जब कोई हँसता है तो हम ये जान जाते हैं कि ब्रेन के किस हिस्से में हरकतें हो रही हैं, जब कोई रोता है तब भी हम ये जानते हैं कि ब्रेन के किस हिस्से में कैसी हरकत हो रही है। जब मशीनें नहीं थीं तो हमें ये दिखता ही नहीं था और हम ये समझते थे कि ऐसा कुछ ब्रेन में होता ही नहीं है।” पद्मा जोर देकर ये कहती हैं कि आध्यात्म भी विज्ञान ही है। अभी शायद लोग इसे नहीं समझेंगे और मानेंगे, लेकिन जब वे इसे अनुभव करेंगे तब खुदबखुद मान जाएंगे।
गौरतलब है कि कुछ ही दिनों पहले पद्मा की माँ की मृत्यु हुई। पद्मा का अपनी माँ से लगाव बहुत ज्यादा था। वे अपनी माँ से बहुत प्यार करती थीं और हर जगह माँ के बारे में ये ज़रूर कहती थीं कि वे जो कुछ भी हैं माँ की वजह से ही हैं। पद्मा ने बताया कि उनकी माँडिमेंशिया यानी मनोभ्रंश का शिकार हो गयी थीं। और जब माँ बीमार हुईं तब माँ-बेटी का भूमिका उलट-पलट हो गयी। यानी माँ की भूमिका में पद्मा थीं और बेटी की भूमिका में उनकी माँ। अंतिम दिनों में पद्मा ने अपनी माँ का ख्याल अपनी बेटी की तरह रखा। लम्बी बीमारी के बाद जब माँ गुज़र गयीं तब लोगों को लगा कि पद्मा टूट जायेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और कर्म-संस्कार पूरे करते ही पद्मा दुबारा अस्पताल लौटीं और पहले जैसे ही काम पर लग गयीं। पद्मा कहती हैं, आध्यात्म में विश्वास ने ही उन्हें टूटने ने बचाया और जल्द ही काम पर वापस लौटाया।पद्मा इन दिनों अपने पति और बेटे के साथ दिल्ली में रह रही हैं। पिता भी पद्मा के साथ की रहते हैं। पद्मा का बेटा पायलट है यानी विमान उड़ाता है।
पद्मा विज्ञान की बहुत बड़ी जानकार हैं, खुद एक वैज्ञानिक हैं, शोधकर्ता हैं, अनुसंधानकर्ता भी, मशहूर डॉक्टर हैं, तंत्रिका विज्ञान के विशेषज्ञ, शिक्षिका हैं, प्रोफेसर भी वो भी देश के सबसे बड़े और मशहूर चिकित्सा संस्थान –एम्स में, फिर भी वे बड़ी बेबाकी से ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति, आध्यात्म में अपने विश्वास, धर्म में अपनी आस्था और मंत्रों/भजन में अपनी रूचि के बारे में बताती हैं। वे अपने दफ्तर में गायत्री मंत्र सुनती हैं और गले में माता निर्मला देवी की लॉकेट वाली माला पहनती हैं। वे आध्यात्मिक गुरुओं से भी बहुत प्रभावित हैं। आध्यात्म की बातें, भजन-कीर्तन और मंत्र सुनना पद्मा को बहुत पसंद है। ऐसा भी नहीं है कि उनका विश्वास सिर्फ हिन्दू धर्म के प्रति है, पद्मा कहती हैं कि हर धर्म की अपनी विशेषता है और महत्त्व भी। धर्म का मतलब – जीवन जीने का तरीका है।
बातचीत के दौरान हमने पद्मा ने ये भी पूछा कि उनकी नज़र में उनके खुद के दिमाग की सबसे बड़ी खूबी क्या है? और उनका दिमाग दूसरों के दिमाग के मुकाबले कितना तेज़ है? इन सवालों के जवाब में डॉ. पद्मा ने कहा, “मेरा दिमाग मज़बूत है ये मैं जानती हूँ, कितना तेज़ है ये मुझे पता नहीं। हाँ, लेकिन मेरे मन में दूसरों के प्रति हमदर्दी हैं, प्यार है, सहानुभूति है, संवेदना है। मैं दूसरों के दर्द को अच्छे से समझ सकती हूँ। मैं दूसरों के दुःख और उनकी पीड़ा को भी महसूस कर सकती हूँ। यही वजह है कि मैं लोगों की पीड़ा और उनके दुःख को दूर करने की हर मुमकिन कोशिश करती हूँ। मैं मरीजों को ये अहसास दिलाती हूँ कि मैं उनकी सेवा के प्रति सच्चे भाव से समर्पित हूँ, तभी वे मुझमें और मेरे इलाज में भरोसा करते हैं और ठीक हो जाते हैं।”
पद्मा की कुछ अधूरी ख्वाइशें हैं जिन्हें वे एम्स से रिटायरमेंट के बाद पूरा करना चाहती हैं। उनकी सबसे बड़ी ख्वाइश है – निस्सहाय और परित्यक्त बूढ़े लोगों के लिए वृद्धआश्रम खोलने। दूसरी बड़ी ख्वाइश है – फिर से संगीत का रियाज़ शुरू करना। पद्मा कहती हैं – "मैं संगीत सीखना चाहती हूँ,अपना गाना दूसरों को सुनांने के लिए नहीं बल्कि खुद के आनंद के लिए।"
ज़िंदगी में कामयाब होने के लिए लोगों को कुछ मंत्र बताने के लिए जब पद्मा से अनुरोध किया गया तब उन्होंने कहा, “हर इंसान को खुद पर भरोसा करना चाहिए। अगर इंसान को खुद की ताकत और काबिलियत पर भरोसा है और वह मन लगाकर काम करे और मेहनत करे तब ऐसा कुछ भी नहीं है जो वो हासिल नहीं कर सकता। हाँ, लेकिन एक बात ज़रूर है – वक्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिल सकता। और वक्त नहीं आया है; इसका मतलब ये नहीं है कि मेहनत करना बंद कर दिया जाय। मेहनत करते रहना चाहिए। मकसद हासिल नहीं हो रहा है इसके लिए निराश नहीं होना चाहिए। निराशा को मन से दूर रखना चाहिए, तभी कामयाबी मिलेगी।” पद्मा ने ये भी कहा कि दो बातें ज़िंदगी में ज़रूर होनी चाहिए, एक – जीने का मकसद होना चाहिए और दो - ज़िंदगी में एक ऐसा इंसान होना चाहिए जिसे मन की बातें बताई जा सकें। अगर जीवन में ये दो बातें हैं तो जीवन सही है, वरना जीवन का मकसद ही बेकार है।
बातचीत के दौरान पद्मा ने अपने शोध, अनुसंधान और अनुभव के आधार पर एक और बेहद दिलचस्प बात बताई। पद्मा ने कहा, ज़िंदगी में स्ट्रेस यानी तनाव का होना ज़रूरी है। लेकिन, तनाव ज्यादा समय तक नहीं होना चाहिए। अगर तनाव ज्यादा समय तक रहता है तो वो नुकसान पहुंचता है। लेकिन, अगर ज़िंदगी में तनाव नहीं है तब भी नुकसान है। तनाव के दौरान ब्रेन में कुछ ऐसे हार्मोन एक्टिवेट होते हैं जिससे इंसान में नए जोश का संचार होता है और इंसान की ताकत बढ़ती है।