नौकरी के बाजार से गुम होती महिलाएं
भारत में शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है, लेकिन नौकरी में उनकी हिस्सेदारी का ग्राफ कम हो रहा है. पढ़ाई में अव्वल महिलाएं भी नौकरी में अव्वल क्यों नहीं हैं?
यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन प्रोजेक्शन का आंकड़ा कहता है कि 2027 तक भारत का वर्कफोर्स या लेबर फोर्स सबसे बड़ा होगा. पूरी दुनिया का 18.6 फीसदी लेबर फोर्स भारत में होगा. सबसे बड़ा वर्कफोर्स मतलब सबसे ज्यादा काम करने या काम करने की क्षमता रखने वाले लोग. यानि 18 से लेकर 60 आयु वर्ष तक की सबसे बड़ी पॉपुलेशन भारत में होगी. इस डेटा को ऐसे भी देख सकते हैं डेमोग्राफी के मुताबिक सबसे ज्यादा युवा भारत में होंगे.
लेकिन सबसे ज्यादा कामकाजी, नौकरीपेशा लोगों के इस देश में कामकाजी औरतों का आंकड़ा देखिए तो एक विरोधाभासी तस्वीर नजर आती है. देश में काम करने वाले और काम ढूंढ रहे युवाओं की संख्या तो तेजी से बढ़ रही है, लेकिन इस अनुपात में काम करने वाली औरतों की संख्या बढ़ने की बजाय कम होती जा रही है.
भारत के नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) की पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे रिपोर्ट कह रही है कि भारत के वर्क फोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 23.3 फीसदी है.
वर्ल्ड बैंक के डेटा के मुताबिक भारत के वर्क फोर्स में औरतों हिस्सेदारी दुनिया में सबसे कम है. वर्ल्ड बैंक फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट (Female Labour Force Participation Rate) को ऐसे परिभाषित करता है कि 15 साल और उससे अधिक उम्र की वो महिलाएं जो काम कर रही हैं या काम ढूंढ रही हैं. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक 2019 में हमारे यहां 20.3 फीसदी औरतें नौकरी के बाजार से बाहर हो गईं.
और ये तब हो रहा है, जब शिक्षा के क्षेत्र में न सिर्फ महिलाओं की भागीदारी, बल्कि उनकी सफलता का ग्राफ भी लगातार बढ़ रहा है. लड़कियां पढ़ाई में कमाल का प्रदर्शन कर रही हैं, लेकिन नौकरी के बाजार में उनकी हिस्सेदारी बढ़ने की बजाय लगातार कम हो रही है.
पिछले महीने आईआईआई बिजनसे समिट में बोलते हुए टाटा संस के चेयरमैन एन. चंद्रशेखरन ने कहा था कि अगर भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करना है तो महिलाओं की हिस्सेदारी को बढ़ाना होगा, जो अभी अन्य विकसित और मजबूत अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले बहुत कम है.
भारत में 2014 तक बोर्ड मेंबर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी 9.4 फीसदी थी, जो 2021 तक बढ़कर 17.2 फीसदी हो गई, लेकिन इसका सारा श्रेय कंपनीज एक्ट, 2013 को जाता है. कंपनीज एक्ट, 2013 में यह नया क्लॉज जोड़ा गया कि हर कंपनी के बोर्ड मेंबर्स में एक महिला सदस्य का होना अनिवार्य है. यह नियम बनाने से महिला बोर्ड मेंबर्स की संख्या में जरूर इजाफा हुआ है, लेकिन बोर्ड चेयर आज भी सिर्फ 3.6 फीसदी महिलाएं हैं. भारत में महिला सीईओ की संख्या 4.3 प्रतिशत है. ये सारे आंकड़े डेलॉइट ग्लोबल विमेन इन द बोर्डरूम (Deloitte Global’s Women in the boardroom) की रिपोर्ट से हैं.
अगर भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करना है तो महिलाओं की हिस्सेदारी को बढ़ाना होगा, जो अभी अन्य विकसित और मजबूत अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले बहुत कम है.
भारत के श्रम बाजार में महिलाओं की हिस्सेदारी का ग्राफ बढ़ता नजर नहीं आ रहा, जबकि सरकार और पॉलिसी निर्माण के स्तर पर इसकी कोशिशें और दावे दोनों ही जोर-शोर से हो रहे हैं.
संभवत: इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि यहां घरेलू कामकाज, बच्चों की देखभाल और पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ अभी भी औरतों के कंधों पर ही है. नौकरियों में एंट्री लेवल पर तो महिलाएं आ रही हैं, लेकिन वो आगे नहीं बढ़ रहीं. उनका ड्रॉप आउट रेट बहुत ज्यादा है. जैसे Mercer’s 2021 की रिपोर्ट कहती है कि भारत में एंट्री लेवल में 43 फीसदी महिलाएं हैं, लेकिन मिड लेवल तक आते-आते यह संख्या 12 से 17 फीसदी रह जाती है और एक्जीक्यूटिव लेवल तक आते-आते और कम होकर 3 से 4 फीसदी पर पहुंच जाती है.
नेशनल स्टैटिकल ऑफिस (एनएसओ) की साल 2019 की रिपोर्ट कहती है कि एक भारतीय महिला प्रतिदिन 243 मिनट यानी चार घंटे घरेलू काम करती है. जबकि भारतीय पुरुष का यह औसत समय सिर्फ 25 मिनट है. यानी उसके आधे घंटे से भी कम घरेलू कामों में खर्च होते हैं. इन आंकड़ों की तह में जाएं तो एक भारतीय महिला प्रतिदिन अपने उत्पादक समय का 19.5 फीसदी हिस्सा घरेलू काम कर रही होती है. यह वह काम है, जिसके लिए उसे अलग से कोई वेतन नहीं मिलता. पुरुष की घरेलू कामों में हिस्सेदारी सिर्फ 2.3 प्रतिशत है. वेतन वाली नौकरी के साथ-साथ 81 फीसदी औरतें घर के काम करती हैं, जबकि मात्र 19 फीसदी मर्दों की घरेलू कामों में हिस्सेदारी है.
एक भारतीय महिला प्रतिदिन अपने उत्पादक समय का 19.5 फीसदी हिस्सा घरेलू काम कर रही होती है. यह वह काम है, जिसके लिए उसे अलग से कोई वेतन नहीं मिलता.
मैरिलिन वेरिंग फेमिनिस्ट इकोनॉमिस्ट हैं. वो अपनी किताब 'इफ विमेन काउंटेड' में लिखती हैं कि अगर मुल्कों की आधी आबादी यानि औरतों के श्रम को जीडीपी में बदलकर देखा जाए तो हम पाएंगे कि उनका अब तक का सारा मुफ्त श्रम दुनिया के 50 सबसे ताकतवर मुल्कों की समूची जीडीपी के बराबर ठहरता है.
श्रम के बाजार में औरतों की कम हिस्सेदारी की सबसे बड़ी वजह यही है कि उनके सीमित श्रम का एक बड़ा हिस्सा वहां खर्च हो रहा है, जो मुफ्त का श्रम है और जहां इस श्रम का आंकलन मुद्रा में नहीं हो रहा है. एडम स्मिथ जैसे कंजरवेटिव इकोनॉमिस्ट जिस श्रम को “प्रेम के लिए किया गया श्रम”
कहते हैं.
हर इंसान के पास दिन के वही 24 घंटे हैं. औरतों के पास भी और पुरुषों के पास भी. ये बात अलग है कि औरतें उस 24 घंटे का एक बड़ा हिस्सा ऐसे श्रम में खर्च कर रही हैं, जिसके लिए उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता और जिसकी जीडीपी में गणना नहीं होती. 100 साल पहले मर्दवादी अर्थशास्त्री उस श्रम को “प्रेम के लिए किया गया श्रम” कहते थे. वो तो फेमिनिस्ट अर्थशास्त्रियों ने ये सवाल उठाया कि इस मुफ्त के श्रम को जीडीपी में जोडि़ए, पैसे में उसकी गणना कीजिए और देखिए कि आपने औरतों से कितना बेगार करवाया है. जितने श्रम से मर्दों ने संसार के पचास ताकतवर मुल्कों की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्थाएं खड़ी कर दीं, उससे कहीं ज्यादा श्रम औरतों ने किया है.
ये बात अलग है कि उस श्रम का कहीं कोई हिसाब नहीं हुआ और इसका उन्हें कोई पैसा नहीं मिला.